..तो आंदोलन पहले ही खत्म कर देते जेपी
1975 का पहला छह महीना गंभीर राजनीतिक गतिविधियों का गवाह रहा है। जेपी आंदोलन अपने चरम की ओर था। संसद में सभी विपक्षी दल एकजुट हो रहे थे। वैसे प्रत्याशियों को समर्थन देने की रणनीति बन रही थी, जिनमें कांग्रेस को हराने का माद्दा नजर आ रहा था, लेकिन 1975
पटना [एसए शाद]। 1975 का पहला छह महीना गंभीर राजनीतिक गतिविधियों का गवाह रहा है। जेपी आंदोलन अपने चरम की ओर था। संसद में सभी विपक्षी दल एकजुट हो रहे थे। वैसे प्रत्याशियों को समर्थन देने की रणनीति बन रही थी, जिनमें कांग्रेस को हराने का माद्दा नजर आ रहा था, लेकिन 1975 शुरू होते ही बिहार में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के करीबी माने जाने वाले ललित नारायण मिश्र की बम विस्फोट में मौत हो गई। वह रेल मंत्री थे।
राजनीतिक पंडितों का मानना है कि यदि मिश्र की असामयिक मौत नहीं होती तो बिहार की राजनीति कुछ और ही रूप लिए होती। तब शायद जेपी भी अपना आंदोलन पहले ही समाप्त कर दिए होते। ललित नारायण मिश्र के बड़े पुत्र विजय कुमार मिश्र का कहना है, 'जेपी अपना आंदोलन वापस ले लेते। 30 जनवरी तक बहुत कुछ बदल जाता, लेकिन 3 जनवरी को ही ललित बाबू की मौत हो गई।' राजनीतिक पंडितों का मानना है कि मिश्र इंदिरा गांधी के करीबी होने के साथ उनकी कैबिनेट में शायद अकेले व्यक्ति थे, जो राजनीतिक फैसलों को लेकर इंदिरा गांधी को टोक भी देते थे। यदि वह जीवित रहते तो उन्हें इमरजेंसी लगाने से रोक सकते थे।
हत्याकांड को बताया था विदेशी साजिश का हिस्सा
तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने ललित नारायण मिश्र हत्याकांड को विदेशी साजिश का हिस्सा बताया था, लेकिन उन तत्वों के नाम सार्वजनिक नहीं हुए। मिश्र की मृत्यु के साथ एक गुत्थी जुड़ गई। कहा जाता है कि उनकी हत्या के लिए किए गए विस्फोट में प्रयुक्त हुआ बम सेना का था। यानी कि उनकी मौत राजनीतिक साजिश थी। अपनी आत्मकथा 'बियांड द लाइंस' में वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप नैयर लिखते हैं कि समस्तीपुर जाने से पहले की आधी रात को तत्कालीन रेल मंत्री ललित नारायण मिश्र ने मुझे फोन किया। उन्होंने बताया कि वह प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से मिलकर इस्तीफा देना चाहते हैं। इसके साथ ही दुखी मन से कहा कि उन्हें समस्तीपुर में मारे जाने की आशंका है। उनकी आशंका सच साबित हुई।