संभावित विनाश का खतरा
भारत में वनोन्मूलन बहुत तेज गति से हो रहा है। वनों का तीव्र गति से उन्मूलन और कटाई वस्तुतः द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद से ही आरंभ हो गया था, जब ब्रिटिश सरकारों ने अपनी आवश्यकता के लिए वनों की अंधाधुंध कटाई शुरू की थी।
भारत में वनोन्मूलन बहुत तेज गति से हो रहा है। वनों का तीव्र गति से उन्मूलन और कटाई वस्तुतः द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद से ही आरंभ हो गया था, जब ब्रिटिश सरकारों ने अपनी आवश्यकता के लिए वनों की अंधाधुंध कटाई शुरू की थी। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद देश में रेलवे, खनन, नदी घाटी परियोजनाएं, रक्षा आदि उभरती हुई विकास परियोजनाओं की पूर्ति के लिए वनोन्मूलन में तीव्र वृद्धि हो गई। कृषि संबंधी गतिविधियों के प्रसार और शहरीकरण के कारण भी वनों का शोषण हुआ है।
आज संपूर्ण विश्व में यह महसूस किया जा रहा है कि विश्व के संभावित विनाश का खतरा जितना परमाणु अस्त्रों से है, उससे कहीं अधिक पर्यावरण के विनाश से है। यही कारण है कि आज विश्व के समस्त देश पर्यावरण के मुद्दे पर जागरुक और चिंतित हो रहे हैं। यह अवश्य है कि निर्धन और अल्पविकसित राष्ट्र इस दुविधा में फंसे हुए हैं कि वे विकास पर जोर दें या पर्यावरण पर। भारत में वनो और प्रकृति को लेकर आदिकाल से ही स्तुति का भाव रहा है। इसके उपरांत भी विकास की अनियोजित अवधारणा और नागरिकों के पर्यावरण के प्रति गैर-जिम्मेदार आचरण की वजह से भारत में वनोन्मूलन में तीव्र वृद्धि हुई है। आज देश में यह समय की मांग है कि सरकार और नागरिक इस संदर्भ में तत्काल अपनी जिम्मेदारियों को समझते हुए वन संरक्षण के महत्व को स्थापित करें।
जनजातीय लोगों के किसान बनने का इतिहास परिस्थितिजन्य रहा है। सरकार की नीति रही है कि ‘स्थानांतरित कृषि’ के विस्तार को रोका जाए। ‘सीढ़ीनुमा कृषि’ पद्धति को बढ़ावा दिया जाए तथा जनजातीय क्षेत्रों के लिए नई रणनीति बनाई जाए। इसके लिए कृषि में पूंजी निवेश बढ़ाना होगा। सरकारी अभिकरणों द्वारा उन्नत कृषि तकनीकी का प्रसार किया जा रहा है। सूखा प्रभावित क्षेत्र तथा पहाड़ी इलाकों के लिए उन्नत तकनीक विकसित करने के प्रयास चल रहे हैं।
जनजातीय क्षेत्रों में वर्तमान में स्थायी कृषि से किसी प्रकार खाने-पीने का बंदोबस्त तो हो जाता है, परंतु इन क्षेत्रों में होने वाले अधिकांश कृषि उत्पादन का विपणन नहीं हो पाता है। मजबूरी में यदा-कदा आवश्यक वस्तु खरीदने के लिए वे अपनी उपज सस्ते में बेच देते हैं। छोटा नागपुर के मुंडा और उरांव क्षेत्रों, मध्य भारत के गोंड और कोरक क्षेत्रों में तथा नीलगिरि के बदगा और मूलू कुरंबा क्षेत्रों के कुछ भागों में आधुनिक कृषि हो रही है। निकोबार में नारियल की खेती से जनजातीय लोगों में समृद्धि आई है। गुजरात, राजस्थान, आंध्र प्रदेश, ओडिशा तथा छोटा नागपुर के जनजातीय भागों में नकदी फसल की खेती की जाती है, तथापि बहुसंख्यक भारतीय जनजातीय समुदाय कृषि अर्थव्यवस्था पर निर्भर हैं। इसके तहत लघु उत्पादक, लघु यंत्र तथा सरल तकनीक होते हैं। इससे अक्सर निर्वाह करने लायक उपज हो पाती है।
जनजातीय क्षेत्र के मध्य भाग में कृषि की समस्या विकास की सबसे बड़ी समस्या है। पश्चिमी क्षेत्रों में भूमि की कमी है और जनजातीय लोगों में भूमि की चाहत बनी रहती है। इसका मुख्य कारण इन क्षेत्रों में राजपूत, मराठा और अन्य हिंदू किसान वर्र्गोें जैसे सशक्त समुदायों द्वारा जनजातीय लोगों को हाशिये पर धकेलना है। इसके कतिपय अन्य कारण भी रहे हैं। यथा-भूमि की निम्न उत्पादकता, कृषि के प्रचलित पुराने अवैज्ञानिक तरीके तथा जनजातीय अर्थव्यवस्था में विविधता का अभाव। अन्य समुदायों द्वारा भी निरंतर अनेक संवैधानिक प्रावधानों और कानूनी व्यवस्थाओं के बावजूद जनजातीय नागरिकों का शोषण किया जाता रहा है।
जनजातीय नागरिकों की विशिष्ट पहचान को क्षति पहुंचाए बगैर उन्हें राष्ट्र की मुख्य धारा से जोड़ना चाहिए। भारतीय संस्कृति, उस हस्तशिल्प एवं कसीदाकारी की तरह है, जिसमें प्रत्येक अलग तत्व उसके सौंदर्य में निखार लाते हैं। मानवशास्त्री यह मानते हैं कि जनजातीय नागरिकों को राष्ट्र की मुख्यधारा से जोड़ना देश के लिए एक स्वाभाविक एवं वांछित लक्ष्य है। जनजातीय समुदाय के लिए योजना निर्माण के दौरान पर्याप्त सावधानी बरते जाने की आवश्यकता है। जनजातीय समस्याओं के संदर्भ में विशेषज्ञ मानवशास्त्रीय चिंतन का राष्ट्रीय नीति में समावेश किया गया है।
मानवशास्त्री सदैव से जनजातीय संस्कृति को समझने पर बल देते रहे हैं, जिनसे उनका सांस्कृतिक ताना-बाना अक्षुण्ण रखते हुए उनके जीवन में उत्साह का संचार किया जा सके। मानवशास्त्री उचित ही जनजातीय समुदाय के लिए नीति निर्माण में पूर्ण सावधानी बरते जाने की अपेक्षा करते हैं, ताकि स्थानीय, क्षेत्रीय तथा राष्ट्रीय आवश्यकताओं में परस्पर संतुलन स्थापित किया जा सके। नियमित रूप से कानूनी प्रावधानों के क्रियान्वयन की भी समीक्षा की जानी चाहिए, ताकि इनका दुष्प्रभाव जनजातीय संस्कृति पर न पड़े।
स्वतंत्र भारत में एक लंबे अरसे तक जनजातीय समस्याओं को आवश्यक गंभीरता और प्रशासनिक सूझ-बूझ से नहीं लिया गया है। प्रायरू देश में योजनाकारों ने जनजातीय समस्याओं को गरीबी से जुड़ी एक आम समस्या मानकर इस पर सतही ढंग से दृष्टिपात किया है। इस प्रकार के अदूरदर्शी प्रशासनिक रवैये के चलते जनजातीय समस्याएं कई दशकों से यथावत बनी हुई हैं। कुछ समय से भारत में इस विषय में विशेषज्ञों की राय को महत्व दिया जाना शुरू किया गया है। जनजातीय समस्याओं के समाधान से ही एक समग्र सकारात्मक चिंतन और नियोजित सामाजिक विकास का मार्ग प्रशस्त हो सकेगा। इसके लिए यह आवश्यक है कि यथाशीघ्र जनजातीय समुदाय को राष्ट्रीय विकास की मुख्यधारा में अनिवार्य रूप से सम्मिलित किया जाए।
अब यह मान लिया गया है कि भारत में जनजातीय समस्या ग्रामीण गरीबों की समस्या से अलग है। हमें जनजातीय संस्कृति के उन तत्वों का संरक्षण करना चाहिए, जिन्हें जनजातीय सर्वोत्तम समझते हैं। जनजातीय समुदाय की उपयोगी परंपराओं, उनके विशेषज्ञतापूर्ण ज्ञान और उनकी अनेक अच्छी बातों को स्वीकार किया जाना चाहिए। ऐसा करके ही हम न केवल सामाजिक स्तर पर, वरन भावनात्मक स्तर पर भी व्यापक राष्ट्रीय एकीकरण को स्थापित कर सकते हैं। स्पष्ट है कि ऐसा किए बिना ‘राष्ट्र निर्माण’ का कार्य संभव नहीं हो सकेगा।
भारतीय जनजातीय क्षेत्रों को समस्त प्रकार के शोषण और असुरक्षा से मुक्त किया जाना चाहिए। अधिकांश जनजातीय क्षेत्रों में परंपरागत ‘महाजनी व्यवस्था’ में ऋण प्रदान करना सबसे भयंकर शोषण तंत्र रहा है। ऋणग्रस्तता का दुर्भाग्यपूर्ण पहलू बंधुआ मजदूरी है। विभिन्न क्षेत्रों में यह व्यवस्था विभिन्न नामों से प्रचलित है। बंधुआ मजदूरी समाप्त करने के लिए अनेक प्रावधान लाए गए, किंतु इसे वास्तविकता में नहीं बदला जा सका है। बंधुआ मजदूरी दूर करना जितना महत्वपूर्ण है, उससे भी अधिक महत्वपूर्ण है बंधुआ मजदूरों की पहचान तथा उनका पुनर्वास। यदि इस दिशा में सफलता प्राप्त करनी है, तो बंधुआ मजदूरों के पुनर्वास की व्यवस्था अनिवार्य रूप से करनी होगी।
जनजातीय जनसंख्या का अल्पांश ही शहरों में रहता है। यह सत्य है कि दीर्घकाल तक जनजातीय लोग शहरों से दूर रहे। शहरों के प्रशासनिक केंद्र बनने, परिवहन के विकास तथा जनजातीय क्षेत्रों के औद्योगीकरण होने से, हाल में कुछ जनजातीय लोग शहरों में बस गए। शहरीकरण की प्रक्रिया धीमी है तथा शहरी मूल्यों को समझने व अंतर्ग्रहित करने में समय लगता है। जनजातीय समुदायों की कोशिश यही रहती है कि वे क्षेत्र विशेष में एक साथ रहें। समयांतराल अधिक होने से कई बार यह संभव नहीं हो पाता और वनवासी नागरिक रोजी-रोटी की तलाश में इधर-उधर बिखर जाते हैं। प्रथम पंचवर्षीय योजना के पश्चात औद्योगीकरण की प्रक्रिया में तेजी आई और यह महसूस किया गया कि इस्पात संयंत्र के लिए मध्य प्रदेश, बिहार, झारखंड तथा उड़ीसा के कुछ क्षेत्र उपयुक्त हो सकते हैं, क्योंकि यहां लोहा एवं कोयला दोनों ही पर्याप्त मात्रा में पाए जाते हैं। ये क्षेत्र जनजातीय क्षेत्रों के मध्य में स्थित हैं।
यही बात जमशेदपुर के साथ भी लागू होती है। जमशेदपुर भी जनजातीय क्षेत्र के महत्वपूर्ण भाग में स्थित है। गुआ की लोहा एवं कोयला खानें, नोआमुंडी की खानें, मोसाबनी की तांबा खानें तथा लोहरदग्गा की अभ्रक की खानें, ऐसे ही जनजातीय क्षेत्रों में स्थित हैं। जनजातीय क्षेत्रों के औद्योगीकरण होने से न सिर्फ जनजातीय व्यक्तियों को रोजगार मिला है, अपितु उनके आश्रितों का भी जीवन बेहतर हुआ है। यह भी आवश्यक है कि जनजातीय नागरिकों को उद्योग और तकनीक क्षेत्र के छोटे-छोटे कौशल (स्किल) से युक्त किया जाए, ताकि वे जीवन-यापन के लिए मात्र पारंपरिक तरीकों पर ही निर्भर रहने के लिए अभिशप्त न बने रहें।
लेखक परिचय
नाम - पंकज के. सिंह