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विश्व गौरैया दिवस: बोल पाते तो बताते

पर्यावरण से होने वाले नुकसान का असर बेजुबान पशु-पक्षियों को भी उठाना पड़ता है। विश्व पर्यावरण दिवस के मौके पर एक गौरैया का दर्द बयां कर रही हैं

By Srishti VermaEdited By: Published: Mon, 20 Mar 2017 12:22 PM (IST)Updated: Mon, 20 Mar 2017 12:36 PM (IST)
विश्व गौरैया दिवस: बोल पाते तो बताते
विश्व गौरैया दिवस: बोल पाते तो बताते

सारे धर्मों में किसी को बेघर करने को निष्ठुरतम पाप की श्रेणी में शुमार किया गया है। विडंबना यह है कि वर्र्षो से हम यह पाप करते आ रहे हैं पेड़-पौधों की बेरहम कटाई के रूप में। अपने स्वार्थ में हम सिर्फ एक पेड़ नहीं काटते, बल्कि उन सैकड़ों मासूम परिंदों का आशियाना भी उजाड़ देते हैं, जो अपने बसेरे के लिए इन पेड़ों पर ही आश्रित हैं। उनकी बेबसी भी ऐसी कि इस क्रूरता के विरोध का उनके पास सिर्फ एक ही विकल्प है और वह है अपनी नन्हीं सी जान कुर्बान कर देना।

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मेरे डाइनिंग टेबल पर रोज एक गौरैया आती थी और मैं उसे आटे की गोली खिलाती। प्यार से उसे मैं पुच्ची बुलाती। उसके साथ-साथ कई और गौरैया आतीं और आटे की गोलिया खातीं। जिस दिन पुच्ची नहीं दिखती सब काम छोड़कर मेरी आखें उसे तलाशती रहतीं। एक दिन मेरे बेटे ने उसे पकड़कर पिंजरे में रख दिया। उस दिन न जाने क्यों मुझे ऐसा लगा कि इसके भूखे-प्यासे बच्चे मा को तलाश रहे होंगे। बेटे को समझाने के लिए मैंने उसे थोड़ा सा गुलाबी रंग लगाकर उड़ा दिया। दो दिनों तक वह नहीं दिखी, लेकिन इसके बाद वह फिर आने लगी। उसका रंग देख मैं झट पहचान जाती और आटे की छोटी-छोटी गोलिया बना उसकी ओर फेंकती जाती। वह दो-तीन गोलिया खाती और फुर्र से उड़ जाती। थोड़ी देर बाद वह फिर आ जाती।

मैं समझ गई कि वह अपने साथ-साथ अपने बच्चों को भी खिलाने जाती है। बस क्या था उसे खिलानें में मुझे एक अजीब सी खुशी मिलने लगी। चूंकि पास में ही नीम, जामुन के तीन-चार पेड़ थे जहा उसका घोसला था। इसलिए उसका रोज का आना-जाना बना रहता था। छह-सात माह तक यह सिलसिला चलता रहा, अचानक उसका आना बंद हो गया। महीनों तक उसका इंतजार करती रही, लेकिन वह नहीं आई।

एक दिन किसी काम से घर से निकली तो देखा जहा कुछ पेड़ खड़े थे वहा मकान बन रहे हैं। मैं समझ गई कि मेरी प्यारी गौरैया भूख, प्यास और मौसम की मार नहीं सह सकी। काश, पक्षियों के पास भी जुबा होती तो वे भी बता पाते आशियाना उजड़ने और तपती दोपहर का दर्द। वैसे बदलते मौसम के दौरान कभी ठिठुरते तो कभी झुलसते तो कभी आशियाना ढूंढ़ते इन परिंदो को हम अपने घरों के आसपास देखते हैं। सुरक्षित घोसले अथवा ठिकानों के अभाव में ये बेजुबान अपने बच्चों को परों की ओट देकर गर्मी और ठंडी से बचाने की कोशिश में खुद मौत को गले लगा लेते हैं। बाद में भूख-प्यास से जूझते बच्चे भी दम तोड़ देते हैं। घर के आगन में हर समय फुदकने वाली गौरैया अथवा दीवार पर कहीं भी बैठे गुटर-गूं करते कबूतर को ध्यान से देखें तो उनकी आखों में आशियाना उजड़ने का गम और मौसम की मार से जान बचाने की याचना महसूस की जा सकती है।

वृक्षों की कटाई के इस दौर में हम मकान बनाते समय घर के आसपास छोटी सी शरणगाह बनाकर मौसम के क्रूर थपेड़ों से इन मासूमों व नन्हें बेजुबानों को जीने का मौका दे सकते हैं। यह समाज में संवेदनाओं को जीवित रखने का बेहतरीन उपाय है। मैंने अपने घर की बालकनी में कुछ ऐसे ही उपाय कर रखे हैं। आप भी इन्हें बचाने के लिए कुछ करेंगी न..।
-मनीषा अग्रवाल

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