शिकार के लिए 'पानी की तोप' दागती है मछली
मछलियां पानी के अंदर ही भोजन तलाश नहीं करतीं बल्कि पानी की सतह के आसपास बैठे कीट -पतंगों का शिकार भी करती हैं।
जागरण डेस्क, नई दिल्ली । मछलियां पानी के अंदर ही भोजन तलाश नहीं करतीं बल्कि पानी की सतह के आसपास बैठे कीट -पतंगों का शिकार भी करती हैं। जलस्त्रोत के पास उगे छोटे पौधों के पत्तों या टहनी पर बैठी मकड़ी, कीड़े को पानी पर गिराने के लिए वाटर कैनन (पानी की तोप) छोड़ती हैं।
दक्षिण तथा दक्षिण पूर्व एशिया के साथ आस्ट्रेलिया में भी ऐसी मछलियां पाई जाती हैं। इनकी वाटर कैनन की धार छह सेंटीमीटर से दो मीटर तक जा सकती है। वह पहले सावधानीपूर्वक शिकार के पास आती हैं, अपने गलफड़ों में पानी इकट्ठा करती हैं और फिर एकाएक तेज आवेग से धार छोड़ती है। अचानक हुए हमले से शिकार (कीट, मकड़ी, छोटी छिपकली आदि) हक्का-बक्का रह जाता है और पानी में आ गिरता है। उसके बाद उसके पास बचाव का कोई रास्ता नहीं बचता।
रोमांचकारी, हैरान करने वाली:
विज्ञानियों के अनुसार आर्चर फिश की यह कला प्रभावशाली, रोमांचकारी और हैरान करने वाली है। लगभग ढाई सौ साल पहले ऐसी मछली का पता चला था। इसकी सात प्रजातियां बताई गई, यह दस सेंटीमीटर से अधिक लंबी नहीं होतीं। जर्मनी की फ्रीबर्ग यूनिवर्सिटी के अनुसंधानकर्ता शस्टर ने बताया कि ऐसी मछलियां अपने बचाव के लिए भी वाटर कैनन का इस्तेमाल करती हैं।
बचाव के लिए भी:
उन्होंने बताया कि मैंने एक्वेरियम के लिए मंगवाई ऐसी कुछ मछलियों को टैंक में डाला तो उन्होंने मेरे नाक पर पानी की धार छोड़ी। ये इतनी तेज धार कैसे छोड़ पाती हैं, इसका राज जानने के लिए गहन अनुसंधान हुआ। पहले उसके जबड़ों की मांसपेशियों को अलग किया गया, वजन किया फिर गिना गया। माना गया था कि तेज धार छोड़ने का राज उसके जबड़ों में है लेकिन अनुमान सही नहीं निकला।
अनुसंधानों का क्रम
1976 में फिर अनुसंधान हुआ, अनुमान लगाया गया कि आर्चरफिश के शरीर का रचनातंत्र गुलेल जैसा हो सकता है। इस तंत्र में कुछ मांसपेशियों की ऊर्जा अन्य में एकत्र हो जाती है जिससे एक ही स्थान पर भंडारित ऊर्जा एक ही वेग से बाहर निकलती है। टिड्डे और झिंगुर में यही रचनातंत्र है जिसकी वजह से वे अपने शरीर से सैकड़ों गुना दूर छलांग लगा लेते हैं। मछली के शरीर का अध्ययन किया गया तो उसमें ऐसी कोई मांसपेशी या हड्डी नहीं मिली जहां ऊर्जा को एकाग्र किया जा सके। 1986 और उसके बाद 2010 में अनुसंधान हुए लेकिन सही कारण का पता नहीं चला, अनुसंधान अब भी जारी हैं।