बेरोजगारी सिर्फ आपकी चिंता नहीं, सबसे ज्यादा परेशानी तो इनकी है
देश में विभिन्न आर्थिक संकटों के बीच जिस एक बात को लेकर मोदी सरकार के लिए आगे अपनी छवि और प्रदर्शन को बचाने में मुश्किल हो सकती है...
प्रेम प्रकाश। विकास को ब्रांड की तरह पेश करने की कुशलता दिखाने वाली मोदी सरकार क्या वाकई आर्थिक मोर्चे पर घिर गई है। वैसे इस सवाल पर अभी देश की राय एकतरफा नहीं है, पर जो संकट सरकार और भाजपा के लिए बढ़ा है, वह यह कि इस मुद्दे पर उसे घेरने का मुद्दा विरोधियों के हाथ जरूर लग गया है। इस मुद्दे को लेकर विपक्ष राजनीति की आंच कितनी तेज कर पाएगा, वह पहले हिमाचल प्रदेश और फिर गुजरात विधानसभा चुनाव में नजर आ सकता है। रही बात मुद्दे की तो कुछ आर्थिक चुनौतियों ने तो निश्चित तौर पर मोदी सरकार की मुश्किल बढ़ा दी है। यह बड़ी बात इसलिए भी है, क्योंकि उम्मीद और विकास के जोर पर ही भाजपा ने 2014 में केंद्र में सरकार बनाई थी। जिस एक बात को लेकर आगे मोदी सरकार के लिए अपनी छवि बचाने में मुश्किल हो सकती है, वह नए रोजगार पैदा करने के मोर्चे पर सरकारी प्रयासों का निष्प्रभावी होना है। 2014 के चुनाव प्रचार में भाजपा ने देश के युवाओं के लिए हर साल 2 करोड़ रोजगार पैदा करने का वादा किया था, लेकिन इस मोर्चे पर आज सरकार सबसे ज्यादा घिरती हुई दिख रही है।
दिलचस्प है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 1200 करोड़ रुपये के बड़े बजट के साथ ‘प्रधानमंत्री कौशल विकास योजना’ की शुरुआत की थी। योजना का लक्ष्य देश में कुशल कामगारों की गिनती बढ़ाना और बेरोजगारी के बोझ को कम करना था, पर यह योजना अपने मकसद में कहीं से भी कामयाब होती नहीं दिख रही है। जुलाई 2017 के पहले हफ्ते तक के आंकड़ों के अनुसार इस योजना के तहत जिन 30.67 लाख लोगों को कौशल प्रशिक्षण दिया गया था, उनमें से 2.9 लाख लोगों को ही नौकरी के प्रस्ताव मिले। साफ है कि इस योजना के तहत प्रशिक्षित हुए लोगों में से महज 10 प्रतिशत से भी कम को नौकरी हासिल हो सकी। इस असफलता के पीछे एक वजह यह रही कि कौशल विकास प्रशिक्षण की गुणवत्ता बाजार की जरूरत पर खरी नहीं उतर रही है।
30 हजार में से 450 युवाओं को प्रतिदिन रोजगार
गौरतलब है कि नरेंद्र मोदी सरकार ने अपने कार्यकाल के शुरुआत में ही कौशल विकास और उद्यमिता मंत्रालय का गठन किया था। हालांकि सरकार की तरफ से यह तर्क शुरू से दिया गया कि उनका मकसद लोगों को रोजगार मुहैया कराना नहीं, बल्कि रोजगार के लायक बनाना है। अब जबकि देश में बढ़ी बेरोजगारी को लेकर कई तरफ से आवाजें उठने लगी हैं तो सरकार ने भी अपने भीतर कुछ बदलाव के साथ इस मंत्रालय के प्रदर्शन को सुधारने की कोशिश की है। बेरोजगारी के मुद्दे पर सरकार की नाकामी का आलम यह है कि कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने जब अपने अमेरिकी दौरे के आखिरी दिन न्यूयॉर्क के टाइम्स स्क्वायर में भारतीय समुदाय के लोगों को संबोधित किया तो सरकार को घेरने के लिए उन्होंने दो टूक कहा, ‘भारत में 30 हजार युवा हर दिन रोजगार बाजार में आते हैं, मगर उनमें से सिर्फ 450 को ही रोजगार मिल पाता है। यही आज भारत के लिए सबसे बड़ा चैलेंज है।’
इस बीच अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (आइएलओ) पहले ही इस बात की चेतावनी जारी कर चुका है कि 2017 और 2018 के बीच भारत में बेरोजगारी की स्थिति पहले की तरह बनी रहेगी। रोजगार सृजन के क्षेत्र में बाधा आने के संकेत के बारे में भी आइएलओ पहले ही आगाह कर चुका है। इस साल के शुरू में आइएलओ की जारी रिपोर्ट में कहा गया है, ‘आशंका है कि पिछले साल के 1.77 करोड़ बेरोजगारों की तुलना में 2017 में भारत में बेरोजगारों की संख्या 1.78 करोड़ और उसके अगले साल 1.8 करोड़ हो सकती है। प्रतिशत के संदर्भ में 2017-18 में बेरोजगारी दर 3.4 प्रतिशत बनी रहेगी।’
2009-10 में थी बेरोजगारी दर सबसे ज्यादा
देश में युवाओं को रोजगार के नए अवसरों से लाभ पहुंचाने को लेकर 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा की तरफ से काफी उम्मीदें जगाई गई थीं। दुनिया के सबसे युवा देश के युवा वोटरों ने इस उम्मीद पर भरोसा भी दिखाया, पर यह भरोसा अब कहीं न कहीं लड़खड़ाता नजर आ रहा है। श्रम ब्यूरो की रिपोर्ट के अनुसार देश की बेरोजगारी दर 2015-16 में पांच प्रतिशत पर पहुंच गई जो पांच साल का उच्च स्तर है। अखिल भारतीय स्तर पर पांचवें सालाना रोजगार-बेरोजगारी सर्वे के अनुसार करीब 77 प्रतिशत परिवारों के पास कोई नियमित आय या वेतनभोगी व्यक्ति नहीं है। श्रम ब्यूरो के अनुसार 2013-14 में बेरोजगारी दर 4.9 प्रतिशत, 2012-13 में 4.7 प्रतिशत, 2011-12 में 3.8 प्रतिशत तथा 2009-10 में 9.3 प्रतिशत रही।
2014-15 के लिए इस प्रकार की रिपोर्ट जारी नहीं की गई थी। सरकार का मानना है कि उसने श्रम कानूनों में सुधार करने के लिए काफी काम किए हैं और अब आगे कारोबार जगत की जिम्मेदारी है। लेकिन जैसा कि आंकड़े बताते हैं यह वास्तव में नहीं हो रहा है, क्योंकि भारत का उद्योग जगत श्रम आधारित की जगह पूंजी आधारित इंडस्ट्री को तरजीह देता है। ऐसे में बड़ी दरकार इस बात की है कि जब तक सरकार विकास और रोजगार सृजन की अपनी पहल को पूरी तरह समावेशी और विकेंद्रित मॉडल में नहीं बदल देती तब तक हम रोजगार के आधार को स्थाई तौर पर बड़ा नहीं कर पाएंगे।
जीडीपी के आंकड़े भी फिलहाल सरकार के पक्ष में नहीं
बेरोजगारी से आगे पूरे आर्थिक परिप्रेक्ष्य की बात करें तो सेंसेक्स भले अपनी तीस हजारी चढ़ाई से उतरने का नाम नहीं ले रहा, पर आर्थिक विकास की नैया ने इस बीच खूब हिचकोले खाए हैं। वित्त वर्ष की पहली तिमाही में जीडीपी में सीधे 2.2 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गई। पिछले साल इस तिमाही के 7.9 के मुकाबले जीडीपी घटकर 5.7 फीसद रह गई। सरकार के सामने यह बड़ा सवाल है कि कैसे सकारात्मक आर्थिक आंकड़ों के साथ आगे बढ़े, क्योंकि 2019 में आम चुनाव होने हैं और डेढ़ वर्ष से भी कम का समय सरकार के पास है। जीडीपी की वृद्धि दर लगातार छठी तिमाही में घटी है। आर्थिक समीक्षा-दो में यह अनुमान जताया गया है कि चालू वित्त वर्ष में 7.5 प्रतिशत की आर्थिक वृद्धि दर हासिल करना संभव नहीं होगा। इसके साथ ही औद्योगिक वृद्धि दर भी 5 साल में सबसे नीचे आ गया है। देश के सबसे बड़े कर सुधार कानून जीएसटी को और व्यावहारिक बनाने में भले सरकार लगी हुई है, पर इसमें भी अभी काफी सुधार की दरकार है।
(लेखक डेवलपमेंट ऑप्शंस फॉर सोशल ट्रांसफॉरमेशन के संस्थापक सदस्य हैं)