जानिए- कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के सामने अब क्या होगी चुनौतियां
कांग्रेस के 132 साल के इतिहास पर गौर किया जाए तो वह इस समय अपने सबसे कमजोर मुकाम पर खड़ी है। इसीलिए पार्टी अध्यक्ष के रूप में राहुल गांधी का सफर लगभग शून्य पर खड़ी कांग्रेस के मुखिया के तौर पर शुरू हुआ है।
नई दिल्ली (ब्यूरो)। राजनीति में फर्श से अर्श या अर्श से फर्श तक पहुंचने की दास्तान कोई नई नहीं है। मगर देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस की बीते डेढ़ दशक में फर्श पर आने की गति इतनी तेज रही है कि आज उसके राजनीतिक वजूद पर ही सवाल खड़े हो रहे हैं। लोकतंत्र में मजबूत विपक्ष की अनिवार्य जरूरत को देखते हुए कांग्रेस के मौजूदा हाल को लेकर देश के लोगों को भी चिंता है। पार्टी के नाजुक हालात में राहुल गांधी ने अध्यक्ष पद की कमान संभाली है। स्वाभाविक रूप से उनकी चुनौतियां अपने पूर्ववर्तियों से कहीं ज्यादा बड़ी हैं।
लगभग शून्य पर खड़ी कांग्रेस के मुखिया बने राहुल
कांग्रेस के 132 साल के इतिहास पर गौर किया जाए तो वह इस समय अपने सबसे कमजोर मुकाम पर खड़ी है। इसीलिए पार्टी अध्यक्ष के रूप में राहुल गांधी का सफर लगभग शून्य पर खड़ी कांग्रेस के मुखिया के तौर पर शुरू हुआ है। उनके सामने पार्टी को फिर से शिखर पर ले जाने की बड़ी चुनौती है। जाहिर तौर पर इस हालात को बदलने के लिए उनको पुराने ढर्रे की राजनीति और सोच दोनों में बड़े बदलाव करने होंगे। कांग्रेस को बदलने की जरूरत और इरादे तो राहुल ने बीते 13 सालों में बार-बार जाहिर किए। मगर पार्टी की शैली और चिंतन को बदलने की अपनी सोच को राहुल इन सालों में कोई स्वरूप नहीं दे सके। पार्टी के शीर्ष ढांचे में जमीनी कार्यकर्ताओं को मौका देने से लेकर जनता की नब्ज थामते हुए सियासत को आगे बढ़ाने का उनका इरादा भी फलीभूत नहीं हुआ। इसी का नतीजा रहा कि दस सालों तक सत्ता में रहने के बाद कांग्रेस 2014 में फर्श पर गिरी तो उसकी हैसियत लोकसभा में आधिकारिक विपक्ष तक की भी नहीं रह गई। हालांकि, संप्रग के सत्ता में होने और कांग्रेस में नंबर दो की हैसियत के चलते उनके पास ऐसा कुछ कर दिखाने की गुंजाइश थी।
बदलाव को मूर्त रूप नहीं दे पाने के लिए राहुल ने अब तक सारा दोष राजनीतिक सिस्टम पर मढकर अपना दामन बचाया है। पार्टी में बदलाव के लिए राहुल के पास अब यह बहाना भी नहीं बचेगा, क्योंकि वे अब सर्वेसर्वा हैं। हालांकि, उनकी चुनौती पहले से भी ज्यादा गंभीर है। राहुल ने अपने राजनीतिक विजय की बात शुरू की थी तो केंद्र और डेढ़ दर्जन से अधिक राज्यों मे कांग्रेस की सरकारें थीं। आज पार्टी पांच राज्यों (पंजाब, हिमाचल, कर्नाटक, मेघालय और मिजोरम) की सत्ता तक सिमट कर रह गई है। राहुल को इस चुनौती का अहसास है। इसका संकेत उन्होंने अपने पहले अध्यक्षीय भाषण में दिया भी है। पार्टी कैडर और नेताओं की ताकत के सहारे इस दौर से बाहर आने की उम्मीद और दृढ़ता दोनों दिखाई। मगर इसको हकीकत में तब्दील करने की राजनीतिक सोच और नयापन दोनों की कोई झलक नहीं दी।
उनके भाषण में भाजपा और उसके नेतृत्व पर दिखाई दिया क्रोध भी कुछ ऐसा था जैसा किसी राजा का राजपाट छिन जाने पर होता है। राजनीति में प्रतिस्पर्धा और प्रतिद्वंद्विता को घृणा और हिंसा के रूप में चित्रित कर सियासी वार तो किया जा सकता है मगर इससे जमीनी हकीकत को बदला नहीं जा सकता। राहुल और कांग्रेस को यह समझने की जरूरत है कि उनकी पार्टी का सामना बेहद शक्तिशाली होकर उभरी भाजपा से है और उनकी पार्टी नरेंद्र मोदी के उदय काल से पहले वाली कांग्रेस भी नहीं है। पार्टी खुद कुछ समय से अनुभव कर रही है कि सरोकार की राजनीति करने का दावा करने के बावजूद हाल के वर्षों में जनता से उसका जुड़ाव कमजोर पड़ गया है। खासकर युवा पीढ़ी में कांग्रेस की राजनीतिक प्रासंगिकता को लेकर गहरे सवाल हैं। राहुल इन सवालों के ठोस जवाब और स्पष्ट विजन के साथ युवा वर्ग को अपने साथ जब तक नहीं जोड़ते तब तक कांग्रेस की राजनीतिक वापसी की राह शायद ही बनेगी।
विपक्षी नेतृत्व के लिए राहुल अभी तय नहीं : लालू
राहुल गांधी के कांग्रेस अध्यक्ष बनने का स्वागत करते हुए राजद प्रमुख लालू प्रसाद ने साफ किया है कि 2019 का चुनाव विपक्ष राहुल के ही नेतृत्व में लड़ेगा, यह अभी तय नहीं है। इस बारे में समय पर फैसला होगा। लालू ने राहुल को सलाह दी कि उन्हें विपक्षी एकता के लिए पहल करनी चाहिए। बड़ी जिम्मेदारी मिली है। अब इस पर उन्हें खरा उतरना होगा। उन्होंने कहा कि विपक्ष के नेतृत्व का फैसला समय आने पर होगा। राजनीति में कोई भी बात हवा में नहीं होती है। भाजपा के खिलाफ देश में मजबूत राजनीतिक विकल्प के लिए राहुल को सभी दलों से बात करनी चाहिए।
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