चीन की चाल में फंसते छोटे देश, कहीं हो न जाएं बर्बाद
भारत के सभी पड़ोसी देश विशेष रूप से श्रीलंका, नेपाल बांग्लादेश और म्यांमार चीन की चालबाजी में फंसते नजर आ रहे हैं।
अरविंद जयतिलक
बीजिंग में संपन्न हुए ‘वन बेल्ट, वन रोड’ (ओआरओबी) शिखर सम्मेलन के जरिए चीन ने एशिया, अफ्रीका और यूरोप में अपनी आर्थिक ताकत बढ़ाने का दांव चल दिया है। भारत इस सम्मेलन में इसलिए शामिल नहीं हुआ कि प्रस्तावित परियोजना में पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर से गुजरने वाला चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा भी शामिल है। भारत का स्पष्ट कहना है कि पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर में उसकी इजाजत के बिना किसी तरह का निर्माण संप्रभुता का उल्लंघन है और यह परियोजना उसकी संप्रभुता का उल्लंघन कर रही है।
उधर, गिलगित-बाल्टिस्तान के लोग भी इस परियोजना को संदेह की दृष्टि से देख रहे हैं। महत्वपूर्ण बात यह भी कि भारत ने चीन की प्रस्तावित परियोजना के तहत दिए जाने वाले ऋण की अदायगी और ऊंचे ब्याज दर पर सवाल दागा है। गरीब देशों ने भारत के इस सवाल को गंभीरता से लिया है और उन्हें आभास भी हो रहा है कि इस परियोजना के मूर्त रूप लेने के बाद उनके बाजार चीनी उत्पाद से पट जाएंगे और और महंगे ऋण पर ब्याज दर चुकाना मुश्किल होगा।
भारत के इस तार्किक सवाल से चीन की बेचैनी बढ़ गई है और वह अपनी खीझ मिटाने के लिए परोक्ष रूप से भारत को धमकी देते हुए कहा है कि भविष्य में भारत यदि इस परियोजना का हिस्सा बनता है तो भी उसकी भूमिका छोटी होगी। बहरहाल, चीन चाहे जो भी दलील दे पर सच्चाई यही है कि उसकी इस अति महत्वाकांक्षी प्रायोजित योजना का मकसद महाद्वीपों को सड़कों और रेल मार्गो से जोड़कर अपने आर्थिक हितों का संवर्धन करना है। चीन का रिकॉर्ड रहा है कि वह बिना स्वार्थ के कोई काम नहीं उठाता। खासकर विदेशी निवेश को लेकर उसका रिकॉर्ड बेहद खराब रहा है।
दुर्भाग्यपूर्ण यह कि भारत के सभी पड़ोसी देश विशेष रूप से श्रीलंका, नेपाल बांग्लादेश और म्यांमार चीन की चालबाजी में फंसते नजर आ रहे हैं। दरअसल, चीन ने उन्हें भरोसा दिया है कि इस परियोजना से इन देशों को 1.1 अरब डॉलर टैक्स मिलेगा जिससे उनकी आय में इजाफा होगा। बेरोजगारी कम होगी और अर्थव्यवस्था को मजबूती मिलेगी। पर इन देशों को भान होना चाहिए कि चीन आर्थिक नियंत्रण स्थापित करने के बाद उनकी सत्ता में भी दखल दे सकता है। न्यू सिल्क रोड के नाम से जानी जाने वाली वन बेल्ट, वन रोड परियोजना के तहत छह आर्थिक गलियारे बन रहे हैं।
चीन इन आर्थिक गलियारों के जरिए जमीनी व समुद्री परिवहन का संजाल बिछा रहा है। ये छह आर्थिक गलियारे हैं-चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा, न्यू यूराशियन लैंड ब्रिज, चीन-मध्य एशिया पश्चिम एशिया आर्थिक गलियारा, चीन-मंगोलिया-रूस आर्थिक गलियारा, बांग्लादेश-चीन-म्यांमार आर्थिक गलियारा और चीन-इंडोचीन प्रायद्वीप आर्थिक गलियारा। यहां समझना होगा कि चीन अपनी इस प्रस्तावित परियोजना के जरिए दुनिया की 60 प्रतिशत आबादी यानी 4.4 अरब लोगों पर शिकंजा कसना चाहता है, न कि उसकी मंशा दुनिया का भला करने की है।
उसका मकसद दुनिया को जोड़ने की आड़ में 1000 अरब डॉलर की लागत से नए अंतरराष्ट्रीय मार्गो को आयाम देकर दुनिया भर के कच्चे माल तक अपनी पकड़ मजबूत करना है। अगर चीन इस परियोजना के मार्फत सड़कों, रेलवे और बंदरगाहों का संजाल बिछाने में कामयाब रहा तो नि:संदेह उसकी ऊर्जा ताकत और जीडीपी आसमान छुएगी। उल्लेखनीय है कि इन महाद्वीपों के साढ़े पांच दर्जन देशों को जोड़ने की मुहिम में चीन ने 2013 से अब तक साठ अरब डॉलर खर्च कर चुका है।
गौरतलब है कि जून 2016 में इस परियोजना पर चीन, मंगोलिया और रूस ने हस्ताक्षए किए थे। जिनइंग से शुरू होने वाला यह हाइवे मध्य पूर्वी मंगोलिया को पार करता हुआ मध्य रूस तक पहुंचेगा। इस योजना के तहत यूरोप पहले ही रेल से जुड़ चुका है। अब चीन की कोशिश सड़क मार्ग को प्रशस्त करना है। इस परियोजना के मुताबिक दस हजार किलोमीटर से लंबा रास्ता कजाखिस्तान तथा रूस से होता हुआ यूरोप पहुंचेगा। भारत के लिए चिंता की बात है कि यह परियोजना चीन को कश्मीर और पाकिस्तान के ग्वादर पोर्ट से जोड़ेगा। यह परियोजना इस बात का प्रमाण है कि चीन अपने आर्थिक-कूटनीतिक मकसद में अभी तक कामयाब है।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)