जब हार कर भी जीत गए थे पंडित दीनदयाल
आज की बेअंदाज राजनीति में जब विनम्रता और शालीनता जैसे शब्द गूलर के फूल से अपरिचित हो गए हों तो बरबस ही याद आती है बीते दौर के उन नायकों की, आदर्शवाद के उन नायकों की जिन्होंने अपनी सादगी और सरलता से देश की राजनीति को लोकतांत्रिक मूल्यों के शिखर तक पहुंचाया। संविधान के गूढ़ अर्थो को आम जन तक पहुं
जौनपुर [सतीश सिंह]। आज की बेअंदाज राजनीति में जब विनम्रता और शालीनता जैसे शब्द गूलर के फूल से अपरिचित हो गए हों तो बरबस ही याद आती है बीते दौर के उन नायकों की, आदर्शवाद के उन नायकों की जिन्होंने अपनी सादगी और सरलता से देश की राजनीति को लोकतांत्रिक मूल्यों के शिखर तक पहुंचाया। संविधान के गूढ़ अर्थो को आम जन तक पहुंचाने के लिए भाषणों की बजाय अपने किरदार को ही माध्यम बनाया।
ऐसे ही नायकों में उन दिनों एक नाम हुआ करता था भारतीय जनसंघ के प्रखर नेता दीनदयाल उपाध्याय का। जौनपुर से लोकसभा का चुनाव लड़ चुके जनसंघ नेता दीनदयाल जी को ले कर पुरनिये जौनपुरियों के पास आज भी ढेरों संस्मरण हैं मगर उन्हें वह वाकया कभी नहीं भूलता जब चायखाने की एक बइठकी की नब्ज भांप कर दीनदयाल जी ने चुनाव से पहले ही हार मान ली और विरोधी की लोकप्रियता को सलाम कर लिया।
तब शायद उन्हें भी इलहाम न रहा होगा कि उनका यह उदार किंतु ईमानदार फैसला उनके मैदान हारने के बाद भी एक अमिट संस्मरण बन जाएगा। राजनीति की रपटीली राहों में एक कभी न डिगने वाला मील का पत्थर गड़ जाएगा। बात है वर्ष 1963 के लोकसभा उप चुनाव की। जनप्रिय कांग्रेस नेता राजदेव सिंह जौनपुर संसदीय सीट से पार्टी प्रत्याशी के रूप में चुनाव लड़ रहे थे।
भारतीय जनसंघ ने उनके मुकाबले अपने तपे हुए नेता पं. दीनदयाल उपाघ्याय को मैदान में उतारा था। चुनाव प्रचार चरम पर था, जनसंपर्क अभियानों की होड़ थी। उस दिन सुबह-सुबह ही दीनदयाल जी पार्टी कार्यकर्ताओं के साथ लोगों से मिलने जुलने निकले थे। इत्तेफाक से वे भी ओलंदगंज स्थित पकड़ी के पेड़ के नीचे स्थित उस चाय की गुमटी तक पहुंच गए जहां बाबू साहब (राजदेव सिंह) चाय की चुस्कियों के बीच कोई चालीस-पचास नागरिकों से घिरे उनका दुख-सुख सुन रहे थे।
पंडित जी ने देखा-सुना और बइठकी का मर्म गुना। छूटते ही अपने कार्यकर्ताओें से कहा. 'मैंने चुनाव के पहले ही हार मान ली।' कार्यकर्ता अवाक कि यह क्या बात हुई। दीनदयाल जी ने उन्हे समझाया 'इतनी सुबह मुंह धोये-बिना ही इतने सारे लोग जिस नेता के साथ अपना दुख-दर्द बांटने निकल पड़ते हों उसकी लोकप्रियता का अंदाज लगाया जा सकता है। ऐसे नेता से मैं चुनाव कैसे जीत सकता हूं।'
.और हुआ भी वही, दीनदयाल चुनाव हार गए। बस एक नजर में जनमत की नब्ज भांप लेने वाले ऐसे किसी स्वत: स्फूर्त 'तुरंता सर्वे' की आज की राजनीति में कल्पना भी नहीं की जा सकती।