जानिए, RLV-TD का सफल परीक्षण भारत के लिए क्यों हैं खास ?
इसरो अपनी कामयाबी का लोहा पहले ही मनवा चुका है। स्पेस शटल के सफल परीक्षण के बाद भारत अब अमेरिका की कतार में खड़ा हो चुका है।
श्रीहरिकोटा (जेएनएन)। सतीश धवन स्पेस सेंटर से आज सुबह स्वदेश निर्मित स्पेस शटल का सफल परीक्षण किया गया। इस परीक्षण के बाद भारत दुनिया के उन देशों की कतार में शामिल हो गया है। जिन्हें स्पेस शटल की लॉन्चिंग में महारत हासिल है। आइए जानने की कोशिश करते हैं कि आरएलवी-टीडी की लॉन्चिंग से भारत को किस तरह से फायदा होने वाला है।
क्या है RLV-TD ?
RLV-TD अमेरिकन स्पेस शटल की तरह ही है। RLV-TD के जिस मॉडल का परीक्षण किया गया है वो इसके अंतिम रूप से 6 गुना छोटा है। इस स्पेस शटल के फाइनल वर्जन बनाने में 10 से 15 साल लगेंगे। स्पेस शटल को रियूजेबल लॉन्च व्हीकल-टेक्नोलॉजी डिमॉन्स्ट्रेटर (RLV-TD) से लॉन्च हुआ। ये व्हीकल स्पेस शटल को ऑर्बिट में छोड़कर एक एयरक्राफ्ट की तरह वापस आने लायक बनाया गया है। इसे दोबारा से इस्तेमाल किया जा सकेगा।
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स्पेस मिशन की कॉस्ट 10 गुना कम हो जाएगी
इसरो के इंजीनियर्स का मानना है कि सैटेलाइट्स को ऑर्बिट में स्थापित करने की लागत कम करने के लिए रियूजेबल रॉकेट काफी कारगर साबित हो सकता है। साइंटिस्ट्स की मानें तो रियूजेबल टेक्नोलॉजी के यूज से स्पेस में भेजे जाने वाले पेलोड की कीमत 2000 डॉलर/किलो (1.32 लाख/किलो) तक कम हो जाएगी। व्हीकल के एडवान्स्ड वर्जन को स्पेस के मैन्ड मिशन में यूज किया जा सकेगा।
एलीट क्लब में शामिल हुआ भारत
अभी ऐसे रियूजेबल स्पेस शटल बनाने वालों के क्लब में अमेरिका, रूस, फ्रांस और जापान ही हैं। चीन ने कोशिश तक नहीं की है। रूस ने 1989 में ऐसा ही स्पेस शटल बनाया। इसने सिर्फ एक बार ही उड़ान भरी। अमेरिका ने पहला आरएलवी टीडी शटल 135 बार उड़ाया। 2011 में यह खराब हो गया। फाइनल वर्जन बनाने में 10 से 15 साल लगेंगे। एसयूवी जैसा दिखने वाला यह स्पेस शटल अपने ओरिजिनल फॉर्मेट से छह गुना छोटा है। टेस्ट के बाद इसको पूरी तरह से तैयार करने में 10 से 15 साल लग जाएंगे।
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70 किमी ऊपर गया शटल
RLV-TD की ये हाइपरसोनिक टेस्ट फ्लाइट रही। शटल की लॉन्चिंग रॉकेट की तरह वर्टिकल रही। इसकी स्पीड 5 मैक (साउंड से 5 गुना ज्यादा) थी। साउंड से ज्यादा स्पीड होने पर उसे मैक कहा जाता है। शटल को स्पेस में 70 किमी ऊपर ले जाया जाएगा। शटल को स्थापित कर व्हीकल 180 डिग्री मुड़कर वापस आ जाएगा।
15 साल पहले सोचा था, 5 साल पहले शुरू हुआ काम
स्पेस शटल के लिए 15 साल पहले सोचा गया था। लेकिन सही मायने में काम 5 साल पहले ही शुरू हुआ। 6.5 मीटर लंबे प्लेन की तरह दिखने वाले स्पेसक्राफ्ट का वजन 1.75 टन है। इसे एटमॉस्फियर में स्पेशल रॉकेट बूस्टर की मदद से भेजा गया। सॉलिड फ्यूल वाला स्पेशल बूस्टर फर्स्ट स्टेज रही। ये RLV-TD को 70 किमी तक ले गई। इसके बाद RLV-TD बंगाल की खाड़ी में नेविगेट करा लिया गया। स्पेस शटल और RLV-TD पर शिप्स, सैटेलाइट और राडार से नजर रखी गई। चूंकि इसकी स्पीड साउंड की स्पीड से 5 गुना ज्यादा थी, इसलिए लैंडिंग के लिए 5 किमी से लंबा रनवे जरूरी था। लिहाजा, इसे जमीन पर नहीं उतारने का फैसला लिया गया।
बंगाल की खाड़ी में लैंडिंग
ये पहली बार हुआ कि शटल को लॉन्च करने के बाद व्हीकल बंगाल की खाड़ी में बने वर्चुअल रनवे पर लौटाने का फैसला किया गया। समंदर के तट से इस रनवे को करीब 500 किमी दूर बनाया गया। साइंटिस्ट्स का कहना है कि RLV-TD को पानी पर तैरने के लिहाज से डिजाइन नहीं किया गया। विक्रम साराभाई स्पेस सेंटर के डायरेक्टर के. सीवान के मुताबिक, 'आने वाले 10 साल में हम पूरी तरह रियूजेबल लॉन्चिंग व्हीकल तैयार कर लेंगे। ये एयरक्राफ्ट की तरह लैंड करेगा और दोबारा यूज किया जा सकेगा। इससे पहले सीवान ने कहा था, 'हनुमान की लंबी छलांग की दिशा में हमारा ये पहला छोटा कदम है।'
सिवन का क्या है कहना ?
45 किमी की ऊंचाई पर पहुंचने पर बूस्टर अलग हो जाएंगे और व्हीकल 70 किमी तक शटल को जाएगा। फिलहाल ये टेस्टिंग है। पहली फ्लाइट का वजन 1.7 टन है और इसके बनने में करीब 6 साल लगे। ये ऑपरेशनल रिजूयेबल लॉन्च व्हीकल से 5 गुना छोटा है।
कलामयान हो सकता स्पेस शटल का नाम...
बताया जा रहा है कि स्पेस शटल का वजन स्पोर्ट्स यूटिलिटी व्हीकल (एसयूवी) जितना होगा। हालांकि कई देश रियूजेबल लॉन्च व्हीकल के आइडिया को खारिज कर चुके हैं। वैज्ञानिकों का कहना है कि अगर सब कुछ ठीक रहा तो स्पेस शटल का नाम 'कलामयान' रखा जाएगा।