चीन के चलते एक बार फिर खटाई में पड़ सकती है भारत की एनएसजी में दावेदारी
अगले महीने स्विट्जरलैंड की राजधानी बर्न में होने वाली बैठक में एनएसजी को लेकर जो भी नतीजे होंगे उससे भारत की कूटनीति पर अलग तरीके का असर पड़ेगा।
सुशील कुमार सिंह
आगामी जून महीने में स्विट्जरलैंड की राजधानी बर्न में परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह यानी एनएसजी देशों की बैठक होनी है जिसमें यह उम्मीद की जा रही है कि भारत की इस समूह में प्रवेश को लेकर एक बार फिर विचार किया जाएगा, लेकिन चीन का विरोध बरकरार रहने से मामला एक बार फिर खटाई में पड़ सकता है। बीजिंग भारत को इसकी सदस्यता न मिल पाए इसके लिए पहले से ही कई बहाने बनाता रहा है। चीन का यह राग अलापना कि एनएसजी नियमों के मुताबिक सदस्यता उन्हीं देशों को दी जानी चाहिए जिन्होंने परमाणु अप्रसार संधि पर हस्ताक्षर किए हैं। उसका यह भी मानना है कि भारत के साथ पाकिस्तान को भी छूट दी जाय, जबकि सच्चाई यह है कि भारत का परमाणु कार्यक्रम पाकिस्तान से कहीं अधिक सभ्य, पारदर्शी, जिम्मेदार और सौम्य रहा है।
अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस जैसे तमाम देश भारत के परमाणु कार्यक्रम के रिकॉर्ड को देखते हुए आज छूट देने के पक्षधर हैं, परंतु क्या यही बात पाकिस्तान के लिए कही जा सकती है। जाहिर है नहीं, लेकिन चीन पाकिस्तान परस्त है। लिहाजा वह उसका पक्ष ले रहा है। यह सच है कि उत्तर कोरिया और ईरान को चोरी-छिपे परमाणु सामग्री देने के चलते दुनिया की नजरों में पाकिस्तान का ट्रैक रिकॉर्ड खराब है। चीन भी इस बात को बखूबी जानता है, लेकिन बावजूद इसके वह अनभिज्ञ बना हुआ है।
देखा जाए तो भारत को दुनिया के चुनिंदा समूहों से बाहर रखने की कोशिश आज भी जारी है। अब फर्क यह है कि पहले पश्चिमी देश इस मामले में अव्वल थे और अब पड़ोसी चीन इस खेल में नंबर एक बना हुआ है। इसका एक मूल कारण यह भी है कि भारत की बढ़ती वैश्विक साख से चीन भयभीत और चिंतित है, क्योंकि एशियाई देशों में उसके एकाधिकार को भारत कहीं न कहीं चुनौती दे रहा है। 11974 में पोखरण परीक्षण होने के बाद उसी साल परमाणु क्लब से भारत को बाहर रखने के लिए एक परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह बनाया गया जिसमें अमेरिका, रूस, फ्रांस, पश्चिमी जर्मनी और जापान समेत विश्व के सात देश शामिल थे।
आज इस समूह में शामिल देशों की संख्या 48 हो गई है। इतना ही नहीं अस्सी के दशक में भारत के समेकित मिसाइल कार्यक्रम का सूत्रपात होने के बाद इस क्षेत्र में देश को भरपूर सफलता मिलने लगी तब भी इस पर विश्व की ओर से पाबंदी लगाने का पूरा इंतजाम किया गया। गौरतलब है कि 1997 में मिसाइल द्वारा रासायनिक, जैविक, नाभिकीय हथियारों के प्रसार पर नियंत्रण के उद्देश्य से विश्व के सात प्रमुख देशों ने एमटीसीआर यानी मिसाइल तकनीक नियंत्रण व्यवस्था का गठन किया। हालांकि जून, 2016 से भारत अब इसका 35वां सदस्य बन गया है, जबकि चीन अभी भी इससे बाहर है।
जाहिर है कि पहले दुनिया के तमाम देश नियम बनाते थे और भारत उसका अनुसरण करता था, परंतु यह बदलते दौर की बानगी ही कही जाएगी कि दुनिया के तमाम देश अब भारत को भी साथ लेना चाहते हैं। फलस्वरूप एक वर्ष पहले एमटीसीआर में भारत अपनी उपस्थिति दर्ज कराकर नियमों का अनुसरणकत्र्ता ही नहीं नियमों का निर्माता भी बन गया है। जाहिर है पिछले 13 वर्षो से चीन एमटीसीआर में शामिल होने के लिए प्रयासरत है, परंतु सफलता से अभी वह कोसो दूर है। हालांकि एनएसजी के मामले में अभी बात नहीं बन पाई है।
गौरतलब है कि एनएसजी में भारत के प्रवेश के लिए अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा ने एड़ी-चोटी का जोर लगा दिया था। आज चीन को छोड़ सभी एनएसजी में शामिल देश भारत को इसमें चाहते हैं। बहरहाल एनएसजी के मामले में अड़ंगा लगाने वाला चीन भले ही अपनी पीठ थपथपा ले, परंतु एमटीसीआर में भारत के प्रवेश के चलते यहां उसकी भी राह आसान नहीं है। हालांकि एनएसजी में न होने से भारत की क्षमता बहुत कम नहीं हो जाती है, पर इसके लाभ से वंचित रहने पर भविष्य में इसके सामने कुछ दिक्कतें आ सकती हैं।
स्विट्जरलैंड में एनएसजी को लेकर जो भी नतीजे होंगे उससे भारत की कूटनीति पर अलग तरीके का असर पड़ेगा। पिछले वर्ष प्रधानमंत्री मोदी की वैदेशिक नीति की आलोचना इस बात के लिए भी हुई थी कि एनएसजी के मामले में उनकी कूटनीति विफल हो गई है। एनएसजी की सदस्यता मिलना इस लिहाज से बड़ा होगा कि भारत परमाणु ऊर्जा के लिए कच्चा माल और तकनीक आसानी से प्राप्त कर सकेगा। ध्यान देने वाली बात यह है कि 2014 में जी-20 सम्मेलन के दौरान जब प्रधानमंत्री मोदी ऑस्ट्रेलिया में थे तभी यूरेनियम को लेकर एक बड़ा समझौता हुआ था।
दुनिया का 40 फीसद यूरेनियम ऑस्ट्रेलिया के पास है। अपने परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम को देखते हुए भारत ने मंगोलिया की ओर भी रुख किया है। सभी जानते हैं कि भारत सवा अरब की आबादी वाला देश है। यहां दो लाख से अधिक मेगावाट बिजली की जरूरत पड़ती है, जबकि एनटीपीसी, एनएचपीसी, सौर ऊर्जा समेत ऊर्जा के सभी आयामों से इतनी ऊर्जा नहीं मिल पाती है। ऐसे में परमाणु ऊर्जा की ओर रुख करना देश की मजबूरी भी है जिसके लिए ईंधन और तकनीक चाहिए और इसकी प्राप्ति के लिए एनएसजी की सदस्यता कहीं अधिक महत्वपूर्ण हो जाती है।
यह भी कहा जाता रहा है कि भारत एनपीटी यानी परमाणु अप्रसार संधि और सीटीबीटी यानी व्यापक परमाणु परीक्षण प्रतिबंध संधि पर बिना हस्ताक्षर के यह सुविधा चाहता है। दुनिया जानती है कि भले ही भारत परमाणु हथियार से संपन्न है और परमाणु अप्रसार संधि पर हस्ताक्षर नहीं किया है तब भी चीन को छोड़ सभी देश एनएसजी में उसका प्रवेश चाहते हैं। यह उसकी परमाणु नीति को लेकर शांतिप्रियता का ही नतीजा है, जबकि पाकिस्तान के बारे में दुनिया की सोच ठीक नहीं है। आतंकवाद को शरण देने वाले पाकिस्तान के परमाणु हथियार कब आतंकियों के हाथ लग जाएं इसको लेकर भी दुनिया सशंकित रहती है। 1साफ है कि भारत और पाकिस्तान में कोई मेल नहीं है।
भारत शांति का दूत है और उसकी सोच में केवल विकास है। ऐसे में यदि परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह में भारत को प्रवेश मिलता है तो इसकी स्थिति और सुदृढ़ हो जाएगी और कहीं कोई खतरा भी नहीं रहेगा। नि:संदेह एनएसजी में प्रवेश को लेकर भारत चिंतित है, पर इसका तात्पर्य यह नहीं कि इसके बगैर गुजारा नहीं है। चीन जिन इरादों के साथ भारत की राह में रोड़ा बनता आ रहा है इससे भी दुनिया के देश अनभिज्ञ नहीं हैं। कुल मिलाकर स्विट्जरलैंड में होने वाली बैठक में एनएसजी की सदस्यता भारत के लिए दूर की कौड़ी हो सकती है। फिलहाल यदि चीन एनएसजी की राह में रोड़ा बनता है तो उसकी असलियत एक बार फिर दुनिया के सामने उजागर होगी।
(लेखक वाईएस रिसर्च फाउंडेशन ऑफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन के निदेशक हैं)