भाजपा के दलित कार्ड में उलझी मायावती, सशर्त समर्थन को तैयार
भाजपा विरोधी मोर्चे की पैरोकारी करने वाली मायावती का कहना है कि विपक्ष की की ओर से कोविंद से अधिक काबिल और लोकप्रिय दलित प्रत्याशी नहीं उतारा गया तो बसपा का रूख सकारात्मक रहेगा।
लखनऊ(जेएनएन)। दलित वोटबैंक को बचाए रखने की मजबूरी ने बहुजन समाज पार्टी सुप्रीमो मायावती के तेवर नरम किए है। सियासी संकट से गुजर रही मायावती को न उगलते बन रहा है और न निगलते। राष्ट्रपति पद के लिए भाजपा के उम्मीदवार रामनाथ कोविंद को सशर्त समर्थन बसपा प्रमुख की राजनीतिक बाध्यता बन गया है। दलित विरोधी होने का ठपा लेने की घबराहट ने मायावती को बैकफुट पर ला दिया। कल तक भाजपा विरोधी मोर्चे की पैरोकारी करने वाली मायावती का कहना है कि विपक्ष की की ओर से कोविंद से अधिक काबिल और लोकप्रिय दलित प्रत्याशी नहीं उतारा गया तो बसपा का रूख सकारात्मक रहेगा।
बसपा प्रमुख बोली-इनसे अधिक काबिल उम्मीदवार आए तो फैसला बदले
राष्ट्रपति पद के लिए भाजपा द्वारा रामनाथ कोविंद को प्रत्याशी घोषित करने का बसपा प्रमुख मायावती ने खुले तौर पर समर्थन तो नहीं किया परंतु दलित होने के नाते सकारात्मक रूख का संकेत दिया। सोमवार को कोविंद के नाम की घोषणा होने के तीन घंटे के भीतर ही मायावती ने प्रेस को जारी बयान में भाजपा अध्यक्ष अमित शाह व केंद्रीय मंत्री वेंकैया नायडू द्वारा टेलीफोन पर वार्ता का हवाला भी दिया। उन्होंने रामनाथ कोविंद के दलित वर्ग से होने का समर्थन किया उनकी जाति कोरी का जिक्र भी किया। इतना ही कोरी जाति की संख्या पूरे देश में कम होने की बात भी कही।
बसपा प्रमुख ने कोविंद के आरएसएस व भाजपा से जुड़े होने पर भी असहमति जतायी। मायावती ने अपने एतराज जताने के साथ कोविंद के पक्ष में अपना रूख सकारात्मक रखने की घोषणा की। उनका कहना है कि एनडीए प्रत्याशी दलित होने के नाते बसपा का स्टैंड नकारात्मक नहीं हो सकता। बशर्ते विपक्ष द्वारा कोविंद से काबिल व लोकप्रिय दलित प्रत्याशी चुनाव मैदान में नहीं उतारा जाता। उन्होंने भाजपा नेतृत्व को सलाह भी दी कि इस पद के लिए दलित वर्ग से कोई गैर राजनीतिक व्यक्ति को आगे किया जाता तो ज्यादा बेहतर होगा।
कोविंद को लेकर बहुजन समाज पार्टी की मुखिया मायावती का नरम रूख यूं नहीं है। नब्बे के दशक से प्रदेश में दलित वोटों की एकजुटता के सहारे ही चार बार मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंची बसपा का ग्राफ तेजी से गिरता जा रहा है। गिरावट वर्ष 2012 से शुरू हुई। वर्ष 2007 में बहुमत की सरकार बनाने वाली बसपा 2012 में मात्र 80 सीटों पर सिमट गयी। गिरते ग्राफ का सिलसिला यहीं खत्म नहीं हुआ। गत लोकसभा चुनाव में भी बसपा कोई सीट नहीं जीत सकी।
फिसलते दलित वोट : मोदी मैजिक के चलते बसपा का दलित वोट बैंक तेजी से खिसका। वर्ष 2014 के लोकसभा और वर्ष 2017 के विधानसभा चुनाव में बसपा अर्श से फर्श पर आ गयी। मायावती की चिंता है कि दलित बाहुल्य क्षेत्रों से भी बसपा साफ होती जा रही है। सोशल इंजीनियरिंग फेल होने से पिछड़े व अति पिछड़े वर्ग की वोटों ने भी किनारा किया। एक एक कर अधिकतर पिछड़े वर्ग के बड़े नेताओं ने बगावत कर बसपा को झटका दिया। दलित सियासत के जानकार डा. चरण सिंह लिसाड़ी कहते है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता ने दलितों में मायावती का एकाधिकार खत्म किया है। खासकर युवाओं को मायावती के क्रियाकलाप और धन आधारित राजनीति से ऊब होने लगी है।
दलित- मुस्लिम समीकरण भी फेल : गत विधानसभा चुनाव में बसपा दलित-मुस्लिम गठजोड़ के सहारे मैदान में उतरी परंतु मात्र 19 सीटों पर सिमट कर रह गई। सर्वाधिक मुस्लिम प्रत्याशी उतारने के बाद मुसलमानों के अपेक्षित वोट बसपा को नहीं मिल सके। दलितों के एक वर्ग तक ही सिमटना बसपा के लिए बड़ी चुनौती बना है। दलित वोटों की मची जंग में बसपा का पूरा जोर दलितों में बिखराव रोकने पर लगा है।
भीम आर्मी का उभार, दलित विरोधी ठपा लगने की फिक्र : विपक्षी दलों के हमलों के अलावा दलितों में भी मायावती का विरोध दिखने लगा है। बसपा से अलग हुए दलित नेताओं का मिशन बचाओ अभियान ने भी मायावती की नींद उड़ा रखी है। सहारनपुर प्रकरण में भीम आर्मी का तेजी उभार और युवाओं में बढ़ती लोकप्रियता भी बसपा के लिए चुनौती बना है। ऐसे हालात में दलित विरोधी का ठपा लगने सेबचने को बसपा प्रमुख के सुर बदले है।