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सरकार के 3 साल: मुकाबले में बने रहने की जद्दोजद से जूझ रहा है विपक्ष

बीते लोकसभा चुनाव में मोदी लहर में ध्वस्त हुआ विपक्ष अब भी चुनौती पेश करने के लिए खुद को खड़े करने की जद्दोजहद से जूझ रहा है।

By Kishor JoshiEdited By: Published: Tue, 23 May 2017 05:16 AM (IST)Updated: Tue, 23 May 2017 05:16 AM (IST)
सरकार के 3 साल: मुकाबले में बने रहने की जद्दोजद से जूझ रहा है विपक्ष
सरकार के 3 साल: मुकाबले में बने रहने की जद्दोजद से जूझ रहा है विपक्ष

संजय मिश्र, नई दिल्ली। अपनी उपलब्धियों का जश्न मना रही मोदी सरकार की अगर इन तीन वर्षो में कोई सबसे बड़ी राजनीतिक कामयाबी रही है तो वह विपक्ष का सियासी मुकाबले से लगभग बाहर रहना है। बीते लोकसभा चुनाव में मोदी लहर में ध्वस्त हुआ विपक्ष अब भी चुनौती पेश करने के लिए खुद को खड़े करने की जद्दोजहद से जूझ रहा है। विपक्ष की इस चुनौती में भी सबसे बड़ी दीवार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ही नजर आ रहे हैं। विपक्ष के सामने जहां मोदी के मुकाबिल चेहरे की अब भी तलाश है। तो जमीन पर भाजपा के सियासी विस्तार और प्रबंधन को थामने की बड़ी चुनौती।

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फिलहाल राष्ट्रपति चुनाव में गैर एनडीए पार्टियों की गोलबंदी के विस्तार के सहारे विपक्ष अपनी चुनौती को संघर्ष का रुप देने की कोशिश जरूर कर रहा है। मगर पिछले तीन साल में राजनीति के मैदान पर विपक्ष मजबूत वापसी करते हुई दिखाई नहीं पड़ा है। चुनावी नतीजों के हिसाब से तो पिछले तीन साल में हुए चुनाव में अधिकांश राज्यों में मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस को लगातार हार का सामना करना पड़ा है।

वर्ष 2014 में सबसे पहले महाराष्ट्र और हरियाणा में कांग्रेस ने भाजपा के हाथों अपनी सत्ता गंवाई तो फिर यह सिलसिला अब भी थमने का नहीं ले रहा। जम्मू-कश्मीर, अरुणाचल प्रदेश, उत्तराखंड, झारखंड, मणिपुर, असम से लेकर गोवा और देश के सबसे बड़े सूबे उत्तरप्रदेश में भाजपा की प्रचंड चुनावी कामयाबी विपक्ष की जमीनी हालत की कहानी खुद ही बयान करते हैं। इन तीन सालों में दिल्ली और बिहार के चुनावों में जरूर भाजपा को झटका लगा। मगर कठिन दिनों में मिले इन दोनों सियासी संजीवनी का विपक्ष लाभ नहीं ले सका।

राजनीतिक चुनौतियों के चक्रव्यूह में घिरी कांग्रेस के लिए पंजाब की जीत ने उम्मीद की किरण जरूर जगाई है। मगर पार्टी की मौजूदा दशा-दिशा उम्मीद की इस रोशनी को आगे बढ़ाने की राह अब भी तलाश नहीं पायी है। कांग्रेस की समस्या यह भी है कि राहुल गांधी राजनीतिक अखाड़े में नरेंद्र मोदी को चुनौती पेश करते नहीं दिख रहे हैं। विपक्षी खेमे में कांग्रेस के साथ खड़ी वामपंथी पार्टियों और क्षेत्रीय दलों के सामने भी गहरी चुनौतियां हैं। उत्तरप्रदेश चुनाव के नतीजों से जहां बसपा जैसी पार्टी के अस्तित्व को लेकर सवाल उठने लगे हैं।

वहीं समाजवादी पार्टी हार के बाद भी अंदरुनी कलह से बाहर निकलती नहीं दिख रही। विपक्षी महागठबंधन की मुखर रुप से पैरोकारी कर रही ममता बनर्जी के सामने भी पश्चिम बंगाल में भाजपा को पैठ बनाने से रोकने की नई चुनौती आन पड़ी है। वहीं पश्चिम बंगाल की सत्ता से बाहर होने के बाद वामपंथी पार्टियों के लिए अब केवल केरल और त्रिपुरा का ही सहारा रह गया है। विपक्षी गठबंधन के दो अहम नेताओं जदयू प्रमुख बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और राजद प्रमुख लालू प्रसाद सूबे की अपनी अंदरुनी सत्ता सियासत को साधने की कसरत में ही बार-बार मशक्कत करते नजर आते हैं। ओडि़सा में बीजद प्रमुख मुख्यमंत्री नवीन पटनायक के लिए भी सूबे में उभरती हुई भाजपा सियासी मुसीबत बढ़ा रही है।

दक्षिण भारत की क्षेत्रीय पार्टियों का रुख भी विपक्षी महागठबंधन के लिए कोई ज्यादा सुखद नहीं दिख रहा। तेलंगाना में सत्ताधारी टीआरएस तो आंध्रप्रदेश की मुख्य विपक्षी पार्टी वाइएसआर कांग्रेस ने राष्ट्रपति चुनाव में एनडीए का साथ देने की बात कह यह साफ संदेश दे दिया है कि ये दोनों पार्टियां विपक्ष के महागठबंधन की किसी पहल से दूर रहेंगी। आंध्र की सत्ताधारी टीडीपी पहले से ही एनडीए के साथ है। इसी तरह जयललिता के निधन के बाद अन्नाद्रमुक के दोनों धड़े फिलहाल केन्द्र की एनडीए के साथ ही चलने में अपनी राजनीतिक भलाई देख रहे हैं। द्रमुक ने जरूर यूपीए के साथ चलने की अपनी निष्ठा जारी रखी है।

राजनीति के मैदान में जद्दोजहद कर रहे विपक्ष ने वैसे कुछ अहम मुद्दों पर जरूर सरकार को चुनौती देने की इन सालों में कोशिश की है। इसमें सबसे पहली बड़ी कामयाबी भूमि अधिग्रहण कानून में संशोधन की सरकार की कोशिश को रोकना रहा। राज्यसभा में अपनी ताकत के सहारे भूमि अधिग्रहण बिल को रोका वहीं सहिष्णुता, राष्ट्रवाद की भाजपा की परिभाषा पर सवाल उठाने से लेकर जीएसटी बिल में कुछ अहम बदलाव को शामिल कराने में कामयाबी पायी। इसलिए यह कहने से कोई गुरेज नहीं कि सियासी मैदान नहीं बल्कि राज्यसभा की ताकत के जरिए ही विपक्ष अपनी प्रासंगिकता का अहसास करा सका। विपक्ष के जमीन पर कमजोर होने की वजह से ही आज तीन साल बाद भी मोदी की अगुवाई में एनडीए सियासी फर्राटा भरते नजर आ रहा है।

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