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सुप्रीम कोर्ट में लड़ रहीं हिंदी और उर्दू

भाषा की लड़ाई की गूंज आजकल संसद से सड़क तक सुनाई दे रही है। वह लड़ाई देशी के बजाए विदेशी भाषा को तरजीह देने के खिलाफ है। लेकिन, भाषा की एक लड़ाई सुप्रीम कोर्ट में भी चल रही है। यहां झगड़ा बहनें कही जाने वाली उर्दू और हिंदी के बीच है। हिंदी भाषा की हिमायती होने का दावा करने वाले यूपी हिंदी साहित्य सम्मेलन को उत्तर प्रदेश में उर्दू को दूसरी आधिकारिक भाषा का दर्जा मिलना नहीं पच रहा है। संगठन उर्दू को हिंदी के बराबर दर्जा दिए जाने के खिलाफ 25 सालों से कानूनी लड़ाई

By Edited By: Published: Wed, 06 Aug 2014 09:35 AM (IST)Updated: Wed, 06 Aug 2014 12:04 PM (IST)
सुप्रीम कोर्ट में लड़ रहीं हिंदी और उर्दू

नई दिल्ली [माला दीक्षित]। भाषा की लड़ाई की गूंज आजकल संसद से सड़क तक सुनाई दे रही है। वह लड़ाई देशी के बजाए विदेशी भाषा को तरजीह देने के खिलाफ है। लेकिन, भाषा की एक लड़ाई सुप्रीम कोर्ट में भी चल रही है। यहां झगड़ा बहनें कही जाने वाली उर्दू और हिंदी के बीच है। हिंदी भाषा की हिमायती होने का दावा करने वाले यूपी हिंदी साहित्य सम्मेलन को उत्तर प्रदेश में उर्दू को दूसरी आधिकारिक भाषा का दर्जा मिलना नहीं पच रहा है। संगठन उर्दू को हिंदी के बराबर दर्जा दिए जाने के खिलाफ 25 सालों से कानूनी लड़ाई लड़ रहा है। पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने मंगलवार को उत्तर प्रदेश में उर्दू को दूसरी आधिकारिक भाषा का दर्जा देने संबंधी कानून को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुनवाई शुरू की।

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1989 में उत्तर प्रदेश सरकार ने यूपी राजभाषा कानून में संशोधन कर उर्दू को प्रदेश की दूसरी आधिकारिक भाषा का दर्जा दिया था। हिंदी को प्रदेश में पहली आधिकारिक भाषा का दर्जा प्राप्त है। यूपी हिंदी साहित्य सम्मेलन ने इलाहाबाद हाई कोर्ट में याचिका खारिज होने के बाद सुप्रीम कोर्ट में अपील की, जो 1997 से लंबित है। इस बीच विभिन्न पीठों से होते हुए हिन्दी और उर्दू की यह लड़ाई संविधान पीठ तक पहुंच गई।

सुप्रीम कोर्ट में मंगलवार को भाषा की यह लड़ाई करीब ढाई घंटे चली। बुधवार को भी इस पर सुनवाई होगी। यूपी साहित्य सम्मेलन के वकील श्याम दीवान का कहना था कि संविधान के अनुच्छेद 345 के प्रावधानों को बारीकी से समझा जाए तो हिंदी के साथ किसी दूसरी भाषा को आधिकारिक भाषा का दर्जा नहीं दिया जा सकता। लेकिन, पीठ उनकी दलील से सहमत नहीं दिखी। पीठ ने कहा कि अनुच्छेद 345 और 347 को अगर ठीक से समझा जाए तो स्पष्ट हो जाता है कि राज्य सरकार एक से अधिक भाषाओं को राजभाषा का दर्जा दे सकती है। इतना ही नहीं अगर कोई भाषाई संगठन राष्ट्रपति के पास जाकर किसी भाषा को राजभाषा के दर्जे में शामिल कराने की मांग करता है तो राष्ट्रपति चाहें तो सीधे राज्य सरकार को उस भाषा को राजभाषा में शामिल करने का निर्देश दे सकते हैं। पीठ का कहना था कि भाषा की व्यवस्था देने वाले इन प्रावधानों को व्यापक रूप में देखा जाना चाहिए। जबकि, याचिकाकर्ता उसे संर्कीण रूप में ले रहा है।

संगठन की याचिका में कहा गया है कि उत्तर प्रदेश में उर्दू को दूसरी आधिकारिक भाषा नहीं बनाया जा सकता। प्रदेश सरकार ने सिर्फ अल्पसंख्यकों को तुष्ट करने के लिए ऐसा किया है। उसकी दलील है कि किसी को भाषाई अल्पसंख्यक तब माना जाता है जबकि उस भाषा को बोलने वालों की संख्या राज्य की कुल जनसंख्या की 30 फीसद हो जबकि उत्तर प्रदेश में उर्दू बोलने वाले सिर्फ 9.71 फीसद लोग ही हैं।

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