इंदिरा गांधी ने वंचितों और पिछड़ों के लिए काम कियाः सोनिया गांधी
पूर्व प्रधानमंत्री इन्दिरा गाँधी का जन्म 19 नवम्बर 1917 को राजनीतिक रूप से प्रभावशाली नेहरू परिवार में हुआ था।
नई दिल्ली/इलाहाबाद (एजेंसी)। पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की आज 100वीं जयंती हैं। इस अवसर पर पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी, पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने शक्ति स्थल जाकर इंदिरा गांधी को श्रद्धांजलि अर्पित की। पूर्व प्रधानमंत्री की जन्मशताब्दी पर कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने उन्हें याद किया। उन्होंने कहा, 'इंदिरा जी भारत आयरन लेडी थीं। उन्होंने वंचितों और पिछड़ों के लिए काम किया। उन्हें धर्मनिरपेक्षता पर विश्वास था।'
Delhi: Former PM Manmohan Singh and Congress VP Rahul Gandhi pay tribute to #IndiraGandhi on her birth anniversary pic.twitter.com/Gncpb2CJoa
— ANI (@ANI) November 19, 2017
पूर्व प्रधानमंत्री इन्दिरा गाँधी का जन्म 19 नवम्बर 1917 को राजनीतिक रूप से प्रभावशाली नेहरू परिवार में हुआ था। इनके पिता जवाहरलाल नेहरू और इनकी माता कमला नेहरू थीं। इन्दिरा गाँधी (19 नवंबर 1917-31 अक्टूबर 1984) वर्ष 1966 से 1977 तक लगातार 3 पारी के लिए भारत गणराज्य की प्रधानमन्त्री रहीं और उसके बाद चौथी पारी में 1980 से लेकर 1984 में उनकी राजनैतिक हत्या तक भारत की प्रधानमंत्री रहीं। वे भारत की प्रथम और अब तक एकमात्र महिला प्रधानमंत्री रहीं।
इंदिरा मैराथन-क्रास कंट्री में 11 हजार धावक
इलाहाबाद में रविवार को पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी जयंती पर होने वाली 33वीं अखिल भारतीय प्राइजमनी इंदिरा मैराथन और क्रास कंट्री दौड़ में 11 हजार धावक दौड़ेंगे। सुबह 6.30 बजे आनंद भवन से मैराथन और क्रास कंट्री शुरू होगी। दोपहर में ढाई बजे मदन मोहन मालवीय स्टेडियम में खिलाडिय़ों को सम्मानित किया जाएगा।
इन्दिरा को उनका "गांधी" उपनाम फिरोज़ गाँधी से विवाह के पश्चात मिला था। इनका मोहनदास करमचंद गाँधी से न तो खून का और न ही शादी के द्वारा कोई रिश्ता था। इनके पितामह मोतीलाल नेहरू एक प्रमुख भारतीय राष्ट्रवादी नेता थे। इनके पिता जवाहरलाल नेहरू भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन के एक प्रमुख व्यक्तित्व थे और आज़ाद भारत के प्रथम प्रधानमंत्री रहे।
1934–35 में अपनी स्कूली शिक्षा पूरी करने के पश्चात, इन्दिरा ने शान्तिनिकेतन में रवीन्द्रनाथ टैगोर द्वारा निर्मित विश्व-भारती विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया। रवीन्द्रनाथ टैगोर ने ही इन्हे "प्रियदर्शिनी" नाम दिया था। इसके पश्चात यह इंग्लैंड चली गईं और ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय की प्रवेश परीक्षा में बैठीं, परन्तु यह उसमे विफल रहीं और ब्रिस्टल के बैडमिंटन स्कूल में कुछ महीने बिताने के पश्चात, 1937 में परीक्षा में सफल होने के बाद इन्होने सोमरविल कॉलेज, ऑक्सफोर्ड में दाखिला लिया। इस समय के दौरान इनकी अक्सर फिरोज़ गाँधी से मुलाकात होती थी, जिन्हे यह इलाहाबाद से जानती थीं और जो लंदन स्कूल ऑफ इकॉनॉमिक्स में अध्ययन कर रहे थे। अंततः 16 मार्च 1942 को आनंद भवन, इलाहाबाद में एक निजी आदि धर्म ब्रह्म-वैदिक समारोह में इनका विवाह फिरोज़ से हुआ। ऑक्सफोर्ड से वर्ष 1941 में भारत वापस आने के बाद वे भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन में शामिल हो गयीं।
1950 के दशक में वे अपने पिता के भारत के प्रथम प्रधानमंत्री के रूप में कार्यकाल के दौरान गैरसरकारी तौर पर एक निजी सहायक के रूप में उनके सेवा में रहीं। अपने पिता की मृत्यु के बाद सन् 1964 में उनकी नियुक्ति एक राज्यसभा सदस्य के रूप में हुई। इसके बाद वे लालबहादुर शास्त्री के मंत्रिमंडल में सूचना और प्रसारण मत्री बनीं।
लालबहादुर शास्त्री के आकस्मिक निधन के बाद तत्कालीन काँग्रेस पार्टी अध्यक्ष के. कामराज इंदिरा गांधी को प्रधानमंत्री बनाने में निर्णायक रहे। गाँधी ने शीघ्र ही चुनाव जीतने के साथ-साथ जनप्रियता के माध्यम से विरोधियों के ऊपर हावी होने की योग्यता दर्शायी। वह अधिक बामवर्गी आर्थिक नीतियाँ लायीं और कृषि उत्पादकता को बढ़ावा दिया। 1971 के भारत-पाक युद्ध में एक निर्णायक जीत के बाद की अवधि में अस्थिरता की स्थिती में उन्होंने सन् 1975 में आपातकाल लागू किया। उन्होंने एवं काँग्रेस पार्टी ने 1977 के आम चुनाव में पहली बार हार का सामना किया। सन् 1980 में सत्ता में लौटने के बाद वह अधिकतर पंजाब के अलगाववादियों के साथ बढ़ते हुए द्वंद्व में उलझी रहीं जिसमे आगे चलकर सन् 1984 में अपने ही अंगरक्षकों द्वारा उनकी राजनैतिक हत्या हुई।
एक निडर नेता-इंदिरा गांधी
इंदिरा गांधी का स्मरण करते हुए मुझे वह वक्त याद आता है जब कांग्रेस पार्टी पूरी तरह निराशा से घिरी थी। इसके बावजूद वह हार मानने को तैयार नहीं थीं। उनके अंदर संघर्ष करने की पर्याप्त क्षमता थी। जनता पार्टी की सरकार ने श्रीमती गांधी और उनके बेटे संजय गांधी पर न्यायिक मामलों की अतिरिक्त बौछार कर दी थी। यह 1978 का दौर था। उसी समय उनकी ओर से मुझे दिल्ली आने का बुलावा भेजा गया। मैंने कुछ ही समय पहले अपनी राजनीतिक यात्रा शुरु की थी। बहुत ही कम समय में संजय गांधी जी से मेरे भाईचारे के रिश्ते बन गए थे। श्रीमती गांधी से भी आत्मीयता और मातृत्व प्रेम प्राप्त होने लगा था। दिल्ली आने पर श्रीमती गांधी ने बिना किसी भूमिका के मेरे और संजय गांधी के समक्ष स्पष्ट किया कि वह एक और संघर्ष के लिए तैयार हैैं और इस संघर्ष में किसी भी कीमत पर हारना नहीं है। उत्तर प्रदेश यूथ कांग्रेस के अध्यक्ष के रूप में मुझे संगठन के माध्यम से श्रीमती गांधी को प्रताडि़त करने के उद्देश्य से चलाए गए मामलों के खिलाफ पूरे प्रदेश में अभियान चलाकर विरोध-प्रदर्शन कराने की जिम्मेदारी सौंपी गई। अगले 18 महीनों हमने जनता पार्टी सरकार के खिलाफ जी जान से सड़कों पर लड़ाई लड़ी।
सही समय पर उठाया गया कदम जीवन और विशेषत: राजनीति में बहुत महत्वपूर्ण होता है और किसी कदम को उठाने का उचित समय कौन है, इस मामले में श्रीमती गांधी को महारथ हासिल थी। जनता पार्टी के सरकार के खिलाफ आंदोलन शुरू करने से पहले सही समय का इंतजार करना श्रीमती गांधी जैसे दूरदर्शी व्यक्तित्व के लिए ही संभव था। उनकी इस दूरदर्शिता और निर्णय लेने की क्षमता का लाभ देश को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी मिला।
1960 के दशक में भारत को चीन और पाकिस्तान की आक्रामकता का सामना करना पड़ा, फिर भी वह देश को युद्ध की तरफ नहीं ले गईं, लेकिन जब पाकिस्तान के साथ युद्ध अपरिहार्य हो गया तो उन्होंने सेना को पर्याप्त आपूर्ति सुनिश्चित की, अंतरराष्ट्रीय सहायता जुटाई और राष्ट्र को युद्ध के लिए तैयार किया।
1962 के अपमान और 1965 के गतिरोध के बाद 1971 की विजय ने राष्ट्रीय मनोबल को बढ़ाकर एक बड़ी राहत प्रदान की। जिस दौर में फोनबुक, व्हाट्सएप्प, फेसबुक आदि का कहीं नामोनिशान नहीं था तब श्रीमती गांधी ने एक प्रभावी नेटवर्क ब्लाक स्तर से लेकर प्रधानमंत्री सचिवालय तक स्थापित कर लिया था। इसके जरिये वह सरकार की नीतियों और कार्यक्रमों पर लोगों की प्रतिक्रिया लेती थीं। उन्होंने स्वयं का फीडबैक तंत्र बना लिया था। लोग उन्हें लौह इच्छाशक्ति वाली महिला के रूप में याद करते हैैं, जिनका पार्टी के भीतर या बाहर कहीं कोई विरोध नहीं था। उन्होंने जिस समय देश की बागडोर संभाली वह आजादी के बाद का सबसे कठिन दौर था। 1967 के चुनाव के पहले एक विदेशी पर्यवेक्षक ने लिखा था कि भारत संसदीय लोकतांत्रिक प्रयोग को अस्वीकार करने के लिए भावनात्मक तत्परता में है। तब गंभीर संकट इसलिए था, क्योंकि कुछ ही समय के अंतराल में देश दो प्रधानमंत्री खो चुका था।
बीते चार साल में दो युद्ध भी झेल चुका था। आंतरिक स्तर पर देश भूख के कगार पर था और ङ्क्षहसक अशांति का सामना कर रहा था। ऐसे कठिन समय इंदिरा जी ने अपने राजनीतिक कौशल और निर्णय लेने की अद्भुत क्षमता के बल पर देश को संकट से बाहर निकाला। आज उनके इन्हीं गुणों की प्रशंसा उनकी महानता का प्रमाण है। मुझे गर्व हैै कि मैंने उन्हें अपना लीडर माना।
[ लेखक डॉ. संजय सिंह, कांग्रेस के राज्यसभा के सदस्य हैैं ]