हार का भी अपना ही महत्व होता है फिर भले ही राष्ट्रपति चुनाव हो
अब भले ही सत्ता और विपक्ष दोनों आमसहमति न बनने के लिए एक दूजे को कोस रहे हैं पर समझने की बात है कि अगर यह ‘विचारधारा की लड़ाई’ है।
कृष्ण प्रताप सिंह
सत्रह विपक्षी दलों की ओर से राजग के रामनाथ कोविंद के खिलाफ मीरा कुमार को राष्ट्रपति पद का अपना साझा प्रत्याशी बनाए जाने से पक्का हो गया कि देश का अगला राष्ट्रपति भी मतदान के मार्फत चुना जाएगा और 1977 में इस पद पर आरूढ़ हुए नीलम संजीव रेड्डी आमसहमति से निर्वाचित होने वाले अब तक के इकलौते राष्ट्रपति बने रहेंगे। अब भले ही सत्ता और विपक्ष दोनों आमसहमति न बनने के लिए एक दूजे को कोस रहे हैं पर समझने की बात है कि अगर यह ‘विचारधारा की लड़ाई’ है, जिसे लड़ा ही जाना था, जैसा कि मीरा कुमार को आगे करते हुए विपक्ष ने कहा है, तो आमसहमति की उम्मीद ही कैसे की जा सकती थी?
राजग दावा कर रहा है कि कोविंद के रूप में उसके कारण विपक्ष भी दलित प्रत्याशी चुनने को मजबूर हुआ, वही विपक्ष के लिए हार-जीत से अलग अपने एक होने का संदेश देना भी मुश्किल हो रहा है। जिन जदयू सुप्रीमो और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के बारे में कहा जाता है कि में विपक्ष की एकता को लेकर सबसे ज्यादा प्रयत्नशील वही थे, वे निष्ठा बदलकर कोविंद के साथ जा चुके हैं। ऐसे में भले ही विपक्ष इसे प्रतीकात्मक लड़ाई का नाम दे, यह उसकी हारी हुई लड़ाई ज्यादा लगती है। अलबत्ता, राजनीति में हारी हुई लड़ाइयों का भी कम महत्व नहीं होता और वहां पहले से नतीजे तय करके चलने वालों के लिए ज्यादा संभावनाएं नहीं होतीं।
जहां तक संभावनाओं का सवाल है, लगता है इस बार में सबसे ज्यादा संभावनाएं बिहार के क्षत्रपों के नाम लिख गई है। यकीनन, अब नीतीश के लिए अपने समर्थन के उस फैसले का बचाव करना मुश्किल हो जाएगा, जो उन्होंने कोविंद के राजग प्रत्याशी बनाए जाने के फौरन बाद ‘अपने राज्यपाल’ के ‘सम्मान’ से अभिभूत होकर किया। उनके फैसले के पीछे और जो भी कारण रहे हों, अपने महागठबंधन के घटक लालू के राजद को खास संदेश देना और उस पर बढ़त बनाना भी एक बड़ा कारण था। 2015 में जिन कोविंद को बिहार का राज्यपाल बनाने पर नीतीश को उनका दलित होना याद नहीं आया था और उन्होंने यह कहकर एतराज जताया था कि उनकी नियुक्ति से पहले बिहार सरकार से कोई परामर्श नहीं किया गया, उन्होंने अचानक निष्पक्ष राज्यपाल के रूप में बिहार की सेवा करने के लिए उनकी मुक्त कंठ से प्रशंसा शुरू कर दी तो उनका उद्देश्य अपने समर्थकों को यह संदेश देना था कि वे राजद या लालू जैसे दलितद्रोही नहीं हैं और न ही बिहारियों के सम्मान को लेकर इतने लापरवाह कि उनके राज्यपाल के राष्ट्रपति बनने का अवसर हो तो उसे यों ही हाथ से चले जाने दें।
आखिरकार बिहारियों के ही तर्क पर वे सोनिया गांधी का भोज का न्यौता ठुकराकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा मॉरीशस के प्रधानमंत्री के सम्मान में दिए गए भोज में शामिल होने चले गए थे और कई लोग कहते हैं कि उसी में दोनों में कोविंद की उम्मीदवारी पर गुपचुप सहमति हुई थी। मगर अब, कम से कम नीतीश के लिए, बाजी पलट गई है और चुनाव उत्तर प्रदेश में पैदा हुए बिहार के दलित राज्यपाल और बिहार की दलित बेटी के बीच हो गया है। आखिरकार मीरा कुमार पूर्व लोकसभा अध्यक्ष होने के साथ बिहार में अपने वक्त में बाबू जी के नाम से प्रसिद्ध कांग्रेस के दिग्गज दलित नेता जगजीवन राम की बेटी हैं, जो 1977 में गठित मोरार जी देसाई की जनता पार्टी सरकार में उपप्रधानमंत्री थे।
सरकार गिरने के बाद हुए मध्यावधि चुनाव में जनता पार्टी ने उन्हें प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी घोषित किया था, लेकिन उसकी हार के साथ ही उनके प्रधानमंत्री न बन पाने की कसक बाकी रह गई थी। अब उनकी बेटी राष्ट्रपति का चुनाव लड़ रही है तो नीतीश को इस सवाल का जवाब तो देना ही पड़ेगा कि क्या उसे भी इस कसक के साथ विदा होना चाहिए कि बिहार के मतदाताओं ने ही उसे वोट नहीं दिया? अकारण नहीं कि उनके प्रतिद्वंद्वी लालू उत्साह के साथ उनसे ऐतिहासिक भूल न करने की अपील कर रहे हैं। मीरा कुमार की उम्मीदवारी ने कोविंद के समर्थन के नीतीश के फैसले के तर्क भी खत्म कर दिए हैं और चमक भी।1हां, एक तर्क अब भी उनके पास है, लेकिन चूंकि उन्हें धान भी कूटना और कांख भी ढकना है यानी राजग में जाना नहीं और राजग के प्रत्याशी का साथ भी देना है, सो वे उसे देंगे नहीं। यह कि भाजपा जिस तरह देश भर में अपने विस्तार के लिए दलितों व पिछड़ों में पैठ बनाने व बढ़ाने के फेर में है, उसके मद्देनजर वे उसके खेमे में कांग्रेस से ज्यादा ‘ऊंचे आसन’ की उम्मीद कर सकते हैं।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)