कांग्रेस का शून्यकाल, कब सीखेंगे राहुल?
पिछले विधानसभा चुनावों में 'आप से सीखने' की बात कहने वाले कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी कब सीखेंगे? उन चुनावों के बाद कांग्रेस आधा दर्जन प्रदेशों में हारकर तीसरे नंबर की पार्टी बन चुकी है। हद तो ये कि दिल्ली, आंध्र प्रदेश व सिक्किम में पार्टी विधायक रहित हो गई है।
सीतेश द्विवेदी, नई दिल्ली। पिछले विधानसभा चुनावों में 'आप से सीखने' की बात कहने वाले कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी कब सीखेंगे? उन चुनावों के बाद कांग्रेस आधा दर्जन प्रदेशों में हारकर तीसरे नंबर की पार्टी बन चुकी है। हद तो ये कि दिल्ली, आंध्र प्रदेश व सिक्किम में पार्टी विधायक रहित हो गई है। लेकिन पार्टी को 'सोच से ज्यादा बदल देने' की बात कहने वाले राहुल न खुद बदले और न पार्टी को बदल सके। हां, कांग्रेस का बड़ा तबका बदलाव चाहता है। बड़े नेता उनको लेकर नापसंदगी के मौन के साथ, तो कार्यकर्ता 'प्रियंका लाओ कांग्रेस बचाओ' के मुखर नारे के साथ।
दिल्ली में कांग्रेस की हार राहुल की रणनीति की सबसे बुरी पराजय है। अपने प्रयोगों से कांग्रेस को असफलता के चौराहे पर ले आने वाले राहुल दिल्ली में पार्टी का चीर बचाने में भी नाकाम रहे। दिल्ली में हार से टूटी पार्टी को खड़ा कर रहे प्रदेश अध्यक्ष अरविंदर सिंह लवली को हटाकर राहुल ने अपने करीबी महासचिव अजय माकन को कमान तो दे दी, लेकिन वे असंतोष न थाम सके। नतीजा राजनीतिक भयावहता के साथ शून्य आया। पार्टी की इस हार के बाद राहुल बचाओ अभियान के तहत इस्तीफे-इस्तीफे का नाटक खेला गया। लेकिन, पहले से लिखी यह पटकथा संवेदना जगाने में भी नाकाम रही। इस बीच, पार्टी को बचाने के लिए प्रियंका को लाने की इलाहाबाद से उठी गुहार कांग्रेस मुख्यालय पर गूंजती दिखी।
हालांकि, कई साल पुराना जवाब कि यह उनकी इच्छा पर है, कहकर पार्टीने यह समझाने की कोशिश की कि यहां पार्टी का हित नहीं नेता की इच्छा बड़ी है। वहीं, हार को मोदी की हार से ढंकने की पार्टी की शुतुर्मुर्गी रणनीति राजनीतिक दिवालियेपन का नायाब नमूना बन कर रह गई। पार्टी प्रवक्ताओं को सुनकर ऐसा लगा कि मानो मोदी के अश्वमेध घोड़े को रोकने के लिए कांग्रेस ने जानबूझ कर कुर्बानी दी हो। इस बीच, आप मुखिया अरविंद केजरीवाल को बधाई देने की औपचारिकता निभाने वाले पार्टी आलाकमान ने अपने कार्यकर्ताओं को ढाढस भी बंधाने से परहेज किया। मानो ऐसा करने से हार का ठीकरा उनके सर आ जाएगा।
दरअसल, कांग्रेस असंतोष की परतों के नीचे दबी हुई है। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के फैसले न लेने और राहुल को लेकर उनके रवैये से। लोकसभा चुनावों के अंतिम वर्ष से लंबित संगठन में बदलाव अभी भी बाकी है। तो पार्टी उपाध्यक्ष की राजनीतिक शैली चुनाव दर चुनाव विध्वंसकारी साबित हो रही है। महासचिवों से नाराजगी कि उनमें से ज्यादातर दूसरी पार्टियों से आए हैं। प्रदेश अध्यक्षों से कि वे राज्यों से ज्यादा दिल्ली की राजनीति में व्यस्त रहते हैं। इन सबके बीच प्रियंका को लेकर उठने वाली कुछ आवाजें हैं। लेकिन, उनकी आमद राहुल के भाग्य को प्रभावित करती है। इसलिए पार्टी अभी प्रयोगवादी राहुल राजनीति के सहारे ही रास्ता तलाशेगी। शायद कांग्रेस अध्यक्ष ऐसा ही चाहती हैं, और कांग्रेस की नियति भी यही है।
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