ब्रिटिश राज से अरबपति राज, आर्थिक विषमता को खत्म करने की है जरूरत
आर्थिक विषमता को दूर करना न सिर्फ अभाव व गरीबी दूर करने के लिए जरूरी है, बल्कि अर्थव्यवस्था की टिकाऊ प्रगति के लिए भी यह उतना ही आवश्यक है।
विश्व स्तर पर इस बारे में समझ बढ़ रही है कि आर्थिक समानता केवल न्याय की दृष्टि से नहीं अपितु सबकी जरूरतों को टिकाऊ तौर पर पूरा करने के लिए भी जरूरी है। इससे प्रगति का व्यापक आधार तैयार होता है जिससे पर्यावरण की क्षति को न्यूनतम करते हुए सब लोगों की जरूरतें दीर्घकालीन स्तर पर पूरी की जा सकती हैं। इस बढ़ती समझ के बावजूद हमारे देश में आर्थिक विषमता बढ़ती जा रही है।
ब्रिटिश राज से अरबपति राज
भारत में बढ़ती आर्थिक विषमता की ओर जिस अध्ययन ने हाल ही में सबसे अधिक ध्यान आकर्षित करवाया है, वह ‘भारतीय आय विषमता 1922-2014 : ब्रिटिश राज से अरबपति राज’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ है। इसे विख्यात अर्थशास्त्री थॉमस पिकेत्ती और उनके सहयोगी ल्यूकास चैंसल ने लिखा है। वे पेरिस स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स की विश्व विषमता प्रयोगशाला से जुड़े हैं और विश्व स्तर की विषमता पर उनका कार्य पहले ही विख्यात हो चुका है।
इस अध्ययन के अनुसार पिछले तीन दशकों 1982-83 से 2013-14 में भारत की जनसंख्या के ऊपर के एक प्रतिशत लोगों की राष्ट्रीय आय में हिस्सेदारी विश्व के विभिन्न देशों की तुलना में ( जिनके लिए ऐसे आंकड़े उपलब्ध हैं) सबसे तेजी से बढ़ी है। जहां वर्ष 1982-83 में ऊपर के एक प्रतिशत व्यक्तियों की राष्ट्रीय आय में हिस्सेदारी मात्र 6.2 प्रतिशत थी, वहां वर्ष 2013-14 में यह हिस्सेदारी बढ़ कर 21.7 प्रतिशत हो गई। यहां तक कि जब से (वर्ष 1922 से) आंकड़े उपलब्ध हैं, ब्रिटिश औपनिवेशिक राज के दिनों में भी भारत में ऊपर के एक प्रतिशत लोगों की राष्ट्रीय आय में हिस्सेदारी इतनी अधिक कभी नहीं देखी गई। इससे पहले ऊपर के एक प्रतिशत की हिस्सेदारी सबसे अधिक वर्ष 1939-40 में 20.7 प्रतिशत देखी गई थी, जबकि वर्ष 2013-14 में यह 21.7 प्रतिशत पाई गई।1इस अध्ययन में यह भी बताया गया है कि यदि ऊपर के 0.001 प्रतिशत लोगों को देखा जाए तो वर्ष 1980-2014 के दौरान उनकी आय 2726 प्रतिशत बढ़ गई। इसी दौरान ऊपर के 0.01 प्रतिशत लोगों की आय 1834 प्रतिशत बढ़ गई व 0.1 प्रतिशत लोगों की आय 1138 प्रतिशत बढ़ गई। ऊपर के एक प्रतिशत लोगों की आय इस दौरान 750 प्रतिशत बढ़ गई। ऊपर के 10 प्रतिशत लोगों की आय इस दौरान 394 प्रतिशत बढ़ी। दूसरे शब्दों में ऊपर के जितने संकीर्ण हिस्से को देखा जाता है, उनकी आय उतनी ही तेजी से बढ़ती हुई नजर आती है।
भारत में अमीर-गरीब के बीच की खाईं में बढ़ी
अब यदि हम जनसंख्या के नीचे के 50 प्रतिशत हिस्से को देखें तो इस दौरान इस वर्ग की आय में मात्र 89 प्रतिशत की वृद्धि हुई व यदि बीच के 40 प्रतिशत हिस्से को देखें तो इस दौरान (1970-2014) उसकी आय में मात्र 93 प्रतिशत की वृद्धि हुई। इस दौरान देश में जहां सामान्य आय में 187 प्रतिशत वृद्धि हुई वहीं ऊपर के एक प्रतिशत हिस्से की आय में 750 प्रतिशत की वृद्धि हुई। सामान्य आय में वृद्धि व ऊपर के एक प्रतिशत हिस्से की आय में वृद्धि में इतना अंतर बहुत कम देखा गया है। इस तरह भारत आय वृद्धि में सबसे अधिक विषमता वाले देशों की श्रेणी में पहुंच गया है।
पिकेत्ती के अध्ययन का आधार बने आंकड़ों के आकलन से पता चलता है कि वास्तविक आर्थिक विषमता तो इससे भी अधिक हो सकती है। यदि विषमता का समग्र आकलन करना है तो संपत्ति वितरण, भूमि वितरण की विषमताओं और अवसर उपलब्धि संबंधी आर्थिक व सामाजिक विषमताओं को भी इस समग्र आकलन करना होगा तब विषमता संबंधी इससे भी गंभीर स्थिति सामने आ सकती है। दूर-दूर के गांवों में भी देखा जा रहा है कि बाहरी धनी व्यक्तियों के हाथ में अधिक भूमि जा रही है, जबकि बहुत से किसान भूमिहीन हो रहे हैं व भूमिहीनों को जमीन मिलने की उम्मीद खत्म हो रही है।
यह विकट विषमता तरह-तरह से हमारी अर्थव्यवस्था व समाज को क्षतिग्रस्त कर रही है अत: इस विषमता को पाटना अब जरूरी हो गया है। विषमता कम करने से लोगों की बुनियादी जरूरतों को पूरा करने मेंमदद मिलेगी, पर गरीबी व अभाव दूर करने के इन सबसे महत्वपूर्ण पक्ष को ही सरकार ने उपेक्षित कर रखा है। वैसे विश्व स्तर पर इस बारे में समझ बढ़ रही है कि विषमता दूर करने की जितनी जरूरत पहले थी,गंभीर पर्यावरण संकट के दौर में यह और भी अधिक बढ़ गई है। जलवायु बदलाव को नियंत्रित करने के लिए ग्रीनहाऊस गैसों के उत्सर्जन को कम करना जरूरी है, जो कि निरंतर व तेजी से बढ़ते उपभोग व उत्पादन के दौर में संभव नहीं है। अत: जीवाश्म ईंधन के उपयोग को तेजी से कम करने के साथ कहीं न कहीं असीमित उपभोग व उत्पादन की व्यवस्था को भी अनुशासित करना बहुत जरूरी हो गया है। इस आधार पर मौजूदा दौर में विषमता को कम करना अब अधिक जरूरी हो गया है। हालांकि आज यह कुछ कठिन प्रतीत हो रहा है, क्योंकि विषमता के पक्षधर व इससे लाभांवित होने वाले तत्व अब और शक्तिशाली हो गए हैं।
यह समस्या केवल भारत की नहीं है अपितु अनेक अन्य देशों विशेषकर संयुक्त राज्य अमेरिका, ब्रिटेन, ब्राजील आदि की भी है। अत: एक ऐसे दौर में जब विश्व को वास्तव में समता की जरूरत सबसे अधिक है, उस समय ही विश्व विषमता की ओर अग्रसर है। भारत भी इसी बुनियादी समस्या में फंसा हुआ है। ऐसे में यह समझना जरूरी है कि जहां विषमता को दूर करना अभाव व गरीबी दूर करने के लिए जरूरी है, वहीं अर्थव्यवस्था की टिकाऊ प्रगति के लिए भी समता जरूरी है। समता के दौर में क्रय-शक्ति का प्रसार अधिक व्यापक व संतुलित ढंग से होता है जिससे कि अर्थव्यवस्था के फलने-फूलने, विभिन्न तरह के उद्योगों व कारोबारों के आगे बढ़ने के अधिक अवसर उपलब्ध होते हैं। इस तरह घरेलू बाजार का आधार व्यापक होने से अर्थव्यवस्था बाहरी बदलावों व ऊंच-नीच से भी अधिक सुरक्षित होती है। अत: किसी भी दृष्टि से देखें तो विषमता को कम करना व समता की राह पर आगे बढ़ना देश व दुनिया के लिए अधिक जरूरी हो गया है।
भारत डोगरा
(लेखक सामाजिक मामलों के जानकार हैं)