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विकास बनाम महागठबंधन का विरोधाभास

बिहार में सभी राजनीतिक दल सपने बेच रहे हैैं। जो पच्चीस साल से सत्ता में हैं वो भी और जो सत्ता से बाहर हैं वे भी। माहौल पूरी तरह चुनावी है। रैलियों में जुटी भीड़ के सहारे ताकत आजमाने और दिखाने की कवायद भी शुरू है और आरोप-प्रत्यारोप भी

By Abhishek Pratap SinghEdited By: Published: Wed, 02 Sep 2015 04:03 AM (IST)Updated: Wed, 02 Sep 2015 04:09 AM (IST)
विकास बनाम महागठबंधन का विरोधाभास

प्रशांत मिश्र: बिहार में सभी राजनीतिक दल सपने बेच रहे हैैं। जो पच्चीस साल से सत्ता में हैं वो भी और जो सत्ता से बाहर हैं वे भी। माहौल पूरी तरह चुनावी है। रैलियों में जुटी भीड़ के सहारे ताकत आजमाने और दिखाने की कवायद भी शुरू है और आरोप-प्रत्यारोप भी चरम पर हैं। पर सबसे अहम यह है कि इन रैलियों का संदेश क्या है?

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तीन दिन पहले गांधी मैदान में नीतीश-लालू-सोनिया के महागठबंधन की पहली रैली कुछ सकारात्मक संदेश देने में सफल रही या फिर विरोधाभास या असहमति का स्वर और तीखा हो गया? तो यह सवाल भी लाजिमी हो गया कि राजग कितना एकजुट दिखा और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी विकास का मुद्दा स्पष्ट करने में कितना सफल रहे? फिलहाल यह तय हो चुका है विकास के केंद्रबिंदु से जो भी हटने की कोशिश करेगा वह छिटक कर हाशिए पर होगा।


बिहार की राजनीति में पटना के गांधी मैदान का खास महत्व है। थोड़ी देर से ही सही, भाजपा के खिलाफ बने महागठबंधन ने अपना चुनावी शंखनाद तो यहीं से किया, लेकिन थोड़ा चूक गए। दरअसल, संदेश और संकेत ही विरोधाभासी हो गए। महागठबंधन का चेहरा तो नीतीश कुमार बनाए गए हैं, लेकिन गांधी मैदान से यह संदेश देने में राजद ने कोई चूक नहीं की कि नेता लालू प्रसाद हैैं। सबसे आखिर में लालू प्रसाद के भाषण का कोई दूसरा अर्थ नहीं था। यह उस रणनीति का भी हिस्सा माना जा सकता है जिसके तहत यदुवंशी समुदाय को संकेत दिया जाना चाह रहे हैैं कि चेहरा कोई भी हो, नेता लालू हैैं।

लेकिन, इससे भी इन्कार नहीं किया जा सकता है कि इस संकेत का दूसरा पक्ष महागठबंधन के खिलाफ भी जा सकता है। परोक्ष रूप से यह संदेश नीतीश की उस छवि के लिए घातक है जिसके तहत वह अगले पांच वर्षों में 2 लाख 70 हजार करोड़ रुपये खर्च करने की बात कर रहे हैैं। बताते हैैं कि कांग्र्रेस भी इससे नाराज है कि जिस रैली में उसके अध्यक्ष को बुलाया गया वहां जाति की बात क्यों की गई।


दरअसल, इस विरोधाभास की नींव तो उसी दिन पड़ गई थी जब महागठबंधन में सीटोंं का बंटवारा हुआ था। 141 सीट पर लडऩे वाले नीतीश कुमार ने सौ सीटों तक आकर पहले ही यह संदेश दे दिया था कि उन्होंने अपना मैदान लालू के लिए खाली किया है। यह वही जदयू है जो पहले हर चुनाव में सहयोगी दल भाजपा के खाते से ही एक-दो सीट झटकने में सफल होता था। इस बार परोक्ष तौर पर सीटों के बंटवारे में भी लालू के हाथ कमान होने का संकेत जाता दिखाई दे रहा है।


दूसरी तरफ प्रधानमंत्री की चार रैलियों में न सिर्फ महागठबंधन की विचारधारा पर निशाना साधा गया, बल्कि हर रैली में इसका भी ध्यान रखा गया कि विकास का कुछ एजेंडा सामने रखा जाए। जबकि गांधी मैदान की महागठबंधन रैली में मौजूद नेता विकास से ज्यादा मोदी और भाजपा पर केंद्रित दिखे। राजग की ओर से यह बताने में भी कोताही नहीं हो रही है कि भाजपा के साथ रहते हुए जो नीतीश काल विकास के पायदान चढ़ता रहा वह एकबारगी कैसे फिसल गया? जिस काल में सामाजिक न्याय केंद्र बिंदु था वह एकबारगी दलितों के कठघरे में कैसे घिर गया।


राजग के पास जहां नीतीश और लालू काल की सत्ता विरोधी भावना को याद दिलाने का रास्ता है वहीं महागठबंधन नेताओं के पास इस विकल्प का भी अभाव है। विकास पैकेज पर राजनीति शुरू हुई है तो भागलपुर की रैली में प्रधानमंत्री ने यह पूछकर घेरा थोड़ा और कस दिया है कि अगले पांच साल के लिए अकेले केंद्र से ही बिहार को सवा पांच लाख करोड़ रुपये मिलने वाले हैं तो नीतीश का विकास पैकेज 2 लाख 70 हजार करोड़ से आगे क्यों नहीं बढ़ पा रहा है।

संभवत: अगले कुछ दिनों में चुनावी कार्यक्रम घोषित हो जाएं और चुनावी अभियान और सघन होकर बस्ती-बस्ती तक पहुंचे। यहां महागठबंधन नेताओं के सामने चुनौती होगी। नेतृत्व को स्थापित करने की चुनौती बहुत बड़ी होगी। क्योंकि एक ही मंच से विकास और जाति का नारा सफल होने की संभावना बहुत कम है।


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