राजनीति के वह दागी चेहरे, जिन्होंने भारतीय लोकतंत्र को किया बदनाम
धनबल और भुजबल का भारत की राजनीति में सदा ही प्रभाव और दखल देखा गया है विशेषकर दक्षिण में।
(बाल मुकुंद ओझा)
सजायाफ्ता नेताओं के चुनाव लड़ने पर सर्वोच्च न्यायलय की कड़ी टिपण्णी के बाद देश की राजनीति में हड़कंप मचा हुआ है। ऐसा पहली बार नहीं हुआ है पहले भी न्यायालय ने चेताया था मगर चुनाव आयोग और सरकार ने कोई कदम नहीं उठाया। अब एक बार फिर चुनावों को पारदर्शी और अपराध मुक्त बनाने की दिशा में आवाज बुलंद हुई है। देखना यह है की चुनाव आयोग और सरकार के साथ विपक्षी नेता इस पर कितने गंभीर हैं,क्योंकि लगभग सभी राजनीतिक दलों में दागी नेताओं की भरमार है। दोषी ठहराए गए सांसदों या विधायकों के चुनाव लड़ने पर आजीवन प्रतिबंध लगाने की मांग करने वाली एक याचिका पर सुनवाई के दौरान हाल ही सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग को कड़ी फटकार लगाई।
शीर्ष अदालत ने आयोग से इस मामले में अपना पक्ष स्पष्ट करने को कहा है। चुनाव आयोग के वकील ने जब न्यायालय से कहा कि आयोग राजनीति में अपराधिकरण के खिलाफ याचिकाकर्ता की याचिका का समर्थन करता है तो न्यायमूर्ति रंजन गोगोई तथा न्यायमूर्ति नवीन सिन्हा की पीठ ने कहा, यह चुनाव आयोग के अधिकार क्षेत्र में है, अगर आप स्वतंत्र नहीं रहना चाहते हैं और विधायिका द्वारा विवश हैं, तो ऐसा कहिए। पीठ ने कहा, जब एक नागरिक दोषी सांसदों या विधायकों के चुनाव लड़ने पर आजीवन प्रतिबंध की मांग को लेकर चुनाव आयोग के पास पहुंचता तो क्या चुप रहना विकल्प है? आप हां या नहीं में जवाब दे सकते हैं। आप चुप्पी कैसे साध सकते हैं।
चुनाव आयोग के जवाब का एक पैराग्राफ पढ़ने के बाद पीठ ने यह टिप्पणी की, जो दोषी ठहराए गए सांसदों या विधायकों पर आजीवन प्रतिबंध लगाने की याचिका का समर्थन करता है। वकील ने हालांकि कहा कि कथित पैराग्राफ को अलग करके नहीं देखा जाए और आयोग की पूरी प्रतिक्रिया के हिस्से के तौर पर पढ़ा जाना चाहिए।
देश में दागी राजनीति ज्यादा पुरानी नहीं है।
धनबल और भुजबल का भारत की राजनीति में सदा ही प्रभाव और दखल देखा गया है विशेषकर दक्षिण में धनबल और हिंदी भाषी राज्यों में भुजबल से नकारा नहीं जा सकता। दक्षिण भारत के राज्यों में जहां चुनावों में धनबल का इस्तेमाल सर्वमान्य है वहीं उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों में अपेक्षाकृत पैसे बांटे जाने के मामले कम नजर आते हैं। राजनीतिक पार्टियां इसके बदले बाहुबली प्रत्याशी या बाहुबली कार्यकर्ता से काम निकालते हैं। एक जमाने में सत्ता पाने के लिए नेता जन सरोकार में अपनी भागीदारी को मेरिट मानते थे मगर आज धनबल बाहुबल और जातिबल के आधार पर लोग सियासत के शीर्ष पर चढ़ने लगे हैं। जिस तरह हमारी राजनीति का अपराधीकरण हुआ है और जिस तरह देश में आपराधिक तत्वों की ताकत बढ़ी है, वह जनतंत्र में हमारी आस्था को कमजोर बनाने वाली बात है।
राजनीतिक दलों द्वारा अपराधियों को और सम्मान देना और फिर कानूनी प्रक्रिया की कछुआ चाल, यह सब मिलकर हमारी जनतांत्रिक व्यवस्था और जनतंत्र के प्रति हमारी निष्ठा, दोनों, को सवालों के घेरे में खड़ा कर देते हैं। सोलहवीं लोकसभा के लिए हुए चुनाव-प्रचार के दौरान प्रधानमंत्री मोदी ने राजनीतिक के शुद्धीकरण का नारा लगाया था। भाजपा एक अर्से से दूसरों से अलग राजनीतिक पार्टी होने का दावा करती रही है। फिर भाजपा के इतने मंत्री आरोपी क्यों? राजनीति का शुद्धीकरण होता क्यों नहीं दिखाई दे रहा? मोदीजी ने चुनाव-प्रचार के दौरान कहा था-सरकार बनने के बाद सांसदों के खिलाफ लंबित मामलों की जांच की जायेगी, न्यायालय से कहा जायेगा कि सांसदों के खिलाफ चल रहे मामलों को एक साल में ही निपटाया जाये।
प्रधानमंत्री ने ऐसे मामलों को निपटाने के लिए त्वरित अदालतों के गठन की बात भी कही थी। क्या यह सब चुनावी जुमलेबाजी थी? भारतीय लोकतंत्र में अपराधी इतने महत्वपूर्ण हो गए हैं कि कोई भी राजनीतिक दल उन्हें नजरअंदाज नहीं कर पा रहा। पार्टियां उन्हें नहीं चुनती बल्कि वे चुनते हैं कि उन्हें किस पार्टी से लड़ना है। उनके इसी बल को देखकर उन्हें बाहुबली का नाम मिला है। कभी राजनीति के धुरंधर अपराधियों का अपने लाभ के लिए इस्तेमाल करते थे अब दूसरे को लाभ पहुंचाने के बदले उन्होंने खुद ही कमान संभाल ली है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
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