झारखंड के इस गांव में तैयार होती हैं 'चक दे इंडिया' कहने वाली खिलाड़ी
लगभग छह दर्जन घरों वाले गांव हेसल से निकलकर निक्की प्रधान पिछले साल ब्राजील ओलंपिक में खेलकर आसपास के गांवों की बच्चियों के लिए आदर्श बन चुकी हैं।
नई दिल्ली, [स्पेशल डेस्क]। फिल्म 'चक दे इंडिया' तो आपने देखी ही होगी। भारतीय राष्ट्रीय महिला टीम और कोच कबीर खान की कहानी बताती है यह फिल्म। फिल्म के एक सीन में टीम की एक खिलाड़ी बलबीर कौर झारखंड की खिलाड़ी का मजाक उड़ाती है। जब खिलाड़ी बताती हैं कि वो झारखंड से हैं तो बलबीर कहती है, 'अच्छा झाड़ियां होती होंगी वहां।' जवाब मिलता है, 'जंगल! जंगल है वहां।' फिर बलबीर कहती है, 'तुम जंगल से आए हो, जंगली होगे वहां के...'
झारखंड की हॉकी खिलाड़ियों ने अपने खेल के दम पर इतना नाम कमाया है कि उन्हें अब इस तरह का अपमान नहीं झेलना पड़ता। भले उनकी हिंदी और अंग्रेजी कमजोर हो सकती है, लेकिन हॉकी के मैदान पर झारखंड की महिला खिलाड़ियों का कोई जवाब नहीं। पिछले साल रियो ओलंपिक में भी झारखंड की खिलाड़ी निक्की प्रधान भारतीय हॉकी टीम का हिस्सा थीं।
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दरअसल राज्य राजधानी रांची से करीब 50 किमी दूर घोर नक्सल प्रभावित खूंटी जिले का नाम आते ही भले ही नक्सलियों की हिंसा और खून खराबा ही याद आता है। लेकिन बहुत कम ही लोग जानते हैं कि नक्सलियों की वजह से पहचान बनाने वाली यह जगह देश का नाम भी रोशन करती है। यहां के मुरहू प्रखंड में हेसा पंचायत का हेसल गांव हॉकी की नई नर्सरी बनने की ओर अग्रसर है। लगभग छह दर्जन घरों वाले गांव हेसल से निकलकर निक्की प्रधान पिछले साल ब्राजील ओलंपिक में खेलकर आसपास के गांवों की बच्चियों के लिए आदर्श बन चुकी हैं।
बता दें कि यहां से सफलता हासिल करनेवाली निक्की पहली लड़की नहीं है। राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कई और लड़कियां इस गांव का नाम रोशन कर चुकी हैं। सभी हॉकी खेलना चाहती हैं। हॉकी के प्रति दीवानगी को इसी से समझा जा सकता है कि गांव की लड़कियों के पैरों में आपको जूते भले ही ना दिखें, हाथों में हॉकी स्टिक जरूर दिखती हैं। स्कूल से छुट्टी के साथ ही सभी अपने हाथों में स्टिक लेकर मैदान में जुट जाती हैं। निरंतर दो से तीन घंटे तक अभ्यास के बाद लड़कियां अपने-अपने घरों को लौट जाती हैं। सफलता धीरे-धीरे इन बच्चियों के पीछे गांव तक पहुंच रही है।
खेल, मनोरंजन का साधन और अब रोजगार
हॉकी यहां की आबादी के लिए सबकुछ है। बच्चियां मैदान में खेलती हैं तो बड़े मनोरंजन के लिए रुकते हैं और इनके बीच से जो जागरुक हैं वो इसमें रोजगार का उपाय भी ढूंढ़ लेते हैं। संसाधनों का घोर अभाव है और सरकारी स्तर पर घनघोर अनदेखी। हालात यह कि कई बच्चियों के पास खेलने के लिए जूते तक नहीं, लेकिन चिंता भी नहीं। मैच से पहले खुद, पड़ोसी छात्रा अथवा प्रशिक्षक की ही मदद से इंतजाम हो जाता है। अक्सर अभ्यास के दौरान बच्चियां नंगे पांव ही दिख जाती हैं।
गांव की ही नीलम मुंडू बगल के स्कूल में नियमित तौर पर छात्राओं को प्रशिक्षण देती हैं। यूनीसेफ प्रायोजित इस प्रशिक्षण कार्यक्रम के लिए नीलम को महीने में 6-8 हजार रुपये मिलते हैं। कई और खिलाड़ी इस इलाके के सरकारी स्कूलों के विद्यार्थियों को प्रशिक्षण देकर अपना जीवनयापन कर रहे हैं। लेकिन, तमाम प्रशिक्षकों में पूर्व हॉकी खिलाड़ी और निक्की प्रधान के गुरु रहे दशरथ महतो का नाम सबसे ऊपर है। अब सेवानिवृत्त हो चुके दशरथ महतो को सबसे अधिक चिंता सता रही उस नर्सरी की जिसका निर्माण उन्होंने अपने खून-पसीने से किया था। जरूरत पड़ने पर पैसे भी लगाए। हॉकी स्टिक वाले मास्टर अब रिटायर हो चुके हैं। उनकी नियुक्ति भले ही सहायक शिक्षक के रूप में हुई हो, पहचान हॉकी स्टिक ही बनी। कहते हैं कि 15 साल पहले हिंदू बिरादरी की बच्चियों को खेलने के लिए तैयार करना बहुत कठिन काम था। इसाई घरों की लड़कियों में जहां स्वच्छंदता दिखती थी, वहीं हिंदुओं की बेटियों को मैदान तक पहुंचाना ही मुश्किल था।
15 साल पहले शुरू हुई उनकी बगिया से देश-विदेश तक का सफर आसान हो गया है। पुष्पा, गुड्डी, अनीमा, निक्की, बसंती, शशि आदि कई युवतियां यहां से निकलकर अंतरराष्ट्रीय फलक पर नाम रोशन कर चुकी हैं। इनमें से निक्की प्रधान ओलंपिक खेलने वाली पहली खिलाड़ी बनी। गांव की कई बच्चियां भारतीय खेल प्राधिकरण (साइ) और रांची में बरियातू स्थित केंद्र में प्रशिक्षण प्राप्त कर रही हैं। निक्की प्रधान की छोटी बहन कांति प्रधान भी इन्हीं में शामिल है। बात सिर्फ एक गांव तक सीमित नहीं रही। बगल के गांव स्थित स्कूल में प्रशिक्षण दे रही नीलम मुंडू ओडिशा से खेल चुकी हैं तो कई लड़कियां छत्तीसगढ़ राज्य का नाम भी रोशन करने में जुटी हैं। यहां से प्रतिभा का पलायन चारों ओर हो रहा है।
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गरीबी, बेरोजगारी, और प्रशासनिक अनदेखी के शिकार इस इलाके में हॉकी बच्चियों के लिए रोजगार का साधन भी बन रहा है। इतवारी मुंडू ने खेल के जरिए सीआरपीएफ में अपनी जगह पक्की कर ली है तो नउरी मुंडू, मुक्ता मुंडू जैसी आधा दर्जन युवतियां विभिन्न स्तरों पर बच्चों को हॉकी का प्रशिक्षण देकर 6 से 10 हजार रुपये तक कमा रही हैं। अच्छी बात यह कि गांव को हॉकी के लिए प्रसिद्ध बनानेवाले सहायक शिक्षक दशरथ महतो अब हिंदी और सामाजिक विज्ञान पढ़ाने से वंचित होकर पूरी तरह से हॉकी के प्रति समर्पित होना चाहते हैं। इसके लिए उन्होंने सरकार के पास डे-बोर्डिंग प्रशिक्षक पद के लिए आवेदन भी किया है। उनकी सहायता करने वाले शिक्षक सुजय कहते हैं कि दशरथ सर की कमी कोई दूर नहीं कर सकता, इसलिए बच्चियां, उनके अभिभावक और गांव के अन्य लोग भी उन्हें छोड़नेवाले नहीं।
- साथ में रांची से आशीष झा