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बढ़ते जल संकट से निपटने के उपाय, बदलनी होगी जल संरक्षण को लेकर अपनी सोच

सरकारों की लचर नीतियां और जनता का पानी को लेकर नजरिया भी जल संकट को और गहरा बना रहा है। सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद माना जा रहा है कि कर्नाटक में चुनावी मुकाबले पर कावेरी के पानी का बड़ा असर पड़ेगा।

By Kamal VermaEdited By: Published: Mon, 19 Feb 2018 10:03 AM (IST)Updated: Mon, 19 Feb 2018 10:03 AM (IST)
बढ़ते जल संकट से निपटने के उपाय, बदलनी होगी जल संरक्षण को लेकर अपनी सोच
बढ़ते जल संकट से निपटने के उपाय, बदलनी होगी जल संरक्षण को लेकर अपनी सोच

नई दिल्‍ली [अभिषेक कुमार]। तमिलनाडु और कर्नाटक के बीच करीब सवा सौ साल से चल रहे कावेरी जल विवाद पर हाल में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाते हुए तमिलनाडु के पानी का हिस्सा घटा दिया है। तमिलनाडु की हिस्सेदारी 192 से 177.25 टीएमसी कर दी गई, जबकि कर्नाटक की आइटी सिटी बेंगलुरु की बढ़ती जरूरतों के मद्देनजर कर्नाटक को अब 14.75 टीएसी फीट ज्यादा पानी दिया जाएगा। इस मामले पर कर्नाटक, तमिलनाडु और केरल ने फरवरी 2007 के कावेरी टिब्यूनल के अवार्ड को चुनौती दी थी। कर्नाटक चाहता था कि तमिलनाडु को जल आवंटन कम करने के लिए सुप्रीम कोर्ट आदेश जारी करे, जबकि तमिलनाडु का कहना था कि कर्नाटक को जल आवंटन कम किया जाए। कर्नाटक में आसन्न विधानसभा चुनावों के नजरिये से यह फैसला काफी असरदार साबित हो सकता है, लेकिन तमिलनाडु को यह रणनीतिक हार आगे भी परेशान करती रह सकती है। मामला असल में सिर्फ कर्नाटक, तमिलनाडु, केरल और पुदुचेरी का नहीं है। देश के अलग-अलग हिस्सों में नदियों के जल बंटवारे और उन्हें प्रदूषित करने के मामलों को लेकर कई झगड़े चल रहे हैं। जिस तरह शहरों में आबादी बढ़ रही है, पेयजल का संकट विचित्र हालात पैदा कर रहा है।

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पानी को लेकर राजनीति

उल्लेखनीय है कि जिन राज्यों के पास सदानीरा नदियों के रूप में अच्छा जल संसाधन है, उन्हें अपने खेतों की सिंचाई और नागरिकों के लिए पेयजल की समस्या भले न हो, लेकिन वे इसका रणनीतिक इस्तेमाल करने से नहीं चूक रहे हैं। अब ज्यादातर राज्य पानी को लेकर राजनीति करने या कहें कि मोलभाव का हथियार बनाने पर आमादा हो गए हैं। इसकी अहम वजह यह है कि देश के बड़े शहरों-महानगरों में जिस रफ्तार से आबादी बढ़ रही है, साफ पानी के उनके अपने संसाधन उतनी ही तेजी से कम होते जा रहे हैं। उदाहरण के रूप में सतलुज-यमुना लिंक नहर के मामले को लिया जा सकता है। इसे लेकर दिल्ली और हरियाणा के बीच अक्सर तलवारें खिंचती रही हैं। दो साल पहले के वे दृश्य कौन भूल सकता है, जब 2016 में हरियाणा के आंदोलकारियों ने यह नारा लगाते हुए देश की राजधानी दिल्ली के लिए पेयजल सप्लाई करने वाली अहम मुनक नहर तोड़ दी थी कि अगर हम भूखे रहने को मजबूर हुए तो आप भी प्यास से तड़पकर जान दोगे।

गई मुनक नहर की मरम्मत

यही नहीं, आंदोलनकारियों द्वारा तोड़ी गई मुनक नहर की मरम्मत पूरी होती, इससे पहले ही एक सालाना परंपरा के रूप में यमुना नदी में अचानक बढ़ी अमोनिया की मात्र ने दिल्ली जल बोर्ड के चार और जलशोधन संयंत्रों को भी बंद करने पर मजबूर कर दिया था। ये जलशोधन संयंत्र तभी तक पानी साफ करते रह सकते हैं, जब तक कि नदी से उन्हें मिलने वाले पानी में अमोनिया की मात्र तय स्तर से ऊपर न जाए। बहरहाल पानी का यह ऐसा संकट है जिसके बारे में आज कोई बड़ा शहर गारंटी नहीं दे सकता कि ऐसे नजारे वहां उपस्थित नहीं होंगे। मुद्दा सिर्फ सरकारों या आंदोलनकारियों का रवैया नहीं है, बल्कि यह भी है कि आखिर शहरों ने पानी के संकट से निपटने के अपने क्या इंतजाम किए हैं और शहरवासी खुद पानी की सार-संभाल को लेकर कितने चिंतित हैं? जैसे नजारे दिल्ली में दिखते रहे हैं, वैसे ही दूसरे बड़े शहर भी कई अन्य कारणों से बेतहाशा जलसंकट झेल चुके हैं।

सरकार की अनिवार्य प्राथमिकता

ऐसे मामलों में अदालतें स्पष्ट करती रही हैं कि हरेक नागरिक को पेयजल उपलब्ध कराना प्रत्येक सरकार की अनिवार्य प्राथमिकता है। इसके बाद सिंचाई का नंबर आता है और शाही स्नान या औद्योगिक उत्पादन के लिए पानी मुहैया कराना आखिरी प्राथमिकता होनी चाहिए। असल में पानी के इस्तेमाल की प्राथमिकता कई सवाल खड़े करती रही है। कई सरकारें आम जनता से ज्यादा फैक्टियों की फिक्रकरती रही हैं। पिछले कई वर्षो से यह भी देखा जा रहा है कि जलाशयों का पानी किसानों और आम लोगों को पेयजल व सिंचाई के लिए देने के बजाय या तो बूचड़खानों और बड़ी कंपनियों को सप्लाई किया जा रहा है या ऐसे आयोजनों में भेजा जा रहा है जहां वह सिर्फ बर्बाद होता है। साफ है कि सरकारों की लचर नीतियां और जनता का पानी को लेकर अप्रोच (नजरिया) भी इस समस्या को और गहरा बना रहा है। अगर लोग घरों में सप्लाई होने वाले पेयजल से कारों व फर्श की धुलाई और बगीचे की सिंचाई करेंगे तो वे भी पानी के संकट के लिए उतने ही जिम्मेदार होते हैं।

पानी वितरण की नाकाम व्यवस्थाएं

हमारे शहरों में आम लोगों द्वारा बर्बादी के अलावा पानी के वितरण की नाकाम व्यवस्थाएं, सप्लाई में लीकेज और पानी की चोरी जैसी समस्याएं कोढ़ में खाज वाली स्थितियां तो पैदा कर ही रही हैं। साथ में बारिश के पानी को जमा करने (वाटर हार्वेस्टिंग) और भूजल रिचार्ज करने वाली तकनीकों पर गंभीरता से अमल न करके पानी को राजनीति का टूल बनने का मौका दिया जा रहा है। विशेषज्ञों का मत है कि अगर यमुना पर बांध और बैराज बनाकर व बारिश के पानी को सहेजकर रखा जाए तो कैसे भी संकट में दिल्लीवासियों को छह महीने तक पानी की सप्लाई आराम से हो सकती है। ध्यान रहे कि तकरीबन हर बड़े शहर में पानी को बचाने व सहेजने के बारे में एक-सा लापरवाह रवैया अपनाया गया है। भविष्य में ऐसे संकट न हों, इसके लिए जरूरी है कि देश के हर गांव और शहर के हर घर में पानी के संरक्षण के लिए वहां की परिस्थितियों के अनुसार जल संग्रहण का काम होना चाहिए।

पानी की स्थानीय स्तर पर व्यवस्था

हर गांव का हर घर अपने एक खेत को पानी के संरक्षण के लिए समर्पित कर पानी की स्थानीय स्तर पर व्यवस्था कर सकता है। भूमिगत जल को वर्षा जल से रिचार्ज करने की जरूरत है ताकि वर्षा का पानी तत्काल बहने से रोका जा सके और उसे प्राकृतिक जल चक्र से जोड़ा जा सके। तालाबों व कुओं को वर्षा जल से जीवित करने और उन्हें लगातार रिचार्ज करते रहने की भी जरूरत है। शहरों में पानी की जरूरत को आसपास की नदियों के बजाय जल संरक्षण की उन व्यवस्थाओं से जोड़ने की जरूरत है जो वर्षा जल का संग्रह करके पूरे साल पानी की सप्लाई दे सकती हैं। ऐसे प्रबंध बड़े पैमाने पर हों तो न तो मानसून सीजन में कम बारिश का भय सताएगा और न ही जल बंटवारे पर कोर्ट के आदेशों का इंतजार करना पड़ेगा।

(लेखक एफआइएस ग्लोबल से संबद्ध हैं)

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