जानिए, राष्ट्रपति पद के लिए कोविंद का समर्थन नीतीश की मजबूरी या रणनीति
नीतीश कुमार ने रामनाथ कोविंद पर जो कदम उठाया है उसे सभी अलग-अलग तरीके से आकलन कर रहे हैं।
नई दिल्ली, [स्पेशल डेस्क]। विपक्षी दलों ने भले ही गुरूवार की शाम को कांग्रेस नेता और पूर्व लोकसभा स्पीकर मीरा कुमार का नाम राष्ट्रपति उम्मीदवार के तौर पर आगे बढ़ाया हो, लेकिन महागठबंधन और विपक्षी खेमे से अलग जाकर जेडीयू ने एक दिन पहले यानि 21 जून (बुधवार) को ही पार्टी नेताओं की बैठक के बाद रामनाथ कोविंद के नाम पर समर्थन देने का एलान किया। जेडीयू की इस घोषणा के बाद जहां एक तरफ महागठबंधन के लोगों ने चुप्पी साध ली तो वहीं दूसरी तरफ इसे विपक्षी खेमे की एकजुटता को भी बड़ा झटका माना जा रहा है। ऐसे में सवाल यह उठता है कि रामनाथ कोविंद पर नीतीश ने ऐसा कदम आखिर क्यों उठाया?
महादलित को खुश रखने की रणनीति
नीतीश कुमार ने रामनाथ कोविंद पर जो कदम उठाया है उसका सभी अलग-अलग तरीके से आकलन कर रहे हैं। मीरा कुमार का नाम तो विपक्षी खेमे की तरफ से बाद में बढ़ाया गया लेकिन उससे पहले एनडीए दलित समुदाय से ताल्लुक रखनेवाले रामनाथ कोविंद का नाम आगे बढ़ा दिया था। ऐसे में जेडीयू के कई नेता मानते हैं कि बिहार में ज्यादातर इस समुदाय के लोग महादलित की श्रेणी में आते हैं जो कोविंद के समुदाय के साथ अपने आपको जोड़ते हैं। दो साल पहले पार्टी महादलित वर्ग के कटने का जोखिम झेल चुकी है, जब फरवरी 2015 में बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी से जबरदस्ती इस्तीफा दिलाया गया था। लोकसभा चुनाव 2014 में पार्टी को मिली करारी शिकस्त के बाद नीतीश कुमार ने इस्तीफा दिया था। उसके बाद मुसहर समुदाय से आनेवाले जीतन राम मांझी को बिहार का मुख्यमंत्री बनाया गया। लेकिन मांझी की तरफ से लिए गए एक के बाद एक फैसलों ने जेडीयू नेतृत्व को निराश किया। जब नीतीश ने इसका विरोध किया तो वो सबसे बड़े दुश्मन बन गए।
मांझी ने नीतीश पर लगाया था दलित दुर्व्यवहार का आरोप
उसके बाद अक्टूबर 2015 में हुए बिहार विधानसभा चुनाव से ठीक पहले मांझी 'हिन्दुस्तान अवाम मोर्चा' नाम की पार्टी बनाकर एनडीए खेमे में आ गए। उसके बाद मांझी ने लगातार नीतीश पर महादलितों के साथ दुर्व्यवहार का आरोप लगाया। हालांकि, इसका कोई खास फर्क नहीं पड़ा और जेडीयू, आरजेडी व कांग्रेस का महागठबंधन विधानसभा चुनाव जीत गया।
क्या नीतीश ने कोविंद को महादलित समुदाय के चलते दिया समर्थन
ऐसा कहा जा रहा है कि राष्ट्रपति उम्मीदवार के तौर पर रामनाथ कोविंद का नाम एनडीए की तरफ से बढ़ाए जाने के बाद जेडीयू के लिए उनका विरोध आसान नहीं था, क्योंकि जेडीयू अपने आपको एक बार फिर से महादलित उम्मीदवार के विरोध के तौर पर अपने आपको नहीं दिखाना चाहती थी।
नीतीश के फैसले से मुश्किल में विपक्ष
राष्ट्रपति उम्मीदवार पर नीतीश कुमार का फैसला विपक्षी दलों के लिए इस मायने में अप्रत्याशित रहा क्योंकि नीतीश ने शुरुआत में विपक्षी दलों की तरफ से एक सर्वसम्मति के आधार पर राष्ट्रपति उम्मीदवार उतारने की पहली की थी। उन्होंने इससे पहले कुछ विपक्षी नेताओं से बात भी की थी और 20 अप्रैल को कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी से भी मुलाकात की थी। लेकिन, कोविंद के नाम की राष्ट्रपति पद के लिए घोषणा होती, उससे पहले ही नीतीश कुमार ने विपक्षी दलों ने अपनी दूरियां बना ली थीं। 26 मई को सोनिया गांधी की अध्यक्षता में राष्ट्रपति चुनाव को लेकर चर्चा के लिए बुलाए गए लंच पर बैठक में शामिल नहीं हुए। जबकि, उसके अगले ही दिन प्रधानमंत्री की तरफ से दिए गए लंच में शामिल हुए।
क्या चाहते हैं नीतीश कुमार
दरअसल, राष्ट्रपति उम्मीदवार के तौर पर कोविंद के नाम का समर्थन और पिछले कुछ महीने से लगातार महागठबंधन से अलग जाकर फैसला लेने के बाद अब नीतीश की मंशा पर सवाल उठाए जाने लगे हैं। नीतीश ने सर्जिकल स्ट्राइक, नोटबंदी का समर्थन किया, जिनका महागठबंन में शामिल अन्य दलों ने कड़ा विरोध किया और सर्जिकल स्ट्राइक के सबूत मांगे थे। इस बारे में Jagran.com से ख़ास बातचीत में वरिष्ठ पत्रकार आलोक मेहता ने बताया कि नीतीश कुमार की सियासी चाल को भांपना किसी के लिए इतना आसान नहीं होगा। उनका कहना है कि नीतीश शुरू से ही इस तरह की राजनीति करते रहे हैं।
'क्या नीतीश की विचारधारा खत्म हो गई'
आलोक मेहता बताते हैं, नीतीश ने कहा था कि लालू से कभी उनकी मित्रता नहीं होगी। इसके साथ ही, जयप्रकाश आंदोलन में कांग्रेस के खिलाफ ये बड़े नेता बने। लेकिन, बाद में नीतीश ने कांग्रेस के समर्थन से सरकार बनाई। उन्होंने कहा कि इन बातों को देखते हुए ऐसा लगता नहीं है कि आज राजनीति में कोई विचारधारा रह गई है।
क्या यह क्षेत्रीय दलों की मजबूरी है
वरिष्ठ पत्रकार आलोक मेहता का मानना है कि जो नीतीश कुमार कर रहे हैं दरअसल कहीं ना कहीं ये क्षेत्रीय दलों को अपने वजूद को बनाए रखने की एक बड़ी मजबूरी भी है। हालांकि, उनका यह मानना है कि नीतीश कुमार ने कोविंद को सिर्फ जाति देखते हुए समर्थन का एलान किया ऐसा नहीं लगता है, बल्कि इसके पीछे उनकी सियासी मंशा छिपी हुई है। इसके बहाने एक तरफ जहां नीतीश कुमार भाजपा में अपना रास्ता खोले रखना चाहते हैं तो वहीं दूसरी तरफ विपक्षी दलों की तरफ से अगले चुनाव को लेकर नेतृत्व के सबसे मजबूत दावेदार के रूप में पेश होना चाहते हैं।
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