Move to Jagran APP

'कश्मीर मुद्दे पर केंद्र सरकार को करने होंगे और सार्थक उपाय'

केंद्र को दिलीप पडगांवकर समिति की रिपोर्ट पर गौर करना चाहिए था जिसका लाभ दिनेश्वर शर्मा को मिलता, लेकिन लगता है कि ये खाली हाथ कश्मीर गए हैं।

By Lalit RaiEdited By: Published: Sun, 12 Nov 2017 03:08 PM (IST)Updated: Wed, 15 Nov 2017 01:35 PM (IST)
'कश्मीर मुद्दे पर केंद्र सरकार को करने होंगे और सार्थक उपाय'
'कश्मीर मुद्दे पर केंद्र सरकार को करने होंगे और सार्थक उपाय'

राजकिशोर

loksabha election banner

भारत सरकार ने कश्मीर समस्या का राजनैतिक हल निकालने के लिए इंटेलीजेंस ब्यूरो के पूर्व प्रमुख दिनेश्वर शर्मा को वार्ताकार नियुक्त किया है। अभी दिनेश्वर कश्मीर में ही हैं और विभिन्न पक्षों से संपर्क साधने की कोशिश कर रहे हैं। कुछ लोगों से वे मिले भी हैं, लेकिन 1979 बैच के आइपीएस ऑफिसर दिनेश्वर शर्मा के जिम्मे सिर्फ यही काम नहीं है। पहले उन्हें असम में उल्फा के अरबिंद राजखोवा गुट से और नेशनल डेमोक्रेटिक फ्रंट ऑफ बोडोलैंड से बातचीत करने के लिए नियुक्त किया गया था। बाद में उन्हें मणिपुर के यूनाइटेड पीपुल्स फ्रंट और कुकी नेशनलिस्ट ऑर्गनाइजेशन से वार्ताकार की भूमिका निभाने के लिए नियुक्त किया गया। दिनेश्वर शर्मा कितने भी योग्य अधिकारी हों, उनके कंधों पर इतनी ज्यादा जिम्मेदारी सौंपना उनके साथ न्याय नहीं है। वे उत्तर-पूर्व को कितना समय देंगे और कश्मीर को कितना समय दे सकेंगे?

मुझे इस पर भी एतराज है कि उत्तर-पूर्व और कश्मीर में वार्ताकार की भूमिका निभाने के लिए एक पुलिस अफसर कितना उपयुक्त है। इन दोनों प्रदेशों की समस्याएं आपराधिक नहीं, राजनैतिक हैं। अपराध शामिल है, पर वह सिर्फ अपराध के लिए नहीं है, वह एक राजनैतिक कार्रवाई का हिस्सा है। सरकार भी मानती है कि इन समस्याओं का मूल चरित्र राजनैतिक है। इसलिए इनका समाधान भी सैनिक नहीं, राजनैतिक होगा, बल्कि सैनिक समाधान समस्या को और पेचीदा बना देगा। इसलिए वार्ता के लिए किसी राजनैतिक व्यक्ति को भेजना ही समीचीन होता।

कश्मीर में इसके पहले भी कई वार्ताकार अपना काम कर चुके हैं। मनमोहन सिंह की सरकार ने दिलीप पडगावकर, राधा कुमार और एम एम अंसारी को कश्मीर के विभिन्न पक्षों से बातचीत करने के लिए नियुक्त किया था। इस समिति ने 110 पेज और छह परिशिष्टों की अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंपी थी। इस समिति के सदस्यों ने जम्मू और कश्मीर के सभी 22 जिलों में 700 प्रतिनिधि मंडलों से बातचीत की थी और तीन गोल मेज कांफ्रेंस भी की थी। इनकी रिपोर्ट बहुत ही सूझ-बूझ भरी थी, लेकिन इसे किसी मंत्री या बड़े अफसर ने शायद पढ़ा भी नहीं होगा। न संसद में इस पर कोई विचार-विमर्श हुआ। इस तरह तीन विद्वान और सरोकार-संपन्न लोगों की सारी मेहनत बेकार चली गई। इससे अनुमान होता है कि इन तीन वार्ताकारों को कश्मीर भेजने के पीछे सरकार का कोई गंभीर इरादा नहीं था।

इसी तरह, मोदी सरकार के इरादे में भी कोई गंभीरता दिखाई नहीं देती। यदि यह सरकार कश्मीर के लोगों से सचमुच कोई गंभीर वार्तालाप करना चाहती तो सब से पहले उसे दिलीप पडगावकर समिति की रिपोर्ट पर गौर करना चाहिए था। इस फीडबैक का लाभ दिनेश्वर शर्मा को मिलता तो वे बात को वहां से आगे बढ़ाते जहां वह ठहर गई थी, लेकिन ऐसा लगता है कि ये खाली हाथ कश्मीर गए हैं और खाली हाथ ही वहां से लौटेंगे। यह सही है कि कश्मीर की समस्या का समाधान बातचीत से ही निकलेगा, लेकिन सरकार द्वारा सिर्फ यह घोषणा करते रहना कि हम कश्मीर में किसी से भी बातचीत करने के लिए तैयार हैं, नितांत नाकाफी है। नाराज लोग बातचीत करने के लिए स्वयं आगे नहीं आते। सरकार को उनके पास जाना पड़ता है, लेकिन सिर्फ बातचीत के उद्देश्य से नहीं। सरकार को अच्छी तरह पता है कि कश्मीर में कितने गुट काम कर रहे हैं और किसकी क्या मांग है। दो चीजें स्पष्ट हैं। इस पर तो विचार करने का सवाल ही नहीं कि कश्मीर को पाकिस्तान के साथ विलय करने के लिए छोड़ देना चाहिए, लेकिन ऐसी मांग करने वालों की संख्या ज्यादा नहीं है। दूसरी मांग भी सिरे से ही खारिज होने योग्य है कि कश्मीर को आजाद कर दिया जाए यानी उसे एक स्वतंत्र देश का दरजा दिया जाए।

मगर इन दोनों अतिवादी मांगों को रद्द कर देने के बाद भी बहुत-से विकल्प हैं जिन पर विचार किया जा सकता है। स्वायतत्ता के अनेक स्तर हैं जिन्हें व्यावहारिक रूप से स्वीकार्य बनाया जा सकता है। अभी तक कश्मीरियों में यह अहसास पैदा करने का माहौल रहा है कि कश्मीर भारत का उपनिवेश है और उसे भारत में रहने के लिए मजबूर किया जा रहा है। अत: सब से पहले तो इस अहसास को ही मिटाना होगा। उदाहरण के लिए कुछ समय के लिए सेना को कश्मीर से वापस बुलाया जा सकता है। सेना सिर्फ सीमा पर रहेगी, नागरिक क्षेत्र में नहीं। उसके बाद ही ऐसा माहौल बन सकता है, जिसमें कोई उद्देश्यपूर्ण बातचीत हो सके। बातचीत के दो पक्ष होते हैं। एक पक्ष मांग करने वाले का होता है। वह बताता है कि हमें क्या चाहिए। दूसरा पक्ष मांग को स्वीकार करने वाले का होता है। यह पक्ष बताता है कि वह क्या-क्या दे सकता है। साथ ही वह अपनी ओर से कुछ शर्ते भी लगा सकता है।

कश्मीर की समस्या जितनी उलझी हुई है, उसे देखते हुए समाधानपरक बातचीत कई महीनों तक चल सकती है। या शायद दो-तीन साल भी, लेकिन सरकार को दृढ़प्रतिज्ञ होना होगा कि समाधान निकालना ही है। तभी दूसरे पक्ष की समझ में आएगा कि बातचीत सिर्फ समय काटने के लिए नहीं हो रही है, बल्कि किसी व्यावहारिक निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए हो रही है। अधिक संभावना इस बात की है कि कश्मीर के अशांत रहने में जिनके निहित स्वार्थ हैं, वे बातचीत को किसी भी निष्कर्ष तक पहुंचने नहीं देंगे। ऐसे तत्वों को उनकी औकात बताना होगा। मगर सचमुच अगर कोई निष्कर्ष नहीं निकलता है तो सरकार अपनी ओर से एक पैकेज बना कर उस पर कश्मीर में जनमत संग्रह करवा सकती है। इसकी जरूरत नहीं है कि अलगाववादियों और आतंकवादियों के साथ जनता के एक हिस्से का लगाव स्थायी है। एक एच्छे विकल्प की उम्मीद इस लगाव की दिशा को बदल सकता है।

मेरे खयाल से, कश्मीर समस्या का एक बड़ा कारण है उसका विशेष दर्जा। कश्मीर का अपना संविधान है, उसका अपना झंडा है। वहां अन्य भारतीयों को जमीन खरीदने की इजाजत नहीं है। स्थायी समाधान तो यही है कि कश्मीर को वही दर्जा दिया जाए जो भारत के अन्य राज्यों को मिला हुआ है, लेकिन सभी राज्यों की स्वतंत्रताओं को बढ़ाते हुए। सरकारिया आयोग की सिफारिशों पर विचार किया जा सकता है और नए रास्ते भी खोजे जा सकते हैं। सवाल है इतना बड़ा फैसला लेने के लिए राजनेताओं के लघु दिमाग क्या सक्षम हैं?

(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं) 


Jagran.com अब whatsapp चैनल पर भी उपलब्ध है। आज ही फॉलो करें और पाएं महत्वपूर्ण खबरेंWhatsApp चैनल से जुड़ें
This website uses cookies or similar technologies to enhance your browsing experience and provide personalized recommendations. By continuing to use our website, you agree to our Privacy Policy and Cookie Policy.