शायद ही कोई दिन जाता है जब वहां की जमीन खून से लाल नहीं होती
अयूब को ख़ुफिया एजेंसियों का एजेंट बताते हुए भीड़ उन पर टूट गई और तब तक पीटती रही जब तक कि उनकी मौत नहीं हो गई।
पीयूष द्विवेदी
धरती की जन्नत कहा जाने वाला इन दिनों उन्माद और आतंक का पर्याय बनता जा रहा है। देश के इस राज्य में अलग-अलग रूपों में हिंसा का तांडव मचा हुआ है। शायद ही कोई दिन जाता है जब वहां की जमीन खून से लाल नहीं होती हो। हालिया मामला राज्य के श्रीनगर स्थित जामिया मस्जिद का है जहां नमाज अदा करके निकली उन्मादी भीड़ ने मस्जिद के बाहर सुरक्षा इंतजामों के लिए मौजूद डीएसपी अयूब पंडित की निर्ममतापूर्वक पीट-पीटकर हत्या कर दी। उन पर भीड़ के इस हमले के संबंध में कई तरह की बातें सामने आ रही हैं। बताया जा रहा कि नमाज अदा करके बाहर निकल रही भीड़ में मौजूद तमाम लोगों द्वारा की जा रही पाकिस्तान समर्थित नारेबाजी की वह रिकॉर्डिग कर रहे थे। बस इसी कारण अयूब को ख़ुफिया एजेंसियों का एजेंट बताते हुए भीड़ उन पर टूट गई और तब तक पीटती रही जब तक कि उनकी मौत नहीं हो गई।
हालांकि अयूब ने अपनी पिस्टल से हवाई फायरिंग करते हुए वहां से निकलने की कोशिश की, लेकिन उस भीड़ के आगे उनकी यह कवायद कामयाब नहीं हो सकी। बहरहाल अब चाहे वह भीड़ के उन्माद का शिकार बने हों या सुनियोजित ढंग से उत्प्रेरित भीड़ के आक्रमण का, मगर यह सच्चाई है कि अपने कर्तव्य का निर्वहन करते हुए अयूब पंडित को अपनी जान देनी पड़ी है। यहां कई सवाल उठते हैं। वह भीड़ किस मानसिकता वाले लोगों की थी जो इतने हिंसातुर थे कि कथित तौर पर अयूब का मोबाइल से रिकॉर्डिग करना तक बर्दाश्त नहीं कर सके और इतने उत्तेजित हो गए कि उनकी जान लेकर माने। गौर करें तो हाल के दिनों में में भीड़ द्वारा इस तरह की हिंसक गतिविधियों को अंजाम देने का एक चलन ही चल पड़ा है। कहीं पत्थरबाजों के रूप में लोग सेना पर हमला कर उसके आतंकरोधी अभियान में रुकावट पैदा करने और जवानों को क्षति पहुंचाने की कोशिश कर रहे हैं तो कहीं अयूब पंडित की तरह अकेले पाने पर किसी सुरक्षाबलों के जवान की निर्मम हत्या कर देते हैं।
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कुछ ही लोगों की इस मानसिकता के लिए पाकिस्तान की उत्प्रेरणा से लेकर अलगाववादियों द्वारा उनके मन में भरी गई भारत के प्रति नफरत जैसे कई कारणों की चर्चा संसद से लेकर नुक्कड़ तक होती रहती है। सवाल यह उठता है कि यदि समस्या का भान है तो इसका कोई ठोस समाधान क्यों नहीं किया जा रहा? सरकार हाथ पर हाथ धरे क्यों बैठी है? हालांकि एक हद तक सच्चाई यह भी है कि में सेना द्वारा संचालित अभियान समाधान की कोशिश के तहत ही है। आंकड़े बताते हैं कि हाल के दो-तीन महीनों में ही युवाओं ने अलगाववादियों की अपील को दरकिनार कर सेना व पुलिस में भर्ती होने के प्रति अपेक्षाकृत अधिक उत्साह दिखाया है। इसी दौरान राज्य में पत्थरबाजी और सुरक्षाबलों के प्रति भीड़ के हिंसात्मक प्रतिरोध में भी इजाफा हुआ है।
दरअसल इन दोनों विपरीत स्थितियों से बहुत चकित होने की आवश्यकता नहीं है, बल्कि इनके जरिये के जनमानस को समझने की आवश्यकता है। सीधा संकेत यह है कि की आबादी का एक बड़ा वर्ग विकास की मुख्यधारा में शामिल होना चाहता है और धीरे-धीरे भारत के निकट आ रहा है। वहीं एक वर्ग ऐसा भी है जो पाक-प्रेरित अलगाववादियों के झांसे का शिकार होकर सुरक्षाबलों से लड़ रहा है। इसलिए की इस स्थिति को लेकर किसी प्रकार के सरलीकरण से बचते हुए इन दोनों से आवश्यकतानुसार अलग-अलग ढंग से निपटने की आवश्यकता है। सरकार और में तैनात सुरक्षाबल कमोबेश इसी ढंग से निपट भी रहे हैं।
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हमारे जवान जहां हमला करने वालों को उन्हीं की भाषा में जवाब दे रहे हैं तो आम ही लोगों की सुरक्षा भी सुनिश्चित कर रहे हैं। इसके अलावा राज्य में कोई आपदा आने पर तो वे बिना किसी भेदभाव के जी-जान से शियों की मदद को उतर पड़ते हैं। बचाव कार्यो में जुट जाते हैं। कुल मिलाकर कहने का तात्पर्य बस इतना है कि हमारे जवान मामले को जितने बेहतर ढंग से संभाले हुए हैं उससे बेहतर ढंग से इस अशांत और सीमावर्ती राज्य को वर्तमान परिस्थितियों में शायद ही कोई संभाल सकता है। इसके बावजूद यह जो उत्पात राज्य में मचा हुआ है उसे एक हद तक निर्माण से पूर्व होने वाले नाश के रूप में देखा जा सकता है।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)