आबादी के मामले में जल्द ही चीन को पछाड़ देगा भारत, बढ़ सकती हैं मुश्किलें
संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट के मुताबिक सात साल बाद यानी 2024 तक भारत की आबादी चीन से अधिक हो जाएगी। 2030 तक भारत सवा अरब से डेढ़ अरब वाला देश हो जाएगा।
सुशील कुमार सिंह
तीन दशक पहले भारत में जनसंख्या नियंत्रण के लिए जब ‘हम दो, हमारे दो’ के नारे गूंज रहे थे, तब शायद ही किसी ने इसके प्रति सजिदंगी दिखाई हो। मुझे याद है गांव-घर की गलियों और प्राथमिक विद्यालयों की दीवारों पर इस तरह के नारे लिखे मिलते थे। आज भी कुछ सार्वजनिक स्थानों पर जीवन सुरक्षा, पर्यावरण और जनसंख्या वृद्धि के प्रति आगाह करने और इसके खतरों को लेकर लिखे गए नारे नजरों के सामने कभी-कभार गुजर ही जाते हैं पर नजरअंदाज करने की आदत के चलते इस पर गंभीरता का भाव शायद ही अब भी पनपता हो। अब जो बात कहने जा रहे हैं उसे जानने समझने के बाद सभी वर्गो की मुश्किलें बढ़ा सकता है। संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि सात साल बाद यानी 2024 तक भारत की आबादी चीन से अधिक हो जाएगी और 2030 तक भारत सवा अरब से डेढ़ अरब वाला देश हो जाएगा। हालांकि 2021 और 2031 की जनगणना से तस्वीर साफ हो पाएगी। संयुक्त राष्ट्र के आर्थिक एवं सामाजिक मामलों के विभाग ने ‘द वल्र्ड पॉपुलेशन प्रॉस्पेक्ट्स-द 2017 रिवीजन’ रिपोर्ट में आगाह किया है कि मौजूदा चीन की जनसंख्या जो 1 अरब 41 करोड़ है, उसकी तुलना में भारत 1 अरब 34 करोड़ तक पहुंच रहा है।
जिस परिप्रेक्ष्य में जनसंख्या को लेकर वर्षो से चिंता जाहिर की जाती रही है और उनमें संवेदनशीलता का आभाव था जिसका नतीजा यह रिपोर्ट है। देश में प्रति दस वर्ष में एक बार जनसंख्या की गिनती होती है और हर बार आंकड़े देख कर एक नए सिरे से नियंत्रण की कवायद शुरू होती है पर नतीजे ढाक के तीन पात ही रहे हैं। नियंत्रण की कवायद बहुत कमजोर है यह बात किसी से छुपी नहीं है पर मजबूत कैसे होगी सरकारों के प्रयासों को देखते हुए लगता है कि निदान इनके पास भी नहीं है। सबसे बड़ी समस्या जनसंख्या वृद्धि ही है। यह बात जितनी जल्दी समझ में आ जाएगी निदान उतना ही समीप होगा। भारत की भूमि और मौजूदा अर्थव्यवस्था जितने लोगों का भार वहन कर सकती है, मामला उससे ऊपर तो जा चुका है। अनुमान था कि भारत जनसंख्या के मामले में चीन को 2028 में पीछे छोड़ेगा पर यह अनुमान भी गलत सिद्ध हो गया।
बावजूद इसके जिस गति से भारत में जनसंख्या को लेकर गिरावट दर्ज की गई है उसके अनुपात में अनुमान है कि 2050 के बाद ही इसमें कमी परिलक्षित होगी पर तब तक देश की आबादी कहां जाकर रुकेगी इसका अनुमान तो किसी के पास नहीं है। आंकड़े इसका भी समर्थन करते हैं कि इतने ही वर्षो में दुनिया के दस देशों की आबादी पूरी दुनिया की तुलना में आधी होगी। वैसे देखा जाए तो इन दस देशों में शामिल नाइजीरिया की आबादी सबसे तेजी से बढ़ रही है और 2050 तक यह भारत, चीन के बाद तीसरा सर्वाधिक आबादी वाला देश होगा। अब यहां यह समझना होगा कि इतने बड़े हिस्से की जरूरत पूरी कैसे हो। भारत में 65 फीसद युवा रहता है। हालात यह है कि सरकार दो फीसद से अधिक नौकरी दे नहीं सकती। इसमें भी कटौती जारी है। निजी संस्थानों में काबिलियत और कूबत परवान चढ़ रहे हैं। यहां भी संभावना उन्हीं की है जो हुनरमंद है।
अब सवाल है कि करोड़ों की तादाद में प्रतिवर्ष की दर से बढ़ रहे बेरोजगार युवक कहां खपेंगे। यह केवल सरकार को सोचना है। अमेरिका जैसे देश भी संकुचित सोच की ओर जा रहे हैं। खाड़ी देश रोज़गार के मामले मे पहले जैसे खुले विचारों के नहीं रह गए। यूरोपीय देशों में भी हाल कम खराब नहीं है। ऐसे में आने वाले दिनों में दिशा तय करना यदि मुश्किल होगा तो यह जनसंख्या का साइड इफेक्ट ही कहा जाएगा। जनसंख्या पर काबू नहीं पाया गया तो रोजी रोटी की समस्या सबके लिए बढेगी। कम उत्पादन और कर्ज के दबाव में किसान मौत को गले लगा रहे हैं, चाहे उपज की कीमत की समस्या हो या घट रहे जोत की हो या उसमें गिरता उत्पादन की दर हो। यहां भी जनसंख्या विस्फोट ही अक्ष पर घूमता दिखाई देता है। प्रसिद्ध अर्थशास्त्री माल्थस ने लिखा है कि जिस गति से जनसंख्या बढ़ती है उस रफ्तार से उत्पादन बढ़ना संफव नहीं है। इसलिए समझदार लोग अपने समाज में अनावश्यक जनसंख्या न बढ़ने दें।
यह सभी जानते हैं कि जिस गति से जनसंख्या बढ़ रही है उस गति से संसाधन उपलब्ध नहीं हो रहे हैं। राष्ट्रीय विकास की दृष्टि से जीवन स्तर उठाने का पूरा प्रयत्न हुआ है। अशिक्षा, दरिद्रता और बीमारी से जंग अभी जारी है। बावजूद इसके भारत में हर चौथा व्यक्ति गरीबी रेखा से नीचे है। देश में इतने ही अशिक्षित भी हैं। व्यक्तिगत जीवन में भी जनसंख्या विस्फोट का बुरा प्रभाव पड़ रहा है। बच्चों का उचित पालन-पोषण न हो पाना साथ ही शिक्षा, स्वास्थ्य समेत बुनियादी मांगों को पूरा न कर पाने की वर्ग विशेष में मुश्किलें साफ-साफ दिखने लगी हैं। ऐसे कई समस्याएं जनसंख्या की वजह से दिख रही हैं। इसमें कोई शक नहीं कि भारत में अनियंत्रित जनसंख्या में कोई विस्फोटक क्रांति छुपी हुई है। पहला सवाल यह उठता है कि क्या इस पर नियंत्रण को लेकर समय निकल गया है या अभी बचा है।
1951 में 36 करोड़ का देश जब डेढ़ अरब के कगार पर हो तो समय निकला हुआ ही कहा जाएगा। दूसरा सवाल है कि सरकारों ने क्या किया साथ ही सवाल यह भी है कि नागरिकों ने क्या किया? सरकार पहली जनसंख्या नीति 1948 में लाई इसके बाद 1974 में। इशके बाद 1976 में कुछ बदलाव किए पर तीव्रता पर कोई लगाम नहीं लगा। 2000 में एक नई जनसंख्या नीति आई जिसमें जनसंख्या दर में गिरावट के साथ छोटे परिवार की अवधारणा का विकास करना शामिल था। इसी में यह भी था कि 2045 तक स्थिर जनसंख्या का लक्ष्य प्राप्त किया जाएगा। 2001 की जनगणना के समय देश की जनसंख्या 84 करोड़ से 102 करोड़ हुई थी जबकि 2011 में यह आंकड़ा 121 करोड़ पर जाकर रुका। तुलनात्मक गिरावट दर्ज हुई पर भयावह स्थिति को रोकना संभव नहीं हुआ।
आखिर जनसंख्या नीति भारत में इतनी असफल क्यों और चीन में इतनी सफल क्यों है? साफ है भारत में जनसंख्या के नियंत्रण को लेकर चीन जैसी कठोर नीति कभी अपनाई ही नहीं गई। चीन में दशकों तक एक बच्चे का प्रावधान था जबकि भारत में इसकी कोई चिंता नहीं की गई। इसके पीछे सरकारों की उदासीनता अव्वल रही है। लोकतंत्र में वोटों की राजनीति के चलते राजनेता जनता को भगवान करार देते रहे पर वे किस आपदा में फंसेंगे इससे वे अनभिज्ञ बने रहे। अब तो पानी सर के ऊपर बह रहा है। मौजूदा मोदी सरकार तीन बरस की सत्ता हांकने के बाद भी जनसंख्या नियंत्रण को लेकर कोई ठोस पहल नहीं की। फिलहाल संयुक्त राष्ट्र की इस हालिया रिपोर्ट से यह भी साफ हुआ है कि जनसंख्या नियंत्रण के मामले में भारत न केवल फिसड्डी साबित हुआ है बल्कि कई समस्याओं का जन्मदाता भी है।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
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