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यहां पत्थर फेंककर एक-दूसरे का खून बहाते हैं और फिर गले मिलते हैं लोग

यहां देवी के भक्त न सिर्फ एक-दूसरे पर पत्थर बरसाते हैं, बल्कि बाद में गले मिलकर एक-दूसरे की कुशलक्षेम भी पूछते हैं।

By Digpal SinghEdited By: Published: Thu, 17 Aug 2017 12:25 PM (IST)Updated: Mon, 21 Aug 2017 04:30 PM (IST)
यहां पत्थर फेंककर एक-दूसरे का खून बहाते हैं और फिर गले मिलते हैं लोग
यहां पत्थर फेंककर एक-दूसरे का खून बहाते हैं और फिर गले मिलते हैं लोग

नई दिल्ली, [स्पेशल डेस्क]। कश्मीर में आतंकवादियों और अलगाववादियों के समर्थक सेना व पुलिस पर पत्थरबाजी करते हैं, तो देशभर में हल्ला मचना स्वभाविक है। सीमा पर चीनी और भारतीय सेना के बीच भी पत्थरबाजी होती है और दोनों तरफ कई जवान घायल हो जाते हैं, तो भी गुस्सा आना जायज है। लेकिन क्या आप जानते हैं कि हमारे देश में एक जगह ऐसी भी है जहां आस्था के चलते पत्थरबाजी का खेल होता है। यहां देवी के भक्त न सिर्फ एक-दूसरे पर पत्थर बरसाते हैं,  बल्कि बाद में गले मिलकर एक-दूसरे की कुशलक्षेम भी पूछते हैं। 

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आस्था का एक रूप यह भी 

उत्तराखंड में चंपावत जिले के देवीधुरा में मां वाराही देवी के मंदिर के प्रांगण में हर साल रक्षाबंधन के अवसर पर श्रावणी पूर्णिमा को 'बग्वाल'  खेली जाती है। बग्वाल के दौरान चार खेमों में बंटे ग्रामीण एक-दूसरे पर फल और फूल की दृष्टि से (फल-फूल समझकर) पत्थरों की बरसात करते हैं। गौर करने वाली बात यह है कि इसमें निशाना बनाकर पत्थर फेंकना बिल्कुल मना है, बल्कि बग्वाली वीर आसमान की तरफ पत्थर फेंककर उसे दूसरे खेमे में पहुंचाते हैं। प्रशासन ने पिछले कुछ सालों के दौरान पत्थर फेंकने को लेकर सख्ती दिखायी है, जिसके बाद अब नाशपाती जैसे फलों का उपयोग ज्यादा होता है। निश्चित तौर पर यह मेला ऐतिहासिक है, लेकिन यह कितना पुराना है इसको लेकर अलग अलग मत हैं। इस बात को लेकर आम सहमति है कि नर बलि की परम्परा के अवशेष के रूप में ही बग्वाल का आयोजन होता है। 

बग्वाल के पीछे यह कहानी है... 

मान्यता है कि पहले मां वाराही देवी को खुश करने के लिए उनके मंदिर में नरबलि दी जाती थी। प्रतिवर्ष एक नरबलि की परंपरा थी और हर परिवार से बारी-बारी एक पुरुष की बलि होती थी। कहा जाता है कि एक वक्त ऐसा भी आया जब एक बुजुर्ग महिला की बारी आयी और उन्हें माता के दरबार में अपने बेटे की बलि देनी थी। उस बुजुर्ग महिला ने माता की अराधना की और उनसे कहा कि आपकी परंपरा को पूरा करने के लिए मैं अपने बेटे की बलि तो दे रही हूं, लेकिन इससे मेरे वंश का समूल नाश हो जाएगा। इसके बाद मां वाराही देवी ने उस बुजुर्ग महिला को आदेश दिया कि वह बग्वाल का आयोजन करवाए और पत्थरों की मार (बग्वाल) से प्रतिवर्ष श्रावणी पूर्णिमा पर एक नरबलि के बराबर खून उन्हें चढ़ाए। इस प्रथा को आज भी बदस्तूर निभाया जाता है। यहां के लोगों का मानना है कि चंद शासन तक यहां श्रावणी पूर्णिमा को प्रतिवर्ष नरबलि दी जाती थी। 

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एक कहानी यह भी... 

इतिहासकार मानते हैं कि महाभारत में पर्वतीय क्षेत्रों में निवास कर रही एक ऐसी जाति का उल्लेख है जो अश्म युद्ध में कौशल रखती थी। मान्यता है कि उस जाति ने पाण्डवों की ओर से महाभारत के युद्ध में भाग लिया था। अगर यह बात सही है तो भी यह परंपरा काफी प्राचीन है। कुछ इतिहासकार इसे आठवीं-नवीं सदी में शुरू हुई परंपरा मानते हैं। इस लिहाज से भी यह परंपरा लगभग हजार साल पुरानी तो है ही। 

न चोट की फिक्र न उम्र की परवाह 

बग्वाल में चार खाम (खेमे) भाग लेते हैं। इनके नाम हैं - लमगड़िया खाम, गहड़वाल खाम, वालिक खाम और चमियाल खाम। इनकी टोलियां ढोल-नगाड़ों के साथ बांस की बनी छंतोली (छतरियों) के साथ अपने गांवों से जोश-खरोश और भारी उत्साह के साथ देवी वाराही के मंदिर प्रांगण (खोलीखाण दूबाचौड़) में पहुंचते हैं। चारों खेमों की टोलियां (लाल, गुलाबी, पीली और सफेद) रंग की पगड़ियां बांधकर यहां पहुंचती हैं। बच्चे, बूढ़े, जवान सभी इसमें बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते हैं। उत्तर की ओर से लमगड़िया, दक्षिण की ओर से चम्याल, पश्चिम की ओर से वालिक और पूर्व की ओर से गहड़वाल मैदान में आते हैं। दोपहर तक चारों खाम देवी के मंदिर के उत्तरी द्वार से प्रवेश करते हुए परिक्रमा करके मंदिर के दक्षिण-पश्चिम द्वार से बाहर निकलते हैं। इसके बाद वे देवी के मंदिर और बाजार के बीच के खुले मैदान में दो दलों में विभक्त होकर अपना स्थान घेरने लगते हैं। 


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यूं शुरू होती है बग्वाल 

रक्षाबंधन के दिन जब मैदान के चारों ओर जनसैलाब उमड़ पड़ता है, तब मंदिर का पुजारी बग्वाल शुरू होने की घोषणा करते हैं। इसके साथ चारों खामों के प्रमुखों की अगुवाई में पत्थरों की वर्षा दोनों ओर से होती है। बग्वाली वीर छन्तोली से खुद की रक्षा करते हुए दूसरे दल पर पत्थर फेंकते हैं। धीरे-धीरे बगवाली वीर एक-दूसरे पर प्रहार करते हुए मैदान के बीच बने ओड़ (सीमा रेखा) तक पहुंचने की कोशिश करते हैं। पुजारी को जब अंत:करण से विश्वास हो जाता है कि एक नरबलि के बराबर खून बह गया होगा, तब वह मैदान में आकर बग्वाल सम्पन्न होने की घोषणा करता है। बग्वाल का समापन शंखनाद से होता है। तब एक दूसरे के प्रति आत्मीयता दर्शित कर बग्वाली वीर धीरे-धीरे खोलीखाण दूबाचौड़ मैदान से बिदा होते हैं। इस दौरान वहां लाइव कॉमेंट्री भी चलती रहती है। इस पूरे आयोजन में कई बग्वाली वीर घायल हो जाते हैं, जिनके लिए प्रशासन पहले से ही एंबुलेंस और फर्स्ट एड की व्यवस्था करके रखता है। 

प्राकृतिक सौंदर्य ऐसा कि मन मोह ले 

देवीधुरा का नैसर्गिक सौन्दर्य भी यहां आने वाले पर्यटकों को मोहित करता है। बग्वाल को देखने के लिए दूर-दूर से सैलानी देवीधुरा पहुंचते हैं। दैनिक जागरण की टीम भी साल 2017 के बग्वाल का हिस्सा बनने के लिए यहां पहुंची। जब हम देवीधुरा पहुंचे तो वहां का मौसम दिल्ली के बिल्कुल उलट था। एक तरफ दिल्ली में लोग पसीना-पसीना हो रहे थे, दूसरी तरफ देवीधुरा में दिन में भी लोग स्वेटर पहनकर चल रहे थे। इस साल बग्वाल का आयोजन सोमवार 7 सितंबर को हुआ। इस दिन सुबह से ही लगातार बारिश हो रही थी। दोपहर करीब 1 बजे तक लगातार बारिश जारी रही। इसके बाद भी बूंदाबादी जारी रही और बग्वाल के दौरान व उसके बाद भी आसमान से बूंदें गिरती रहीं। कुछ-कुछ मिनटों में कोहरा आता और पूरे इलाके को सफेद कर जाता, फिर कुछ ही देर बाद सबकुछ हरा-भरा और साफ नजर आने लगता। प्राकृतिक सुंदरता ऐसी कि यहां से आने को मन ही न करे। 


सरकारी उपेक्षा ने किया निराश 

देवीधुरा में एक बेहतरीन पर्यटन व धार्मिक स्थल बनने के लगभग सभी गुण हैं। लेकिन यहां ठहरने की कोई समुचित व्यवस्था नहीं है। यहां न तो कोई 3 स्टार या 5 स्टार होटल मौजूद है और न ही कुमाऊं मंडल विकास निगम का कोई गेस्ट हाउस। इसके अलावा यहां तक पहुंचने के लिए नजदीकी शहरों हल्द्वानी व टनकपुर से वाहनों की सुविधा भी अच्छी नहीं है। यहां से 38 किमी की दूरी पर वाणासुर का किला मौजूद है। वाणासुर का संबंध महाभारत से है और यह किला ऐसी जगह पर बना है जहां से हिमालय की चोटियों का शानदार दृश्य दिखायी देता है। अबॉट माउंट भी देवीधुरा से सिर्फ 46 किमी दूर है यहां से हिमालय का विहंगम दृश्य देखने को मिलता है। रीठा साहिब भी यहां से सिर्फ 60 किमी दूर है। 

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