व्यावहारिक नहीं है एक देश एक चुनाव प्रणाली, बढ़ सकती हैं समस्याएं
लोकसभा के साथ ही विधानसभा चुनाव कराए जाने की वकालत करने वालों का तर्क है कि इससे समय, धन और संसाधनों की बचत होगी। साथ ही इससे विकास कार्यो को रफ्तार मिलेगी।
नई दिल्ली [मोहम्मद शहजाद]। राष्ट्रपति के अभिभाषण को अमूमन केंद्र सरकार की गत उपलब्धियों और आगामी योजनाओं का उद्गार माना जाता है। कहना बेजा न होगा कि इससे स्वयं राष्ट्रपति नहीं बल्कि सरकार की मन: स्थिति का बोध होता है। बजट सत्र से पूर्व संसद के संयुक्त सत्र को संबोधित करते हुए राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने लोकसभा और विधानसभा चुनावों को एक साथ कराने पर जोर दिया। एक तरह से इसे भी केंद्र सरकार की मंशा से जोड़कर देखा जाना चाहिए। ऐसा सोचने में कोई हर्ज भी नहीं है क्योंकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपनी इस इच्छा को सार्वजनिक तौर पर व्यक्त कर चुके हैं। राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री समेत आम चुनावों के साथ ही राज्यों के चुनाव कराए जाने की वकालत करने वालों का तर्क है कि इससे समय, धन और संसाधनों की बचत होगी।इसके साथ ही इससे विकास कार्यो को गति मिलेगी क्योंकि बार-बार होने वाले चुनावों से विकास की गति बाधित होती है। कारण आचार संहिता से इसमें होने वाली रुकावट और अधिकारियों की बड़ी संख्या में चुनाव में संलग्न होना है। सुनने में यह बहुत व्यवहारिक और उचित लगता है, लेकिन क्या भारत जैसे संघीय और संवैधानिक ढांचे वाले मुल्क में ऐसा संभव है? शायद नहीं! क्योंकि एक साथ चुनाव कराकर जिन हितों को साधने की कोशिश की जा रही है, उनके अत्याधिक जटिल होने की संभावनाएं ज्यादा हैं।
खड़ी हो जाएंगी समस्याएं
अगर समय, धन और संसाधनों की बचत के उद्देश्य से ही ये प्रस्ताव रखा जा रहा है तो फिर इसके पीछे ये भी दलील दी जा सकती है कि हर पांच वर्ष में ही चुनाव क्यों कराए जाएं? उनकी समयावधि बढ़ाकर छह-सात वर्ष क्यों न कर दी जाए। इससे समय और धन की बचत तो हो जाएगी, लेकिन कई और समस्याएं खड़ी हो जाएंगी। मसलन अगर इनमें जीत दर्ज करने वाली कोई सियासी पार्टी अच्छा काम नहीं कर रही है और जन अपेक्षाओं पर खरी नहीं उतर रही है तो उसे फिर लोगों को पांच से अधिक वर्षो तक बर्दाश्त करने के लिए विवश होना पड़ेगा। हमारे देश में वैसे ही इसकी संभावनाएं प्रबल हैं क्योंकि चुनावी वादे करके भूलना हमारे नेताओं की आदत में शुमार है। जब उन्हें पांच से अधिक वर्षो तक सत्ता में बने रहने का अवसर मिल जाएगा तो वे जनता और अपने क्षेत्र की तरफ से और भी लापरवाह हो जाएंगे। ऐसे में चुनाव सुधारों की दिशा में अक्सर उठने वाली ये मांग भी बेमानी हो जाएगी कि मतदाताओं को अक्षम जनप्रतिनिधियों को वापस बुलाने का अधिकार प्राप्त होना चाहिए।
अनुकूल नहीं राजनीतिक परिस्थितियां
फिर बात केवल इतनी भर नहीं है। असल में विविधता वाले हमारे देश में राजनीतिक परिस्थितियां इसके अनुकूल नहीं हैं। बहु-दलीय राजनीतिक व्यवस्था वाले हमारे देश में जनता के चुनावी मुद्दे एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र, एक राज्य से दूसरे राज्य और फिर राज्य से राष्ट्रीय स्तर तक अलग-अलग हैं। मुद्दों के साथ-साथ उनकी चुनावी प्राथमिकताएं अलग-अलग हैं। किसी राज्य में लोग अपने यहां के क्षेत्रीय दलों को पसंद करते हैं तो किसी राज्य के राष्ट्रीय दलों को तरजीह देते हैं। भू-सामाजिक और राजनैतिक वैविधता से लोगों के सामने बहुत से विकल्प खुले होते हैं और जन-मानस अपनी आवश्यकताओं के अनुसार ही अलग-अलग प्रशासनिक स्तर पर दलों का चयन करते हैं। ऐसे में एक साथ चुनाव कराने से क्षेत्रीय दलों को काफी नुकसान होगा और उनकी संभावनाएं क्षीण होती जाएंगी क्योंकि बदली हुई निर्वाचन प्रणाली में राष्ट्रीय मुद्दों और जनभावनाओं का प्रभुत्व होगा। इससे राष्ट्रीय दलों को बेजा फायदा पहुंचेगा।
गठबंधन सरकारों का एक लंबा दौर
हमारे देश में वैसे ही गठबंधन सरकारों का एक लंबा दौर रहा है और वर्तमान में भी केंद्र समेत कई राज्यों में इसका बोलबाला है। कई बार किसी दल को स्पष्ट बहुमत नहीं मिलने और फिर आपस में गठबंधन की सहमति नहीं बन पाने से त्रिशंकु जैसे हालात पैदा हो जाते हैं। एक साथ चुनाव कराने की स्थिति में अगर केंद्र में किसी दल या गठबंधन की सरकार बन जाती है और किसी राज्य में त्रिशंकु परिस्थितियां उत्पन्न हो गईं, ऐसे में हालात बड़े विचित्र हो जाएंगे। फिर यही बात केंद्र के लिए भी लागू होती है। ऐसी परिस्थितियों में क्या त्रिशंकु लोकसभा या विधानसभाओं को अगले पांच वर्षो तक फिर से एक साथ चुनाव होने की प्रतीक्षा करनी पड़ेगी या फिर से फौरन चुनाव करवा कर समय, धन और संसाधनों की बर्बादी की जाएगी? हम सभी जानते हैं कि बार-बार चुनाव होने से राजनीतिक दलों के प्रति जनता की जवाबदेही तय होती है और उन्हें इस बात का डर रहता है कि ठीक ढंग से काम नहीं करने पर अवाम अगले ही चुनाव में बदला ले लेगी।
अपने-अपने अधिकार प्रदत्त
भारतीय संविधान में लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं के अपने-अपने अधिकार प्रदत्त हैं। इनके अनुसार ही ये कार्य करती हैं और जनहित वाली योजनाओं का सृजन करती हैं। इसके अतिरिक्त शासन का तीसरा स्तर भी है जो स्थानीय निकायों के जरिए चलता है। इसका मकसद स्थानीय स्तर पर योजनाओं को सुचारू रूप से क्रियान्वित करना है। लोकसभा और विधानसभाओं के एक साथ चुनाव करवाने से स्थानीय निकायों में भी इसका प्रयोग किए जाने की मांग उठने लगेगी। सबसे बड़ी दिक्कत तो संसद के उच्च सदन राज्यसभा के सामने पेश आएगी जिसके सदस्यों का कार्यकाल 6 साल का होता है और इसमें से हर दो वर्ष पर एक-तिहाई सदस्यों का कार्यकाल समाप्त होता है।
एक साथ चुनाव अव्यवहारिक
इन तथ्यों का मूल्यांकन करने पर स्पष्ट हो जाता है कि एक साथ चुनाव न केवल अव्यवहारिक हैं बल्कि असंवैधानिक और अलोकतांत्रिक भी है। इसके बजाय निर्वाचन प्रणाली में सुधारों पर अत्याधिक ध्यान केंद्रित करना चाहिए। आचार संहिता में सुधार किए जा सकते हैं। जहां तक समय, धन और संसाधनों की बचत का तर्क है तो फिर इसे हिमाचल प्रदेश विधानसभा चुनाव के बाद गुजरात विधानसभा चुनाव में लंबा अंतराल रखते हुए क्यों नहीं सोचा गया? इस लक्ष्य को चुनाव प्रक्रिया की समयावधि घटा कर भी हासिल किया जा सकता है। मिसाल के तौर पर उत्तर प्रदेश के गत विधानसभा चुनावों को सात चरणों तक खींचना भी अप्रासंगिक लगता है। अर्धसैनिक बलों की उचित संख्या मुहैया कराकर इन्हें महज चंद दिनों में भी निपटाया जा सकता है।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)
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