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कथा फिर कथक से बहलाया दरबार का मन

पिछले दिनों ग्रेटर नोएडा के अल्फा-2 में एक शतचंडी कार्यक्रम में शिरकत करने आए बिरजू महाराज जी से उनके जीवन के कई अनछुए पहलुओं पर दैनिक जागरण के ब्यूरो प्रमुख रमेश मिश्र ने बेबाक बातचीत की। पेश है उसके प्रमुख अंश - आप बृज मोहन मिश्र से बिरजू महाराज कैसे बन गए? यह संगीत घराने की परंपरा है। एक नाम संस्कार से

By Anjani ChoudharyEdited By: Published: Mon, 06 Oct 2014 05:26 PM (IST)Updated: Mon, 06 Oct 2014 05:28 PM (IST)
कथा फिर कथक से बहलाया दरबार का मन

पिछले दिनों ग्रेटर नोएडा के अल्फा-2 में एक शतचंडी कार्यक्रम में शिरकत करने आए बिरजू महाराज जी से उनके जीवन के कई अनछुए पहलुओं पर दैनिक जागरण के ब्यूरो प्रमुख रमेश मिश्र ने बेबाक बातचीत की। पेश है उसके प्रमुख अंश -

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आप बृज मोहन मिश्र से बिरजू महाराज कैसे बन गए?

यह संगीत घराने की परंपरा है। एक नाम संस्कार से मिला और एक कर्म से मिला। संस्कार का नाम समय के साथ दब गया और कर्म का नाम कर्म की गति के साथ आगे बढ़ गया। अब तो बृज मोहन मिश्र जानने वाले ही थोड़े से लोग बचे हैं। मैंने अपने बहुत कम उम्र में कैरियर की शुरुआत की। उस वक्त मैं मात्र छह साल का था, मेरी नृत्य कला को देख बड़े बुजुर्गो ने प्यार से बिरजू कहना शुरू कर दिया और समय के साथ यह नाम रूढ़ हो गया।

आपको कथक नृत्य की शिक्षा कहां से मिली?

यह तो विरासत में मिली है। यह कई पीढि़यों से चला आ रहा एक कर्म है, एक तपस्या है। यह हमारी वंश परंपरा है। हमारे वंशज तो राज दरबार से जुड़े लोग थे। हम कह सकते हैं कि हम लोग दरबारी लोग थे। पहले हिंदू राजा के दरबार में हमारे पूर्वज कथा सुनाया करते थे, बाद में मुगलिया काल तक आते-आते यह कथा की विधा कथक नृत्य में तब्दील हो गई।

लेकिन आपने कोई तो गुरु बनाया होगा?

मैंने कथक की तकनीकी शिक्षा पिता और चाचा से ग्रहण की। चाचा लच्छू महाराज जी अपने समय के एक बड़े कलाकार थे। उन्होंने बालीवुड में बड़ी फिल्मों जैसे पाकीजा, तीसरी कसम, मुगल-ए-आजम आदि फिल्मों में नृत्य का निर्देशन किया। मीना कुमारी और मधुबाला उनकी शागिर्द रहीं। हमारे पिता श्री दुर्गा प्रसाद मिश्र जी रामपुर राजा के दरबार में थे। उनसे काफी कुछ सीखने को मिला। हमने छह वर्ष की उम्र से रामपुर दरबार में नृत्य किया। हालांकि पिता ने बहुत कम उम्र में साथ छोड़ दिया और फिर जीवन में संघर्ष का एक नया दौर शुरू हुआ।

पिता के नहीं रहने पर कथक का सिलसिला कैसे आगे बढ़ा

यह हमारे लिए और परिवार के लिए संघर्ष का दौर था। बहुत मुश्किलों का समय था। बहुत छोटी उम्र में हमने न केवल एक पिता खोया, बल्कि एक गुरु भी खो दिया था। किसी तरह जीवन खिसक रहा था। 14 वर्ष की उम्र में मुझे मंडी हाउस स्थित कथक केंद्र में नौकरी मिल गई। इसके बाद जीवन धीर-धीरे पटरी पर लौटने लगा।

आपको किस उम्र में ख्याति मिली, यूं कहा जाए कि आपके नृत्य को पहचान कब मिली

छह साल की उम्र में मैंने घरेलू और बैठकों में कथक करना शुरू कर दिया था। उस जमाने में कलकत्ता [अब, कोलकाता] में मनमतुनाथ घोष के यहां बड़ी कांफ्रेंस हुआ करती थी। यहां देश के श्रेष्ठ और प्रतिष्ठित कलाकारों का जमावाड़ा लगा करता था। यहां हमारे पिता और चाचा नृत्य कर चुके थे। 14 वर्ष की उम्र में मुझे भी यहां नृत्य के प्रदर्शन का मौका मिला। यहां के प्रदर्शन ने एक ही रात में मुझे हीरो बना दिया। इस प्रदर्शन की धूम मुंबई तक पहुंची। यह कार्यक्रम हमारे लिए जिंदगी का एक निर्णायक मोड़ था।

दरबारी संस्कृति में कथक के विकास को क्या गति मिली

देखिए, मेरे पूर्वज दरबारी थे। वह नवाब वाजिद अली के दरबार में रहा करते थे। मैं दावे से कह सकता हूं कि इस युग में कथक के विकास को एक नई गति मिली। कथक को राज्य यानी सुल्तान या बादशाह का संरक्षण प्राप्त था। ऐसे में लाजमी था कि कथक या नृत्य का विकास तेजी से हो।

इन छह दशकों में कथक शैली में किस तरह का बदलाव आया है?

मैं तो अच्छा बदलाव महसूस करता हूं। तकनीकी विकास से निश्चित रूप से से नृत्य कला और भी संपन्न हुई है। शास्त्रीय नृत्य के प्रति लोगों का रुझान और तेजी से बढ़ा है। इसमें नित नए-नए प्रयोग किए जा रहे हैं। हां, आज दरकार इस बात की है इसका इस्तेमाल बहुत संभलकर व सावधानी से किया जाए। हमें नृत्य या संगीत की मूल भावना से छेड़छाड़ नहीं करना चाहिए।

प्रस्तुति या प्रभाव में गायन या नृत्य में कौन सी विधा ज्यादा शक्तिशाली है?

गायन और नृत्य दोनों संगीत की दो अलग-अलग विधा भले हो पर इसकी आत्मा एक है। इसका रस एक है। यह एक तत्व है। अगर दर्शन में समझाएं, तो यह द्वैत नहीं, अद्वैत दर्शन है। सच यह है कि जो संगीत जानता है वह इस रस को समझता है। यह संगीत चाहे गले से सूर के रूप में प्रस्फुटित हो या फिर शरीर के किसी अंग में थिरके, उसे संगीत के तत्व को समझने वाला जरूर महसूस करता है। मेरा मानना है कि असल कलाकार तो वही है, जो इस आत्मा की आवाज को सुने।

गुरु-शिष्य की परंपरा में एक बड़ी गिरावट आई है, आप सहमत हैं?

जी बिल्कुल गिरावट आई है। गुरु-शिष्य परंपरा में भी बाजारवाद हावी है। अब न उस तरह के गुरु हैं और न ही शिष्य। कोई कामचलाऊ गुरु है तो कोई कॉर्मिशयल गुरु है, जबकि गुरु-शिष्य परंपरा में आत्मा का मिलन होना अत्यंत जरूरी है। यही तत्व इसे आगे तक ले जाता है।

आपके सबसे प्रिय शिष्य कौन हैं?

एक लंबी सूची शिष्यों की है। सब प्रिय हैं। मेरे शिष्यों में बंगालियों की तादाद ज्यादा है। माधुरी देवी और कमल हासन जैसे नामी लोग भी सूची में शामिल हैं। लेकिन मेरा सबसे प्रिय शिष्य सास्वती सेन हैं।

ब्रज मोहन मिश्र के मन में बिरजू महाराज के प्रति कितना सम्मान है?

बिरजू महाराज की मैं खुद बहुत कदर करता हूं। उन्हें प्रणाम करता हूं। क्योंकि जिस कर्म और तपस्या की वजह से बृज मोहन मिश्र बिरजू बन गया वह नमन के योग्य है। इसलिए इस तपस्या को मैं खुद सलाम करता हूं।

बिरजू बनने के लिए क्या करना पड़ता है?

बिरजू कभी गति की ओर नहीं भागा। वह कर्म करता रहा और संगीत के प्रति साधना करता रहा। गुरु के प्रति अगाध आस्था थी। गुरु ने जो भी सिखाया उसका निष्ठुरता के साथ अभ्यास करता रहा। समय के साथ उसके समर्थकों ने उसे आंखों में बिठाया और बिरजू महाराज बना दिया।

आपको भारत रत्‍‌न कब मिल रहा है?

यह ईश्वर की कृपा पर निर्भर है। उनकी कृपा होगी, तो जरूर मिलेगा। 27 वर्ष की अवस्था में अकादमी पुरस्कार मिला। 1984 में पद्म विभूषण सम्मान से तत्कालीन राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह ने सम्मानित किया।


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