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पहले भी 'निगाहों' में 'अंकित' होती रही तस्वीर

भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष डॉ. लक्ष्मीकांत वाजपेयी ने मुरादाबाद के एसएसपी धर्मवीर को नागिन की तरह निगाहों में बसाकर बदला लेने की चेतावनी दी तो सूबे का सियासी पारा चढ़ गया। सियासी मर्यादा को लेकर एक बहस चल पड़ी है, लेकिन इससे इन्कार नहीं किया जा सकता है कि पहले भी राजनीतिक दल अफसरों की तस्वीर निगाहों में अंकित क

By Edited By: Published: Mon, 14 Jul 2014 11:53 AM (IST)Updated: Mon, 14 Jul 2014 11:54 AM (IST)
पहले भी 'निगाहों'  में 'अंकित' होती रही तस्वीर

लखनऊ [आनन्द राय]। भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष डॉ. लक्ष्मीकांत वाजपेयी ने मुरादाबाद के एसएसपी धर्मवीर को नागिन की तरह निगाहों में बसाकर बदला लेने की चेतावनी दी तो सूबे का सियासी पारा चढ़ गया। सियासी मर्यादा को लेकर एक बहस चल पड़ी है, लेकिन इससे इन्कार नहीं किया जा सकता है कि पहले भी राजनीतिक दल अफसरों की तस्वीर निगाहों में अंकित कर कार्रवाई करते रहे हैं।

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हकीकत है कि सत्ता का चेहरा बदलते ही अफसरों की भूमिका बदलने लगती है। बसपा सरकार में लखनऊ पुलिस की कमान डीआइजी धु्रवकांत ठाकुर के हाथ में थी। एक दिन सपाइयों के आंदोलन में लोहिया वाहिनी के अध्यक्ष आनन्द सिंह भदौरिया को डीआइजी ने बूटों तले रौंदा।

बसपा सरकार में ही एक तपे हुए एएसपी बीपी अशोक ने सपा के प्रदेश अध्यक्ष अखिलेश यादव और राष्ट्रीय महासचिव शिवपाल सिंह यादव से खराब व्यवहार किया। सपा सरकार बनने के बाद दोनों अफसरों को मीरजापुर के रिक्रूटमेंट टेनिंग सेंटर चुनार में भेज दिया गया। डीके ठाकुर तो आइजी होने पर भी वहीं हैं।

बसपा के जमाने का ही उदाहरण है। आइपीएस अफसर विजय सिंह तत्कालीन मुख्यमंत्री मायावती के सचिव थे। आरोप है कि अपने प्रभाव के दिनों में उन्होंने चुन-चुन कर यादव पुलिस अफसरों को किनारे लगाया था। सपा की सरकार बनी तो उन्हें डीआइजी स्तर के गोरखपुर के पुलिस ट्रेनिंग कालेज में भेज दिया। डीजी बनने के बाद भी विजय सिंह वहीं दिन गिन रहे हैं। पुलिस भर्ती की जांच करने वाले डीजी सुलखान सिंह को भी उन्नाव के डीआइजी स्तर के एक प्रशिक्षण केंद्र में रखा गया है।

एक सेवानिवृत्त डीजीपी कहते हैं कि नेताओं को तो जनता सबक सिखा देती है, लेकिन अफसर मारे जाते हैं। उन्हें कानून के दायरे में ही रहना चाहिए। हालांकि सच है कि मलाईदार पदों के लिए या सत्ता का करीबी बनने के लिए अफसर भी कोई कोर कसर नहीं छोड़ते। आपातकाल के दौर में पुलिस और प्रशासनिक अफसरों ने नेताओं के साथ खूब अभद्रता की। 1975 से 77 तक अफसरों ने परिवार नियोजन और नेताओं की गिरफ्तारी बदले की भावना से की।

1977 में जनता पार्टी की सरकार बनी तो फिर ऐसे लोगों को सबक सिखाया गया। सबसे साइलेंट वार कांग्रेस की सरकार करती रही। इसके भी किस्से तो कई हैं, लेकिन आजमगढ़ में एसएसपी रहते हुए सीबी सत्पथी ने अधिवक्ताओं की जबर्दस्त पिटाई, कुछ कांग्रेस कार्यकर्ताओं के साथ दु‌र्व्यवहार किया। फिर इसके बाद उन्हें गोरखपुर स्थानांतरित कर दिया गया। सत्ता की मर्जी के बगैर न चले तो वह लगातार हाशिए पर ही रहे। उन पर लिखा पढ़ी में कोई कार्रवाई नहीं हुई, लेकिन पुलिस अफसर उनका उदाहरण जरूर देते हैं।

क्या था मुरादाबाद का घटनाक्रम :

सोलह जून को मुरादाबाद के कांठ क्षेत्र के नया गांव में एक मंदिर से लाउडस्पीकर उतारे जाने के बाद बढ़े विवाद ने भाजपा और प्रशासन को आमने-सामने कर दिया। भाजपाई बेहद उग्र हुए तो पुलिस ने भी उन पर जमकर कार्रवाई की। वाजपेयी ने कार्यकर्ताओं के साथ बर्बर उत्पीड़न पर ही चेतावनी दी है।

पढ़ें : लाउडस्पीकर लगवाकर ही दम लेगी भाजपा : स्वतंत्रदेव सिंह


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