यौन हिंसा पर समाज की सोच बदलने की जरूरत
जब तक लोगों की समझदारी नहीं बदलेगी और महिलाओं की पूरी सुरक्षा की गारंटी तय नहीं होगी तब तक यौन हिंसा और उससे पीड़ितों के अपमान की घटनाएं सूर्खियां बनती रहेंगी।
अंजलि सिन्हा
किसी स्कूल की छवि इस आधार पर कैसे धूमिल हो सकती है कि वहां पढ़ने वाले विद्यार्थियों में कोई किसी भी प्रकार के अपराध से पीड़ित है। दरअसल, स्कूल की छवि तो अच्छी बन जानी चाहिए कि वह अपनी तरफ से कोई भेदभाव नहीं करता है और पीड़ितों के प्रति संवेदनशीलता का परिचय देता है। इसी बहाने स्कूल स्टाफ और विद्यार्थियों में इस बात की संवेदनशीलता पैदा होती कि किसी भी किस्म की हिंसा का शिकार सहपाठी के बारे में, व्यक्ति के बारे में उनकी सोच क्या हो? मगर दिल्ली के एक निजी स्कूल ने जिस तरह यौन हिंसा की पीड़ित एक छात्र के साथ व्यवहार किया, वह बताता है कि स्कूल भी उसी समाज का हिस्सा है, उसी मानसिकता से बुरी तरह ग्रस्त है जहां बलात्कारी के लिए जगह है, जिसकी फिर से शादी-ब्याह हो सकती है और वह अपनी गृहस्थी चला सकता है, लेकिन पीड़िताओं का अपना घर बसाना, शादी होना आज भी आसान नहीं है।
मालूम हो कि 10वीं कक्षा की उपरोक्त छात्र का सड़क चलते अपहरण किया गया था और चलती गाड़ी में बलात्कार करके उसे सड़क किनारे फेंक दिया गया था। अब जबकि छात्र फिर स्कूल जाने की स्थिति में है तो स्कूल ने लड़की के पिता के सामने शर्त रखी है कि उसे 11वीं में दाखिला तभी मिलेगा, जब वह घर से ही पढ़ाई करे। स्कूल प्रबंधन का कहना है कि उसके आने से विद्यालय की छवि पर असर पड़ेगा। प्रशासन ने दूसरी शर्त रखी है कि स्कूल में लड़की के सुरक्षा की जिम्मेदारी उनकी नहीं होगी। इस घटना पर दिल्ली महिला आयोग ने शिक्षा विभाग को नोटिस जारी किया है। परिजनों ने आयोग को बताया कि प्रबंधन ने उनकी बेटी का स्कूल बस बंद कर दिया है और उसे अपने दोस्तों के साथ बैठने से भी मना किया है।
ऐसी स्थिति में उस लड़की की मन:स्थिति का हम अंदाजा लगा सकते हैं, जहां घटना के बाद लोगों का नजरिया उसे कठघरे में खड़ा कर देने वाला हो गया है। इस मामले में स्कूल प्रबंधन पर सख्त कार्रवाई की जरूरत है ताकि पीड़ित लड़की में सुरक्षा, सम्मान और समाज के प्रति भरोसे का बोध पैदा हो सके। वैसे तो किसी भी समाज से बलात्कार और किसी भी प्रकार के यौन अपराध को पूर्णत: समाप्त होना चाहिए, लेकिन सभी को पता है कि निकट भविष्य में ऐसा होने नहीं जा रहा है। जब तक लोगों की मानसिकता नहीं बदलती और महिलाओं की पूरी सुरक्षा की गारंटी नहीं होती है तब तक ऐसी घटनाएं सूर्खियां बनती रहेंगी, लेकिन तब तक पीड़िताओं के प्रति समाज का नजरिया बदलना अलग से ही एक काम बनता है।
इस पर गंभीरता से सोचने की आवश्यकता है क्योंकि यौन अत्याचार के मसले की व्यापकता बढ़ रही है। इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि कोई दिन ऐसे नहीं, जब ऐसी घटनाएं सरकार और पूरे समाज के पैमाने पर चिंता का कारण न बनती हों। राष्ट्रीय महिला आयोग के आंकड़े बताते हैं कि हर साल बीस हजार महिलाएं बलात्कार की शिकार हो रही हैं। इस मामले में पीछे की तुलना में ऐसे आंकड़ें बढ़े हैं। सभी को यह भी पता है कि ऐसे अपराध के केस जो दर्ज होते हैं, उनकी तुलना में कई गुणा अधिक आंकड़े होते हैं जो तमाम वजहों से दर्ज होने से वंचित रह जाते हैं। अगर दिल्ली में हर साल पांच सौ से छह सौ तक बलात्कार के मामले दर्ज होते हैं और देश भर में यह आंकड़ा 11 हजार को पार करता है।
कुछ समय पहले एक पत्रिका के एक सर्वेक्षण से खुलासा हुआ कि हर 35 मिनट में एक औरत बलात्कार की शिकार होती है। यौन अत्याचार जैसे विशिष्ट अपराध को लेकर कानूनी धारणाएं एवं समाज की मान्यताओं के बीच काफी अंतर के चलते ऐसे अपराध में दोषसिद्धी की दर लगभग एक तिहाई घटी है। मिसाल के तौर पर अगर हम नवंबर 2011 में राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों पर गौर करेंगे तो विचलित करने वाली स्थिति बन सकती है। ब्यूरो के मुताबिक विगत 40 सालों में महिलाओं के खिलाफ अत्याचार के मामलों में 800 फीसद का इजाफा हुआ है जबकि इस दौरान दोषसिद्धी यानी अपराध साबित होने की दर लगभग एक तिहाई घटी है। ऐसी किसी घटना के भय से आज भी घरों में लड़कियों के बाहर आने जाने पर कई तरह से प्रतिबंध रहते हैं। गतिशीलता पर रोक के कारण उनके करियर पर भी असर पड़ता है। देर तक लैब या लाइब्रेरी में काम करना या पढ़ना जारी नहीं रह पाता है।
अलबत्ता अब यह देखने में भी आ रहा है कि बलात्कार पीड़िताओं पर ही लांछन लगाने की चली आ रही परंपरा को चुनौती देते महिलाएं आगे आ रही हैं। याद करें कि पश्चिम बंगाल के पार्क स्टीट की घटना जिसमें सुजेन जार्डन नामक महिला के साथ रात के वक्त सामूहिक बलात्कार हुआ था। लंबे समय तक उन्हीं पर लांछन लगता रहा था कि वह रात के वक्त पार्क स्ट्रीट क्यों गई थीं? सुजेन ने बाद में एक रैली में भाग लेते हुए कहा था, ‘मेरे साथ बलात्कार हुआ और इसके लिए मुङो नहीं बल्कि जो बलात्कारी है उसे शर्मिंदा होना चाहिए।’ इसी तरह भटेरी की भंवरी बाई का मामला था। भंवरी के साथ 1992 में गांव के ही दबंगों ने बलात्कार किया था, मगर वह इस मामले में मौन नहीं रहीं, उन आरोपियों के खिलाफ मजबूती से खड़ी रहीं और समाज में यौन हिंसा के खिलाफ संघर्ष करती रहीं। उन्होंने सार्वजनिक मंचों से खुल कर कहा, ‘मेरे साथ जो हुआ उसके लिए जो जिम्मेदार हैं वे शर्म करे मैं नहीं।’
ऐसी घटना के बाद समाज का जोर बाद की प्रक्रिया पर रहता है, मगर क्या समाज का फोकस इस बात पर भी नहीं होना चाहिए कि वह इस कदर जनतांत्रिक बने ताकि किसी के साथ जबरन यौन हिंसा की कोई खबर न आए। निश्चित ही यह दूसरा वाला काम पहले वाले काम से अधिक मेहनत एवं धैर्य की मांग करेगा क्योंकि वह सिर्फ सख्त सजा एवं कानून और बलात्कारियों के धिक्कार से परे जाकर नए समाज की भी बात करेगा। उसका काम बहुआयामी, बहुस्तरीय होगा जिसके नतीजे आनन-फानन में नहीं आएंगे। वह हर प्रकार की हिंसा के मनोवृत्ति के और परिस्थितियों के कारण की तलाश करेगा और जड़ से ही उसके निवारण के उपाय भी तलाशेगा। इसका मतलब यह नहीं है कि फौरी वाली जिम्मेदारियों से बचा जाए बल्कि वह तो अनिवार्यत: निभाना होगा।
यह भी नोट किया जाना चाहिए कि यौन प्रताड़ना या यौन हिंसा के मामलों को लेकर पुलिस थानों में भी थोड़ा ही सही लेकिन फर्क आया है कि पीड़ितों के पहुंचने पर केस भी दर्ज होने लगे। हाल में दर्ज मामलों की बढ़ोतरी की एक वजह यह भी बताई जाती है कि पहले केस दर्ज ही नहीं किए जा रहे थे और अब थोड़े दर्ज होने लगे। टालमटोल तो वे अब भी करते हैं, लेकिन अड़ने पर उन्हें शिकायत दर्ज करनी ही पड़ती है।
(लेखिका स्वतंत्र पत्रकार हैं)