अब नहीं सुनाई देते होली पर फाग
होली आने को है, लेकिन विकास की दौड़ में रंगीनी भरने वाले हमारी लोक विधा के परिचायक फाग के गीत गुम हो गए हैं।
कुशीनगर । होली आने को है, लेकिन विकास की दौड़ में रंगीनी भरने वाले हमारी लोक विधा के परिचायक फाग के गीत गुम हो गए हैं। अत्याधुनिक वाद्य यंत्रों व गीतों के बीच इसके कद्रदान घटे तो फाग का मस्ती भरा गीत भी गुम सा हो गया। अब गांवों में गीत गाती वह फाग की टोली कहीं विरले ही मिल रही है। युवा पीढ़ी तो जानती ही नहीं कि यह फाग का गीत क्या है? विकास के नए तराने गाना तो ठीक है, लेकिन अपनी लोक परंपराओं व कलाओं, धरोहरों का गुम होना गंभीर चिंता का विषय भी है।
हम 21वीं सदी के विकास का कोरस गा रहे हैं। विकास की दौड़ में तेज कदमताल से नए कीर्तिमान भी खड़ा कर रहे हैं, लेकिन इसके बीच हम अपनी लोक परंपराओं, लोक गीतों से दूर होते जा रहे हैं। रंगों के त्योहार होली को लेकर तो यह बात फिट बैठ रही है। कभी रंगों के साथ इस त्योहार की पहचान फाग गीत आधुनिकता की दौर में गुम से हो गए हैं। फाग की वह टोली गांव या कस्बे में दिखती ही नहीं जिसके तराने बताते थे कि रंगों का त्योहार कितना प्यार भरा है। उड़ते अबीर गुलाल के बीच गूंजते फाग गीत त्योहार की खुशी बढ़ा देते थे।
आधुनिकता की दौर की मार पड़ी तो युवा पीढ़ी ने नए गीतों के धुन के बीच इसे मानो बिसार ही दिया। तभी तो गांव से लेकर शहर तक फाग गीत सुनने को लोग तरस रहे हैं। रंगों का खुमार तो है लेकिन फाग के उन गीतों की मस्ती नहीं, जिन पर मन डोल जाया करता था। बूढ़े से लेकर जवान तक थिरक उठते थे। इसके पीछे खड़ा दिखता लोक कला व गीत का मजबूत आधार तो मीठा एहसास।
यह है इनका दर्द
75 वर्षीय रघुपति, 60 वर्षीय राजेंद्र, 67 वर्षीय छट्ठू, 63 वर्षीया प्रेमा देवी कहते हैं कि रंग तो है, लेकिन उल्लास नहीं। नए तौर तरीके के गीत तो हैं लेकिन फाग गीत के वह मीठे एहसास नहीं। अब तो फाग गीत की टोली दिखती है और न ही रंगों के साथ वह ठिठोली जो बताती थी कि यह हमारा रंगो का प्यारा त्योहार होली।
इनकी सुनिए
16 वर्षीय राजू, 21 वर्षीय प्रदीप, 18 वर्षीय विनोद, 19 वर्षीय कुलदीपक कहते हैं कि यह फाग गीत क्या है हमें नहीं मालूम। हम तो होली के नए गीतों को सुनते और उसी पर होली का त्योहार मनाते भी हैं। इनका यह जवाब बताता है कि लोक फाग गीत गुम ही नहीं हुए अब विलुप्त होने की ओर हैं।
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