राष्ट्रपति चुनाव के लिए सियासी गोलबंदी और विरोध का राग
राष्ट्रपति चुनाव में विपक्ष अपनी कमजोरी दिखाने के बजाय देश में सर्वसम्मति से चलने वाली लोकतांत्रिक परंपरा का हिस्सा बन सकता था।
प्रेम प्रकाश
तमाम राजनीतिक उतार-चढ़ाव के बावजूद दलित भारतीय राजनीति में परस्पर विरोध या समर्थन से ऊपर एक संवेदना का भी नाम है। देश की सत्तर साल की लोकतांत्रिक सफरनामे में कई ऐसे मोड़ या पड़ाव हैं, जहां दलितों के बहाने बड़ी राजनीतिक आम सहमति बनी है। इस बार का ऐसा ही एक एक अवसर है, जिसे राजनीतिक दल अगर चाहें तो एक प्रेरक घटना में बदल सकते हैं। भाजपा अध्यक्ष अमित शाह की घोषणा के बाद यह तय हो गया था कि बिहार के राज्यपाल रामनाथ कोविंद ही देश के अगले राष्ट्रपति होंगे। इस घोषणा के साथ ही यह भी तय हो गया था कि विपक्षी दलों की एकजुटता अब कम से कम के नाम पर उस तरह सुदृढ़ नहीं हो सकेगी, जिसकी इससे पहले उम्मीद जताई जा रही थी।
हुआ भी ऐसा ही, मीरा कुमार को उतारकर विपक्ष ने विरोध का राग भले अपनी तरफ से छेड़ा, पर विरोध का उनका तर्क पहले दिन से किसी के गले नहीं उतरा। विपक्ष अपनी कमजोरी दिखाने के बजाय चाहता तो देश में सर्वसम्मति से चलने वाली लोकतांत्रिक परंपरा का हिस्सा बन सकता था, पर उसने ऐसा नहीं किया जबकि नीतीश कुमार और नवीन पटनायक सरीखे नेताओं और उनके दलों ने इस अवसर को गंवाना मुनासिब नहीं समझा।1बहरहाल, अब जबकि तय है कि दूसरी बार देश राष्ट्रपति दलित समुदाय से चुना जाएगा, इस मौके को राजनीतिक जीत-हार से दूर रखकर भी देखा जा सकता था।
इससे पहले के.आर. नारायण के राष्ट्रपति चुने जाने के मौके पर राजनीतिक दलों के बीच व्यापक सहमति और विवेक को देश देख चुका है। मीरा कुमार और रामनाथ कोविंद को मैदान में एक-दूसरे के सामने आने का एक नुकसान यह भी है कि इस संघर्ष को मीरा तो खैर जीतने से रहीं पर उनके बेदाग कहे जाने वाले सार्वजनिक जीवन के कई दाग जरूर उभरकर सामने आ रहे हैं। 1संप्रग की तरफ से राष्ट्रपति पद के लिए पूर्व लोकसभा अध्यक्ष मीरा कुमार को उम्मीदवार बनाए जाने की घोषणा के बाद से तय हो जाएगा कि भाजपा के खिलाफ गोलबंदी के सियासी तर्क भविष्य में क्या होने वाले हैं और उनके बूते विपक्ष की चुनावी ताकत कितनी बढ़ेगी या घटेगी। विपक्ष का कहना है कि वे धर्मनिरपेक्ष दलों से मीरा कुमार को समर्थन देने की अपील करेगा।
साफ है कि विपक्ष को सांप्रदायिकता बनाम धर्मनिरपेक्षता के मुद्दे पर लड़कर भाजपा के खिलाफ अपना पुराना दांव ही आजमाने जा रहा है। पर यह दांव अब इसलिए कारगर नहीं क्योंकि बीते तीन सालों में देश की राजनीति सीधे-सीधे उत्तरायण से दक्षिणायन हो चुकी है। कहने को राष्ट्रपति उम्मीदवार चुनने के लिए संसद भवन में हुई विपक्ष की हुई बैठक में 17 दलों के नेताओं ने भाग लिया। मगर यह संख्या गिनती में भले ज्यादा लगें, पर अपने लोकतांत्रिक आधार में राजग के मुकाबले काफी पीछे हैं। हां, इस बैठक में और इसके पूर्व कुछ दिलचस्प राजनीतिक संकेत जरूर उभरे हैं। पहला तो यही कि केंद्र में गठबंधन की सरकारों के दौर में जिस तरह वामदल विपक्षी एकता की तार्किक धुरी बन गए थे, वह चाह उनकी तरफ से आज भी है, पर इस बीच वे तेजी से राजनीतिक जमीन हारते गए हैं।
लिहाजा, उनके आगे देश में साख के साथ स्वीकृति का संकट है। सो माकपा महासचिव सीताराम येचुरी चाहकर भी हरकिशन सिंह सुरजीत की तरह वामदलों को विपक्षी एकता के केंद्र नहीं बना सकते। विपक्षी दलों की बैठक में जो एक और बात गौरतलब रही वह यह कि इसमें राकांपा के शरद पवार ने मीरा कुमार के नाम का प्रस्ताव रखा। हालांकि वे अपनी तरफ से दो मराठा दलित नेताओं के नाम लेकर आए थे पर कांग्रेस की मंशा को भांपते हुए वे मीरा कुमार की उम्मीदवारी पर मान गए। गौरतलब है कि शिवसेना महाराष्ट्र में भाजपा के साथ सरकार में भले है, पर उससे उसकी ठीक से बन नहीं रही है। ऐसे में जब-तब भाजपा और राकांपा के बीच नजदीकी की खबरें आती रही हैं।
खुद कई मौकों पर अपने बयानों से शरद पवार ने भी इस नजदीकी को हवाई मानने वालों को सकते में डाला है। उम्मीद थी कि इस नजदीकी के कारण पवार राष्ट्रपित पद के लिए कोविंद की उम्मीदवारी के पक्ष में खड़े होंगे, पर ऐसा नहीं हुआ। संभव है कि पवार इसे अपनी धर्मनिरपेक्ष साख को बरकरार रखने के तौर पर देख रहे हों। 1इसी तरह बिहार में नीतीश कुमार और लालू यादव का महागठबंधन के नाम पर साफ दरकता दिख रहा है। लालू यादव भले कहें कि वे नीतीश को तारीखी भूल करने से रोकेंगे लेकिन जिस उतावले भाव से कोविंद की उम्मीदवारी की घोषणा के महज कुछ घंटे बाद ही बिहार के मुख्यमंत्री उनके लिए कसीदे पढ़ रहे थे, उससे उनका इरादा साफ हो गया था। दिलचस्प है नीतीश दूसरी बार सोनिया गांधी की बुलाई विपक्षी दलों की बैठक में नहीं आए।
इससे पहले की बैठक में उनका दल जरूर बैठक में शामिल हुआ, लेकिन वे इसी समय खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ बैठकर दावत उड़ा रहे थे। इस बार तो विपक्षी दलों की बैठक से पहले ही जदयू नेताओं की अपने घर पर बैठक बुलाकर नीतीश ने जदयू की तरफ से कोविंद के समर्थन की औपचारिक घोषणा कर दी। साफ है कि जिस महागठबंधन की ताकत ने बिहार में भाजपा के सत्ता में आने के सपने को तोड़ा, आज वही ताकत विरोधाभासों के कारण बिखराव के कगार पर है। दिलचस्प है कि बीते तीन सालों में देश में दलों की पॉलिटिकल पोजिशनिंग के आगे एक तार्किक चुनौती खड़ी हुई है। जनता ने उन्हें जहां एक तरफ अस्वीकार किया है, वहीं नए विचार और कार्यक्रमों को लेकर नई राष्ट्रीय स्वीकृति का रकबा तेजी से बढ़ा है। राजनीतिक विचार, समझ और स्वीकृति का यह फर्क इन सालों में भारत में ही नहीं बल्कि अमेरिका से लेकर यूरोप तक देखा जा रहा है।
दक्षिणपंथी ठहराई जाने वाली एक खास तरह की विचारधारा, जिसे लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में अछूत और खतरनाक माना गया, उसे दुनिया भर में जनता अवसर दे रही है, सरकार के तौर पर उससे जुड़े दलों-नेताओं को आजमाने के पक्ष में है। इसके उलट दशकों तक शासन में रहे दलों और उनकी विचार की लीक आज भी घिसी-पिटी ही है, जबकि उनके आगे चुनौती का मैदान बिल्कुल बदल गया है। बात करें तो मंडल और कमंडल के दौर की राजनीति से लेकर मोदी-योगी के दौर की राजनीति में आए फर्क की तो दशकों तक देश में सत्ता की कुंजी संभालने वाले हाथ आज इसलिए खाली हैं क्योंकि वे देश के बदले मूड को नहीं भांप सके। देश आज हर क्षेत्र में उम्मीदों और उपलब्धियों के आकाश को छू रहा है, वह राजनीति और शासन व्यवस्था के तरीके और मुहावरों में परिवर्तन देखना चाहता है। पुराने सियासी मोहरों और दांवों में अब उसकी कोई दिलचस्पी नहीं।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)