कानूनी पेंच में न फंसे गुजरात में आर्थिक आरक्षण
गुजरात सरकार में गरीब वर्ग के लिेए आरक्षण की घोषणा की गई है। राज्य सरकार ने आर्थिक रूप से पिछड़ों को 10 फीसद आरक्षण देने का ऐलान किया है। सरकार की इस घोषणा के बाद आरक्षण पर एक बार फिर से बहस शुरू हो गई है।
माला दीक्षित, नई दिल्ली। आरक्षण फिर बहस में है। इस बार किसी जाति के लिए नहीं बल्कि गरीब वर्ग के लिए आरक्षण की घोषणा हुई है। गुजरात में आर्थिक रूप से पिछड़ों को दस फीसद आरक्षण देने की घोषणा की गई है। जाति आधारित आरक्षण का विरोध करने वाले हमेशा से आर्थिक आधार की पैरवी करते रहे हैं लेकिन ऐसी शुरूआत करते समय सरकार को थोड़ा सावधान रहना होगा ताकि पिछड़ेपन का नया पैमाना कोर्ट में दम न तोड़ दे।
शायद गुजरात सरकार को इसका अहसास है, इसी कारण आरक्षण की घोषणा करते वक्त यह भी कहा गया कि हम अदालत में लड़ने को तैयार हैं। कानूनविदों का कहना है कि पिछड़ेपन की पहचान का तरीका बदलना होगा।
पहले भी दस फीसद आरक्षण दिया
यह पहला मौका नहीं जब आर्थिक आधार पर आरक्षण की घोषणा हुई हो। 1991 में नरसिम्हा राव सरकार ने अन्य पिछड़ा वर्ग को 27 फीसद आरक्षण देते हुए आर्थिक तौर पर कमजोर वर्ग के लिए अलग से दस फीसद आरक्षण घोषित किया था लेकिन 1992 में इंद्रा साहनी फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि पिछड़ेपन का मापदंड केवल आर्थिक नहीं हो सकता। आर्थिक के साथ सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़ापन भी होना चाहिए। इस फैसले के बाद सरकार ने गरीबों का आरक्षण वापस ले लिया था।
नए सिरे से करना होगा विचार
जाने माने वकील हरीश साल्वे कहते हैं कि संविधान के जिस प्रावधान में आरक्षण दिया जाता है वह आर्थिक पिछड़ेपन की बात नहीं करता। यह नई स्थिति है। सुप्रीम कोर्ट भी कह चुका है कि सिर्फ आर्थिक आधार मानक नहीं हो सकता। परिस्थितियां बदलती रहती हैं और मानक भी बदले जा सकते हैं।
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बदलना होगा पहचान का तरीका
जिस फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि पिछड़ेपन का एकमात्र आधार आर्थिक नही हो सकता उसी में यह भी कहा गया था कि जाति भी पहचान का एकमात्र आधार नहीं हो सकती। हां यह पिछड़े वर्ग की पहचान का शुरुआती बिंदु हो सकती है। कोर्ट ने माना था कि सामाजिक, शैक्षणिक पिछड़ापन आर्थिक पिछड़ेपन से जुड़ा हुआ है।
सरकार आंकड़े जुटाए
आर्थिक आरक्षण को कोर्ट में टिकाने की युक्ति बताते हुए सुप्रीम कोर्ट के वकील वकील ज्ञानंत सिंह कहते हैं कि पिछड़ेपन की पहचान का तरीका बदलना होगा। सरकार को ये आंकड़े जुटाने होंगे कि जो लोग गरीब हैं, समाज में वे पिछड़े हुए हैं। इसके लिए न तो संविधान संशोधन करने की जरूरत है और न ही नया कानून लाने की। पहचान के इस तरीके से सभी वर्गो को लाभ मिलेगा।
आर्थिक स्थिति बदलती रहती है
वरिष्ठ वकील सुशील जैन मानते हैं कि गरीबी के साथ सामाजिक पिछड़ेपन के आंकड़े जुटाने जरूरी होंगे क्योंकि व्यक्ति की आर्थिक स्थिति हमेशा एक सी नहीं रहती। आरक्षण का मूल उद्देश्य गैर बराबरी वाले तबके को बराबरी पर लाना है।
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