बड़ी लड़ाई में गुम हो गए छोटे दल
सूबे में हर लोकसभा क्षेत्र में छोटे दलों के औसत चार-पांच उम्मीदवार ताल ठोंक रहे हैं, लेकिन बड़ी लड़ाई में वह गुम से हो गए हैं। दरअसल, यूपी के इस छोर से उस छोर तक चुनावी मुद्दा मोदी हैं और हवा भी उनके पक्ष और विपक्ष में ही बनाई जा रही है। शायद यही वजह है कि छोटे सूरमाओं की ओर हर बार की अपेक्षा कम ध्यान
लखनऊ, [आनन्द राय]। सूबे में हर लोकसभा क्षेत्र में छोटे दलों के औसत चार-पांच उम्मीदवार ताल ठोंक रहे हैं, लेकिन बड़ी लड़ाई में वह गुम से हो गए हैं। दरअसल, यूपी के इस छोर से उस छोर तक चुनावी मुद्दा मोदी हैं और हवा भी उनके पक्ष और विपक्ष में ही बनाई जा रही है। शायद यही वजह है कि छोटे सूरमाओं की ओर हर बार की अपेक्षा कम ध्यान है। वैसे भी अब तक इन्हें वोटकटवा की भूमिका में ही देखा जाता रहा है, इसलिए मतदाताओं के धु्रवीकरण के खेल में इनकी भूमिका धीरे-धीरे दर्शक की होती जा रही है।
विधानसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में दो सौ से ज्यादा छोटे दलों ने किस्मत आजमाई। इनमें सिर्फ पीस पार्टी, इत्तेहाद-ए-मिल्लत कौंसिल, अपना दल और कौमी एकता दल को कुछ हद तक सफलता मिली। लोकसभा के महासमर में छोटे दलों की सफलता नहीं के बराबर ही रही है। 2004 के चुनाव में सपा से विद्रोह के बाद नेलोपा से पड़रौना में चुनाव लड़े बालेश्वर यादव को संसद पहुंचने का मौका जरूर मिला, लेकिन यह दल की नहीं बल्कि बालेश्वर की अपनी ताकत का कमाल था। 2009 में लोकसभा चुनाव में अपनी पार्टी राकांपा से एटा में चुनाव लड़े कल्याण सिंह सांसद बनने में कामयाब हुए। इसमें सपा का सहयोग और उनके व्यक्तित्व का असर था। इस बार तो दो सौ के करीब छोटे दल चुनावी महासमर में ताल ठोंके हैं, लेकिन मतदाताओं के बीच इनकी अहमियत बन नहीं पा रही है। जिनकी उपस्थिति चर्चा में है, वह बड़े दलों के गठजोड़ से मैदान में दिख रहे हैं। अपना दल ने प्रतापगढ़ और मीरजापुर सीटें लेकर भाजपा के समर्थन से चुनावी ताल ठोंक दिया है, जबकि महान दल ने एटा, नगीना और बदायूं में कांग्रेस के समर्थन से लड़ाई लड़ी है। कौमी एकता दल, भारतीय समाज पार्टी, राष्ट्रीय परिवर्तन दल और फूलन सेना समेत आठ दलों के गठजोड़ से बने एकता मंच ने भी पैंतीस सीटों पर जंग का एलान किया है।
बहुजन मुक्ति पार्टी, अम्बेडकर समाज पार्टी, जय महाभारत पार्टी, नैतिक पार्टी, स्वराज जे, भारतीय नौजवान इंकलाब पार्टी, राष्ट्रीय उलेमा कौंसिल, प्रगतिशील मानव समाज पार्टी, गरीब आदमी पार्टी जैसे बहुत से दल मैदान में हैं। इन सबकी भूमिका कमोवेश एक जैसी ही है। पूर्वी उत्तर प्रदेश में एकता मंच के से ताकतवर और जातीय गठजोड़ के धुरंधर मैदान में जरूर आ रहे हैं, लेकिन जिस रोमांचक लड़ाई की उम्मीद की जा रही थी, वह अब पहले जैसी नहीं है। वाराणसी में पिछली बार बसपा के टिकट पर लड़े मऊ के विधायक मुख्तार अंसारी अबकी बार एकता मंच के उम्मीदवार घोषित थे, लेकिन नरेन्द्र मोदी के वहां चुनाव लड़ने के बाद मुख्तार ने उनके विरोध में मतों के धु्रवीकरण के लिए अपनी दावेदारी वापस ले ली। मुख्तार अब घोसी से चुनाव लड़ने की बात कर रहे हैं, जबकि उनके बड़े भाई पूर्व सांसद अफजाल अंसारी बलिया से एकता मंच के उम्मीदवार हैं। पीस पार्टी, जद यू, तृणमूल कांग्रेस और कुछ अन्य दल भी अपनी जमीन तैयार करने में जूझ रहे हैं, लेकिन बात बन नहीं पा रही है। पीस पार्टी के अध्यक्ष डॉ. अयूब डुमरियागंज से ताल ठोंक रहे हैं। उधर सबसे कम उम्र में स्टेट पार्टी बन चुकी आम आदमी पार्टी सुर्खियों में जरूर है। वाराणसी में खुद अरविन्द केजरीवाल, अमेठी में कुमार विश्वास और लखनऊ में जावेद जाफरी जैसे उम्मीदवार चुनावी माहौल बनाते जरूर दिख रहे हैं। पर वोट की निर्णायक लड़ाई में इनका क्या मुकाम होगा, यह अभी कहा नहीं जा सकता है।