बदनाम गलियों में जगा रहीं शिक्षा की अलख
मैकेनिकल इंजीनियर की बेटी पूर्णिमा मिश्र के लिए जीबी रोड की बदनाम गलियों में कदम रखना आसान नहीं था। उन्हें तो अजमेरी गेट के नजदीक स्थित इस पुरातन इलाके की ठीक तरह से जानकारी भी नहीं थी, लेकिन इरादे पक्के और मजबूत थे। पूर्णिमा मिश्र यहां बच्चों के लिए स्कूल
नेमिष हेमंत, नई दिल्ली। मैकेनिकल इंजीनियर की बेटी पूर्णिमा मिश्र के लिए जीबी रोड की बदनाम गलियों में कदम रखना आसान नहीं था। उन्हें तो अजमेरी गेट के नजदीक स्थित इस पुरातन इलाके की ठीक तरह से जानकारी भी नहीं थी, लेकिन इरादे पक्के और मजबूत थे। पूर्णिमा मिश्र यहां बच्चों के लिए स्कूल चलाती हैं। इनके छात्र वह बच्चे भी हैं, जिनके हाथ अगर पूर्णिमा न थामती तो शायद उनका बचपन बदनाम गलियों के भंवर में खो गया होता। वह बच्चों को इतना शिक्षित बना देती हैं कि उनका किसी प्राइमरी स्कूल में प्रवेश हो सके। पूर्णिमा की कक्षा में 50 बच्चे हैं। स्कूल चलाते अब उन्हें डेढ़ वर्ष से अधिक हो गए हैं।
राजधानी में जीबी रोड की एक पहचान वेश्यावृत्ति के बाजार के तौर पर भी है। ऐसे में यहां की गलियों से सभ्य घर की महिलाओं व युवतियों का गुजरना बेहद मुश्किल होता है। राजधानी के आजादपुर की रहने वाली पूर्णिमा कहती हैं कि उन्हें भी इस गली में आने में कम परेशानी नहीं उठानी पड़ी। बराबर किसी अनहोनी की आशंका बनी रहती थी। लोग अश्लील इशारे करते थे और फब्तियां कसते थे। वह बताती हैं कि, शुरू में लगा कहां आ गई, लेकिन हार नहीं मानी। वह कहती हैं अब आस-पास के लोग जान गए हैं, लेकिन अभी भी कभी- कभार असहज स्थिति से पाला पड़ ही जाता है। फिर भी इन बच्चों के भविष्य को देखकर इरादे और पक्के हो जाते हैं।
सामाजिक सरोकारों की ओर रहा है रूझान
बचपन से ही पूर्णिमा का रूझान सामाजिक सरोकारों की तरफ रहा है। कॉलेज समय में वह शोषण की शिकार महिलाओं के अधिकारों को लेकर आवाज उठाती रहीं। फुटपाथ के बच्चों को भी पढ़ाने का काम किया, लेकिन आठ वर्षो के सामाजिक जीवन में मोड़ तब आया जब उन्हें जीबी रोड के बच्चों के लिए कुछ करने का मौका मिला। वह बताती हैं कि, हमारे स्वयंसेवी संगठन अभिव्यक्ति ने जब ‘पहल’ कार्यक्रम की नींव रखी तब मुझे जीबी रोड के बारे में कोई जानकारी नहीं थी, लेकिन जब यहां आई तो यहां की हकीकत का पता चला। शुरू में परिजन भी यहां काम करने से मना करते थे, लेकिन उन्हें मनाया।
पूर्णिमा के स्कूल में 50 बच्चे हैं, जिनकी उम्र तीन वर्ष से लेकर 12 वर्ष तक हैं। वह बताती हैं कि शुरू में यहां के बच्चों में शिक्षा के स्तर को देखकर मन काफी दुखी हुआ। तभी ठान लिया कि इनके लिए कुछ करना है। उन्होंने बताया कि यहां बड़े बच्चे भी स्कूल जाने के बजाय कुछ काम करते थे या गलत संगत में थे। उनके मुताबिक शुरू में उन्हें यहां के लोगों को स्कूल में बच्चों को भेजने के लिए राजी करने में भी काफी मुश्किलें आई, लेकिन अब राहें कुछ आसान हुई हैं। पूर्णिमा बताती हैं कि माताएं अपने बच्चों की परवरिश को लेकर गंभीर हुई हैं लेकिन अभी भी उनके पास अपने बच्चों के लिए समय नहीं है।