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' सियासी जमीन बचाने की कवायद में माया', इस्तीफे की बिसात पर दलित राजनीति

मायावती की रणनीति 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले उत्तर प्रदेश में अवश्यंभावी लोकसभा के दो उपचुनावों में से किसी एक में भाजपा के खिलाफ ताल ठोंकने की है।

By Lalit RaiEdited By: Published: Thu, 20 Jul 2017 11:19 AM (IST)Updated: Thu, 20 Jul 2017 11:20 AM (IST)
' सियासी जमीन बचाने की कवायद में माया', इस्तीफे की बिसात पर दलित राजनीति
' सियासी जमीन बचाने की कवायद में माया', इस्तीफे की बिसात पर दलित राजनीति

कृष्ण प्रताप सिंह

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रामनाथ कोविंद भले ही देश के पहले दलित राष्ट्रपति नहीं होंगे, इस अर्थ में पहले दलित राष्ट्रपति के. आर. नारायणन से ज्यादा सौभाग्यशाली होंगे कि उनके राष्ट्रपतित्व के प्रभाव उनके यह पद ग्रहण करने के पहले ही दिखने शुरू हो गए हैं। कोई कहे कुछ भी, इन तुरत-फुरत प्रभावों का एक बड़ा कारण यह भी है कि नारायणन के विपरीत कोविंद ऐसे पहले दलित राष्ट्रपति होंगे, जिसने न सिर्फ सीधे दलित-दलित मुकाबले में मीरा कुमार जैसी दिग्गज दलित महिला प्रत्याशी को शिकस्त दी होगी, बल्कि जिनके कारण दलित राजनीति के कई गैरभाजपाई अलम्बरदारों में असुरक्षा की विकट भावना घर कर गई है।

राष्ट्रपति चुनाव के लिए मतदान के ठीक एक दिन बाद बसपा सुप्रीमो मायावती द्वारा राज्यसभा की सदस्यता से दिए गए इस्तीफे को भी, कोविंद की जीत के पूर्ववर्ती प्रभाव के तौर पर ही देखा जा सकता है। यह वैसे ही है, जैसे भाजपा द्वारा कोविंद को राजग का प्रत्याशी बनाए जाने के बाद कांग्रेस की अगुआई वाले विपक्षी जमावड़े ने यह सिद्ध करने के लिए मीरा कुमार को उनके सामने खड़ी कर दिया कि भाजपा के तमाम दावों के बावजूद दलितों के सच्चे हमदर्द अभी भी वही हैं। ठीक है कि अंतत: उन्हें राजग के संख्याबल के साथ अपनी सिरफुटौव्वल के आगे भी सिर झुकाना पड़ा, लेकिन इतने भर से ‘देश की सबसे बड़ी दलित नेता’ मायावती से यह उम्मीद कैसे की जा सकती है कि वे इस स्थिति को ‘विनम्रतापूर्वक’ स्वीकार लें कि उनके जिस दलित वोट बैंक में राहुल गांधी की मार्फत अपना सारा कस बल लगाकर भी कांग्रेस दरार नहीं डाल सकी, उस पर कब्जा करके भाजपा मौज मनाती रहे और वे असहाय सी टुकुर-टुकुर देखती रहें।

अब जो लोग कह रहे हैं कि वे भाजपा के बढ़ते प्रभाव और लोकसभा चुनावों की शिकस्त के बाद उत्तर प्रदेश चुनाव में भी अपनी पार्टी के पराभव से डर गई हैं, वे कम से कम इस मायने में सही हैं कि दलित राजनीति में उसके अंतर्विरोधों के उघड़ने से मची खलबली सिर्फ और सिर्फ भाजपा की ही देन है। उसके पहले दलित अध्यक्ष बंगारू लक्ष्मण के बड़े बेआबरू होकर कूचे से बाहर निकल जाने के बाद यह पहली बार है, जब दलित राजनीति के केंद्र में आने की उसकी कोशिशें सफल होती दिख रही हैं और महाराष्ट्र से लेकर बिहार तक देश के कई हिस्सों में खुद को भारतरत्न बाबासाहब डॉ. भीमराव अंबेडकर की वारिस बताने वाली कई जमातें उसके साथ हैं, लेकिन अगर भाजपा के लोग मायावती के इस्तीफे को अपनी विजय या उनकी बौखलाहट के रूप में देखते और समझते हैं तो वे गलती कर रहे हैं।

मायावती ने जिस भाजपा के साथ उत्तर प्रदेश में कई-कई बार सरकारें बनाई और 2002 के गुजरात दंगों के बाद वहां हुए विधानसभा चुनाव में उसका प्रचार करने भी गईं, उसे हर हाल में दलितविरोधी साबित करने के लिए उसके खिलाफ आरोपों की झड़ी लगाती हुई उस पर अपनी आवाज दबाने की तोहमत भी जड़ रही हैं, तो किसी बदहवासी की शिकार नहीं है। इसके पीछे उनकी रणनीति है और इसी कारण उन्होंने अकेले ही राज्यसभा छोड़ी है और अपने सारे सांसदों का इस्तीफा नहीं दिलवाया। यह जानते हुए भी कि सबके इस्तीफे का संदेश कहीं ज्यादा फैलता, उन्होंने इस कदम से परहेज रखा तो समझना चाहिए कि उन्होंने इस जमीनी हकीकत को याद रखा है कि इस्तीफे के बाद उनमें से ज्यादातर की वापसी संभव नहीं होती और उपचुनावों में भाजपा राज्यसभा में बहुमत के थोड़ी और नजदीक पहुंच जाती। उनका खुद का राज्यसभा का कार्यकाल तो वैसे भी मार्च 2018 में समाप्त होने जा रहा है।


अलबत्ता, अब देखना होगा कि अपनी दलितों की राजनीति को अनूठी सोशल इंजीनियरिंग तक ले जाकर अपने ‘बहुजन हिताय’ के नारे को ‘सर्वजन हिताय’ तक पहुंचाने और कम से कम उत्तर प्रदेश में बुलंदियों तक ले जा चुकी मायावती के पास अपना अस्तित्व बचाने के वर्तमान संघर्ष में और कौन-कौन से हथियार हैं? यह सवाल इसलिए कि अब उन्होंने खुद को जिस बिन्दु तक पहुंचा दिया है, उसमें उनकी भाजपा से बड़ी दुश्मन उनकी खुद की कारस्तानियां और उनसे जुड़ा इतिहास है, जिसके कारण दलितों का भी एक बड़ा तबका मानने लगा है कि कांशीराम की नेक कमाई उन्होंने बेच खाई है। सो, यह दलित तबका उन दलित नेता उदितराज को सही सिद्ध करने में लगा है जो भाजपा के संसद सदस्य बनने के अरसा पहले से कहते आ रहे हैं कि मायावती में कोई सुरखाब के पर नहीं लगे और दलितों को उनसे बेहतर विकल्प मिलेंगे तो वे उन्हें अपनाने से परहेज नहीं करेंगे। ऐसे में सवाल है कि क्या मायावती आगे दलितों की निगाह में अपनी बसपा को भाजपा से बेहतर सिद्ध कर सकेंगी? जवाब अभी भविष्य के गर्भ में है, लेकिन इसका अभियान उन्होंने शुरू कर दिया है।


2014 में लोकसभा चुनाव में बसपा मोदी मैजिक के आगे चारों खाने चित्त हो गई थी और उसे एक भी सीट हासिल नहीं हुई थी। यूपी चुनाव में माना जा रहा था कि बसपा ही सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरेगी, लेकिन वह सिर्फ 19 सीटों पर सिमट गई। मायावती जानती हैं कि ऐसा भाजपा के दलित कार्ड के नाते भी हुआ, जिसे विफल किए बिना बसपा का निस्तार नहीं हो सकता। आश्चर्य नहीं कि कई लोग उनके इस्तीफे को उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा को साथ लाने के लालू यादव के प्रयत्नों से जोड़कर भी देख रहे हैं, जिसका एलान आगामी अगस्त में पटना में आयोजित रैली में होने की संभावना है। सूत्रों की मानें तो अब मायावती की रणनीति 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले उत्तर प्रदेश में अवश्यंभावी लोकसभा के दो उपचुनावों में से किसी एक में भाजपा के खिलाफ ताल ठोंकने की है।

योजना यह है कि उसमें सभी गैरभाजपाई दल उनके साथ आ खड़े हों और जीत हासिल कर 2019 में बढ़े हुए मनोबल के साथ पूरी ताकत से मोदी और भाजपा को ललकारें। उपराष्ट्पति का चुनाव संपन्न हो जाने के बाद भाजपा के उत्तर प्रदेश के दो सांसद मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ गोरखपुर लोकसभा सीट से तथा उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य फूलपुर लोकसभा सीट से इस्तीफा दे देंगे। तब इन दोनों लोकसभा सीटों पर उपचुनाव होना तय हो जाएगा। इनमें फूलपुर कभी देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का निर्वाचन क्षेत्र था और विपक्ष मन बना रहा है कि मायावती फूलपुर सीट से ताल ठोंके और सपा व कांग्रेस उनके साथ आ खड़ी हों, लेकिन वहां विपक्ष या बसपा के मंसूबे कितने परवान चढ़ेंगे। 2014 के लोकसभा चुनाव में फूलपुर से भाजपा के केशवप्रसाद मौर्य रिकॉर्ड मतों से जीते थे और गत विधानसभा चुनाव में भी इस लोकसभा क्षेत्र की पांचों विधानसभा सीटों पर भाजपा व उसके सहयोगियों का परचम लहराया था।


(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)


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