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रोजगार पर राजनीति: विश्वसनीय आंकड़ों के अभाव में अधूरी बहस

अमेरिका में जहां हर माह रोजगार-बेरोजगारी के आंकड़े आते हैं वहीं भारत में इस दिशा में किसी भी दल की सरकार ने कोई ठोस कदम नहीं उठाया।

By Kishor JoshiEdited By: Published: Fri, 23 Jun 2017 08:41 AM (IST)Updated: Fri, 23 Jun 2017 08:41 AM (IST)
रोजगार पर राजनीति: विश्वसनीय आंकड़ों के अभाव में अधूरी बहस
रोजगार पर राजनीति: विश्वसनीय आंकड़ों के अभाव में अधूरी बहस

हरिकिशन शर्मा, नई दिल्ली। हाल में जब खबर आयी कि देश की विकास दर तो सात फीसदी है लेकिन रोजगार में वृद्धि सिर्फ एक फीसदी तो राजनीतिक बहस छिड़ गयी। रोजगार-बेरोजगारी लंबे अरसे से चुनावी मुद्दे रहे हैं इसलिए विपक्ष फौरन इन आंकड़ों को हथियार बनाकर सरकार पर हमलावर हो गया। वहीं सत्तापक्ष सफाई देते-देते अंतत: इन आंकड़ों की विश्र्वसनीयता पर सवाल उठाने लगा। मामला तूल पकड़ते देख सरकार हरकत में आयी और आनन-फानन में रोजगार के समयबद्ध और भरोसेमंद आंकड़े जुटाने का नया तरीका इजाद करने को एक टास्कफोर्स का गठन कर दिया।

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विपक्ष का यह सवाल लाजिमी है कि नौजवानों को कितनी नौकरियां मिलीं क्योंकि मौजूदा सरकार ने सत्ता में आने से पहले 'अबकी बार, युवाओं को रोजगार' का नारा दिया था। महत्वाकांक्षी 'मेक इन इंडिया' लांच हुआ तब भी कहा गया कि 2022 तक अकेले मैन्युफैक्चरिंग में 10 करोड़ अतिरिक्त नौकरियां आ जाएंगी। हालांकि जब लेबर ब्यूरो का सर्वे आया तो उसमें तस्वीर उलट ही दिखी और इस मुद्दे पर राजनीतिक बहस छिड़ गयी। राजनीतिक दलों के बीच छिड़ी यह बहस अधूरी ही रही क्योंकि आजादी के सत्तर साल बाद भी देश में रोजगार के नियमित, समयबद्ध और विश्वसनीय आंकड़े जुटाने का कोई तंत्र विकसित नहीं हुआ है। अमेरिका जैसे देशों में जहां हर माह रोजगार-बेरोजगारी के आंकड़े आते हैं वहीं भारत में इस दिशा में किसी भी दल की सरकार ने कोई ठोस कदम नहीं उठाया।

फिलहाल श्रम मंत्रालय के अधीन आने वाला लेबर ब्यूरो 'तिमाही रोजगार सर्वे' करता है लेकिन आलोचकों का कहना है कि यह सर्वेक्षण अपर्याप्त है क्योंकि इसमें मात्र आठ क्षेत्रों की 10,628 यूनिटें ही कवर होती हैं। इसकी दूसरी कमी यह है कि इसमें सिर्फ वही यूनिट कवर होती हैं जिनमें 10 से अधिक कामगार हैं। नीति आयोग के उपाध्यक्ष अरविंद पानागढि़या ने इस सर्वे में कई खामियां गिनाई हैं।

वैसे भारत पूर्व मुख्य सांख्यिकीयविद प्रणव सेन इससे सहमत नहीं हैं। उनका कहना है कि 2008 में जब मंदी आयी थी तो इस सर्वे की शुरुआत ही जॉब लॉस देखने को हुई थी। यह सर्वे जॉबलॉस के आंकड़े देता है जॉब गेन के नहीं। लेबर ब्यूरो एक सालाना सर्वे भी करता है। इसमें करीब 1.56 लाख परिवारों के 7.81 सदस्यों से सवाल-जवाब कर रोजगार की स्थिति जानने का प्रयास किया गया। यह 2011-12 से चल रहा है और इसके ताजा आंकड़े 2015-16 तक के ही उपलब्ध हैं। इस सर्वे भी में कई खामियां हैं।

रोजगार के आंकड़े जुटाने का तीसरा महत्वपूर्ण सर्वेक्षण एनएसएसओ (नेशपनल सेंपल सर्वे ऑफिस) करता है। वैसे तो एनएसएसओ का यह सर्वे एक लाख परिवारों से सवाल-जवाब पर आधारित होता है लेकिन इसकी सबसे बड़ी कमी यह है कि यह पांच साल में एक बार ही होता है। सेन कहते हैं कि यह सर्वे पिछले साल ही हो जाना चाहिए था, लेकिन एनएसएसओ के नए सर्वे के इंतजार में यह नहीं हुआ।

रोजगार के आंकड़े जानने का चौथा तरीका आर्थिक जनगणना है जो 2013 में हुई थी। रोजगार के आंकड़ों की दृष्टि से इसमें दो खामियां हैं- पहली, यह काफी लंबे अंतराल पर होती है। दूसरी, इसमें रोजगार के बारे में ज्यादा सवाल नहीं पूछे जाते। इसके अलावा रोजगार की तस्वीर देखने का पांचवा तरीका जनगणना है लेकिन इससे भी देश में श्रम बल का अंदाजा होता है। यह दस साल के अंतराल पर होती है, इसलिए इससे अल्पावधि में रोजगार घटने या बढ़ने का पता इससे नहीं चलता। वहीं फैक्ट्री कानून के तहत पंजीकृत इकाइयां वार्षिक औद्योगिक रिटर्न भी फाइल करती हैं। इससे भी नौकरियां के घटने या बढ़ने का कुछ हद तक अंदाजा लगाया जा सकता है लेकिन इसकी कमी यह है कि इसमें सिर्फ मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र की इकाइयों की तस्वीर ही दिखती है। इस तरह यह असंगठित क्षेत्र की स्थिति बताने में नाकाम रहता है।

बहरहाल सरकार ने आनन फानन में नीति आयोग के उपाध्यक्ष के नेतृत्व में एक टास्क फोर्स का गठन किया जो यह बताएगी कि रोजगार के आंकड़े किस तरह जुटाए जाएं। प्रधानमंत्री कार्यालय भी इस मुद्दे पर करीब से नजर रख रहा है और टास्कफोर्स अगले एक-दो हफ्ते में अपनी रिपोर्ट देगी। इस बीच सरकार ने एनएसएसओ से रोजगार का सालाना सर्वेक्षण कराने का फैसला किया है जो एक जुलाई से शुरु हो रहा है। यह शहरों में तिमाही जबकि गांवों में सालाना आधार पर होगा।

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