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बर्थडे स्पेशल: हिंदी सिनेमा में स्वर्ण युग के शिल्पकार थे गुरुदत्त

नई दिल्ली। ये दुनिया जहाँ आदमी कुछ नहीं है, वफा कुछ नहीं, दोस्ती कुछ नहीं है जहाँ प्यार की कद्र ही कुछ नहीं है, ये दुनिया अगर मिल भी जाये तो क्या है? भारतीय सिनेमा के स्वर्ण युग की जब भी चर्चा होगी बार-बार गुरुदत्त का नाम लिया जाएगा। एक कलाकार के अंदर जो कुछ भी होना चाहिए उनके अंदर सबकुछ था। गुरुदत्त का वास्तविक नाम वसंत क

By Edited By: Published: Tue, 09 Jul 2013 01:12 PM (IST)Updated: Tue, 09 Jul 2013 06:14 PM (IST)
बर्थडे स्पेशल: हिंदी सिनेमा में स्वर्ण युग के शिल्पकार थे गुरुदत्त

नई दिल्ली। ये दुनिया जहाँ आदमी कुछ नहीं है, वफा कुछ नहीं, दोस्ती कुछ नहीं है जहाँ प्यार की कद्र ही कुछ नहीं है, ये दुनिया अगर मिल भी जाये तो क्या है? भारतीय सिनेमा के स्वर्ण युग की जब भी चर्चा होगी बार-बार गुरुदत्त का नाम लिया जाएगा। एक कलाकार के अंदर जो कुछ भी होना चाहिए उनके अंदर सबकुछ था। गुरुदत्त का वास्तविक नाम वसंत कुमार शिवशंकर पादुकोण था।

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कर्नाटक के बैंगलोर शहर में 9 जुलाई 1925 को पैदा हुए गुरुदत्त भारतीय सिनेमा को कुछ यादगार फिल्में दी हैं, जिनके बिना भारतीय सिनेमा के इतिहास की कल्पना भी नहीं की जा सकती हैं। उनके फिल्मों में 'प्यासा' , 'कागज के फूल', 'साहब, बीवी और गुलाम', 'चौदहवीं का चांद' आदि मशहूर फिल्में शामिल हैं।

गुरुदत्त के पारिवारिक पृष्ठभूमि की बात करें तो तो उनके पिता जी एक स्कूल में प्रधानाध्यापक थे। बाद में उनकी नौकरी एक बैंक में हो गई। वहीं उनकी मां एक साधारण गृहिणी थी। जब गुरुदत्त का जन्म हुआ था उस वक्त उनकी मां की उम्र महज 16 साल थी।

बसंथ कुमार शिवशंकर पादुकोण से गुरुदत्त बनने के पीछे की राज शायद बहुत कम लोग जानते है। गुरु दत्त ने अपने बचपन के प्रारंभिक दिन कोलकाता में गुजारे। बंगाल की संस्कृति से उनका बहुत गहरा लगाव था। इस संस्कृति की इतनी गहरी छाप उनपर पड़ी कि उन्होंने अपने बचपन का नाम वसन्त कुमार शिवशंकर पादुकोणे से बदलकर गुरु दत्त रख लिया।

गुरुदत्त खुद ऊंचे दर्जे के अभिनेता, निर्देशक और फिल्म निर्माता थे। लेकिन शायद यह बात बहुत कम लोग जानते हैं कि गुरुदत्त बहुत उच्चकोटि के नर्तक थे और जब वह महज 21 साल के थे, उन्होंने प्रभात स्टूडियो की सन 1946 में बनी फिल्म हम एक हैं का नृत्य निर्देशन किया था। इस फिल्म में दुर्गा खोटे कमला कोटनिस, अलका अचरेकर, रिहाना और रंजीत कुमारी जैसी सशक्त अभिनेत्रियां काम कर रही थीं। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि गुरुदत्त कितने ऊंचे दर्जे के नृत्य निर्देशक रहे होंगे, जो उस जमाने की एक से बढ़ कर एक नृत्य कुशल अभिनेत्रियों को अपने इशारों पर नचाया था। गुरुदत्त की जब भी चर्चा होती है तो बिना कुछ कहे-सुने, सोचे-समझे आंखों के सामने फिल्म प्यासा घूम जाती है। फिल्म प्यासा न सिर्फ उनकी कालजयी फिल्म है बल्कि भारतीय सिनेमा के साथ-साथ विश्व सिनेमा की भी कालजयी फिल्मों में से एक मानी जाती है।

सन् 2010 में अमेरिका की टाइम पत्रिका ने सर्वकालिक सौ महान फिल्मों का चयन किया जिसमें भारत की एकमात्र फिल्म जो रखी गयी, वह प्यासा थी। यह एक गहन शोध व सर्वेक्षण के बाद जारी की गयी सूची थी। यह शोध व सर्वेक्षण साइट एंड साउंड क्रिटिक्स और डायरेक्टर्स पोल के तहत किया गया था। गुरुदत्त की कामयाबी की चर्चा और उनके अभिनय का जौहर सिर्फ हिन्दुस्तान में ही नहीं याद किया जाता बल्कि हॉलीवुड में भी उन दिनों जब गरुदत्त सक्रिय थे। उन्हें भारत का आर्शन वेल्स कहा जाता था। सन् 2010 में सीएनएन ने एशियाई अभिनेताओं की जो एक सूची बनायी है, उस सूची में गुरुदत्त एशिया के 25 मुख्य अभिनेताओं में से एक माने गए हैं।

सारस्वत ब्राह्मणों के परिवार में पैदा हुए गुरुदत्त की आरंभिक शिक्षा-दीक्षा कलकत्ता में हुई थी। यही वजह थी कि उनमें जितना कर्नाटकी हलचल थी, उससे कहीं ज्यादा बंगाली संवेदना से वह भरपूर थे। 1942 में 10वीं पास करने के बाद गुरुदत्त ने पढ़ाई छोड़ दी। दरअसल उनके पिता बहुत संयमी और संतोषी जीव थे। जबकि गुरुदत्त बहुत कम उम्र में ही कुछ कर गुजरना चाहते थे। पिता को पुत्र की यह बेचैनी अच्छी नहीं लगती थी और पुत्र को पिता की निश्चिंतता नहीं सुहाती थी। इसलिए मात्र 17 साल की आयु में गुरुदत्त कलकत्ता छोड़ कर सुदूर उत्तर भारत में अल्मोड़ा चले गए थे। जबकि दोनों जगहों के वातावरण में जमीन आसमान का फर्क था। अल्मोड़ा में उदय शंकर ने अपना नृत्य प्रशिक्षण देने का एक नृत्यग्राम स्थापित किया था उदय शंकर के इस नृत्यग्राम की उन दिनों बहुत तारीफ हुआ करती थी। क्योंकि इसमें पंडित रविशंकर, संगीतकार विष्णुदास शिराली, उस्ताद अलाउद्दीन खां, जोहरा सहगल, उजरा भट्ट तथा अमला जैसी पूरी दुनिया में मशहूर नर्तकी नृत्य का प्रशिक्षण देती थी। गुरुदत्त 1942 से 1944 तक उदय शंकर के नृत्यग्राम में रहे और फिर यहां से 19 साल की उम्र में पूना चले गए, जहां उन्होंने सबसे पहली बार जिस फिल्म में काम किया, उसका नाम लाखारानी। इस फिल्म में गुरुदत्त सहायक निर्देशक थे। लेकिन आगे कई फिल्मों में उन्होंने छोटे-मोटे रोल भी किये। 1946 में पीएल संतोषी द्वारा लिखी तथा उन्हीं के द्वारा निर्देशित फिल्म में उन्होंने नृत्य निर्देशन किया। इसी समय गुरुदत्त का परिचय देवानंद से हुआ और दोनों एक दूसरे के गहरे दोस्त बन गए।

गुरुदत्त अपने अभिनय और कुशल निर्देशन के लिए तो जाने ही जाते हैं जिस एक और चीज के लिए उनकी बेहद तारीफ होती है, वह है संगीत में उनकी समझ। गुरुदत्त की फिल्मों में काम करने वाले एक्स्ट्रा कलाकारों के हिस्से में भी एक से बढ़ कर एक कालजयी गीत आए हैं। फिल्म प्यासा अपने गीतों के चलते ही कालजयी फिल्म थी जिसमें आजादी के बाद पहली बार साहिल लुधियानवी ने भारत की लोकतांत्रिक सरकार को चुनौती देते हुए या यूं कहें पंडित जवाहरलाल नेहरू को ललकारते हुए पूछा था जिन्हें नाज है हिन्द पर वो कहां हैं। गुरुदत्त सन् 1947 में बम्बई आए थे। 1949 में वह अमिय चक्रवर्ती द्वारा निर्देशित फिल्म गर्ल्स स्कूल में तथा 1950 में बम्बई टाकीज द्वारा निर्मित तथा ज्ञान मुखर्जी द्वारा निर्देशित फिल्म संग्राम में मुख्य सहायक निर्देशक रहे।

26 वर्ष की आयु में गुरुदत्त ने अपनी पहली फिल्म बाजी का निर्देशन किया। बाजी की कहानी बलराज सहानी और गुरुदत्त ने मिल कर लिखी थी तथा पटकथा और संवाद पूरी तरह से बलराज साहनी के ही थे। बाजी देवानंद की फिल्म निर्माण कम्पनी नवकेतन की भी पहली फिल्म थी। बाजी की अपार सफलता के बाद गुरुदत्त ने देवानंद को लेकर एक और फिल्म का निर्देशन किया जाल। यह भी सुपरहिट रही। गुरुदत्त ने बतौर अभिनेता जो फिल्में की उनमें चांद, प्यासा, 12 ओ क्लॉक, कागज के फूल, चौदहवीं का चांद, सौतेला भाई, साहब बीवी और गुलाम, भरोसा, बहूरानी, सुहागन और सांझ ओर सवेरा थीं। उन्होंने अभिनय से ज्यादा निर्देशन में कमाल किया और यह भी कह सकते हैं कि अपने ही निर्देशन में उन्होंने कमाल का अभिनय किया। गुरुदत्त के निर्देशन में बनी प्रमुख फिल्में बाजी, जाल, बाज, आरपार, मिस्टर एवं मिसेज 55, सैलाब, प्यासा और कागज के फूल थी। गुरुदत्त एक उम्दा निर्माता भी थे। उन्होंने सन् 1955 में पहली बार आरपार, 1956 में सीआईडी, 1957 में प्यासा, 1959 में कागज के फूल, 1960 में चौदहवीं का चांद, 1962 में साहब बीवी और गुलाम जैसी फिल्में बनायीं। उनकी एक फिल्म अधूरी ही रह गयी थी जिसे वह 1957 में गौरी शीर्षक से बना रहे थे।

अगर गुरुदत्त ने इतनी सारी फिल्में न भी की होतीं तो उनकी सिर्फ दो फिल्में ही उन्हें भारतीय सिनेमा में अजर अमर का खिताब दे सकती थीं। उनमें से एक है प्यासा और दूसरी कागज के फूल। दोनों में गुरुदत्त ने न सिर्फ कमाल का निर्देशन किया है बल्कि अद्भुत अभिनय भी किया है।

दरअसल, जिन दिनों गुरुदत्त फि़ल्मों में अपनी जमीन तलाश रहे थे, उन्हीं दिनों गीता राय नाम की एक नई गायिका पार्श्व गायिका बनने की कोशिश में व्यस्त थीं। थोड़े ही दिनों में गुरुदत्त कई निर्देशकों के सहायक बने, तो उधर फि़ल्म 'भक्त प्रह्लाद' में गीता राय को भजन गाने का अवसर मिला। सन् 1948 में प्रदर्शित फि़ल्म 'दो भाई' में गाये गीत मेरा सुंदर सपना बीत गया. ने गीता राय को पूरे देश में चर्चित कर दिया। दरअसल, यही वह गीत था, जिसने गुरुदत्त के दिल के तारों को झंकृत कर दिया। बाज़ी की शूटिंग के दौरान से ही गुरुदत्त और गीता राय एक-दूसरे के निकट आए। जहां एक ओर गुरु गीता की आवाज़ के दीवाने हो गए थे, वहीं दूसरी ओर गीता भी गुरु के प्रभावशाली व्यक्तित्व पर मुग्ध थीं। दरअसल, दोनों अंतर्मुखी प्रवृति के थे। कम बोलने वाले, गंभीर, लेकिन आंखों ही आंखों में बहुत कुछ कह जाने वाले। एक दिन जब रिहर्सल और रिकॉर्डिग से फुर्सत मिली, तो गुरुदत्त ने गीता को शादी के लिए प्रस्ताव रख दिया। गीता गुरुदत्त को चाहने लगी थीं, लेकिन बिना माता-पिता की मर्जी के वे शादी नहीं कर सकती थीं। बाज़ी अभी रिलीज नहीं हुई थी। गीता ने कहा, परिवार वालों से कहना होगा। फिऱ बाद में गीता राय के माता पिता की राजी से दोनों का विवाह सन 1953 में हुआ।

लेकिन इसके बाद गुरुदत्त को शराब की लत ने जकड़ लिया। शराब की लत से लंबे समय तक जूझने के बाद 10 अक्तूबर, 1964 में उन्होंने आत्महत्या कर ली और इस प्रकार एक प्रतिभाशाली जीवन का असमय अंत हो गया।

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