लंदन हो या चीन, निवेश उड़ा रहा नींद
बिहार में निवेश लाने के लिए सूबे के सीएम लंदन दौरे पर गए हैं। इससे पहले भी पूर्व मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने भी सूबे में बड़े उद्योगपतियों को बुलाने के लिए कवायद की। पिछले सप्ताह उद्योग मंत्री डॉ भीम सिंह भी चीन की यात्रा से लौटे हैं। निवेशकों को न्योता भी दिया है। लेकिन इन सब के बाद स्थिति का एक स्याह पक्ष भी है। पिछले नौ सालों से सूबा निवेशकों का इंतजार ही कर रहा है।
पटना [एसए शाद]। बिहार में निवेश लाने के लिए सूबे के सीएम लंदन दौरे पर गए हैं। इससे पहले भी पूर्व मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने भी सूबे में बड़े उद्योगपतियों को बुलाने के लिए कवायद की। पिछले सप्ताह उद्योग मंत्री डॉ भीम सिंह भी चीन की यात्रा से लौटे हैं। निवेशकों को न्योता भी दिया है। लेकिन इन सब के बाद स्थिति का एक स्याह पक्ष भी है। पिछले नौ सालों से सूबा निवेशकों का इंतजार ही कर रहा है।
कई ग्लोबल मीट, प्रवासी भारतीयों के सम्मेलन में भागीदारी, मेट्रो शहरों में रोड-शो, बिहार फाउंडेशन की स्थापना से लेकर पूर्व सांसद एनके सिंह के उद्योग घरानों से संबंधों पर यकीन के बावजूद हाल यह है कि पिछले नौ सालों में सूबे में नाम मात्र ही निजी निवेश हो सका है। डा. भीम सिंह की मानें तो फिलहाल 6600 करोड़ रुपये का निवेश हुआ है। आंकड़ा अपडेट किया जाए तो शायद यह 8,000 करोड़ रुपये के करीब आएगा। वैसे देखा जाए तो 2006 से लेकर अबतक 3.40 लाख करोड़ के प्रस्ताव आ चुके हैं। आदित्य बिडला, रतन टाटा, आनंद महेंद्रा जैसी कई बड़ी हस्तियों ने बिहार आकर तत्कालीन मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से मुलाकात तो की, लेकिन अपने निवेश के वादे को अमली जामा नहीं पहनाया।
निवेश के लिए तो यूरोपियन यूनियन, नार्डिक देश [डेनमार्क, फिनलैंड, आइसलैंड, नार्वे एवं स्वीडन], सिंगापुर, मलेशिया, इंडोनेशिया आदि के प्रतिनिधिमंडल भी आकर अपनी दिलचस्पी दिखा गए। इनके अलावा कई बड़े देशों के राजदूत भी बिहार पहुंचे। लेकिन बात निवेश के वादों से आगे नहीं बढ़ी।
इसके कारणों को अगर ग्लोबल परिदृश्य में देखा जाए तो मौजूदा समय में निवेशक कहीं भी निवेश करने से झिझकते नहीं। केवल उन्हें बेहतर माहौल और चुस्त व्यवस्था चाहिए। चीन के उद्यमियों ने डा. भीम सिंह के समक्ष इसका खुलकर इजहार भी कर दिया। बोल दिया कि अगर जमीन देंगे और आपकी सिंगल विंडो व्यवस्था कारगर होगी तो अवश्य निवेश करेंगे। इन दोनों ही मोर्चो पर राज्य सरकार की पिछले नौ सालों में हुई कार्रवाई महज कागजी ही रही है। लैंड बैंक नहीं बन पाए हैं। सिंगल विंडों के बावजूद निवेशकों को दो दर्जन से अधिक दरवाजे खटखटाने पड़ते हैं।
बीच-बीच में ब्रिटेनिया, पारले-जी या हीरो साइकिल्स जैसी कंपनियां भले ही कुछ उम्मीद जरूर जगा देती हैं। एवन साइकिल्स ने भी दिलचस्पी दिखाई है। इन्हें उदाहरण के रूप में पेश कर सरकार निजी निवेश के प्रति अपना उत्साह दर्शाती रहती है। तंत्र की कमजोरी हो या कोई अन्य कारण, कुछ निवेशक तो अब लौटने भी लगे हैं। इन्फोसिस ने बिहटा में अपना इन्क्यूबेशन सेंटर नहीं खोला। नेस्ले ने भी हाथ खींच लिए हैं। अब सवाल लंदन या चीन यात्रा का नहीं, बल्कि निवेश का रह गया है। और यह सवाल सरकार की नींद उड़ाए है।