Move to Jagran APP

मुल्तान से आई स्वाद की 'सुल्तान'

पत्तों के दोने...कचौड़ी के साथ दाल...थोड़े से चावल और उसमें हरी-लाल चटपटी चटनी। यही है मोठ कचौड़ी का सुस्वादित अंदाज। पहाडग़ंज के मुल्तानी ढांडा में मोठ की कचौडिय़ों का कुछ ऐसा ही बेजोड़ स्वाद है

By Babita kashyapEdited By: Published: Sat, 15 Oct 2016 04:04 PM (IST)Updated: Sat, 15 Oct 2016 04:16 PM (IST)
मुल्तान से आई स्वाद की 'सुल्तान'

भारत पाकिस्तान विभाजन में मुल्तान से आए लोगों के साथ जायकों का संसार भी दिल्ली आ बसा। मुल्तानी ढांडा की चौक पर वर्ष 1948 में एक बैंच से शुरू हुई मोठ की कचौडिय़ों की रेहड़ी अब बकायदा दुकान बन चुकी है। 70 साल के सफर में चावला मोठ भंडार ने कई उतार चढ़ाव देखे लेकिन मोठ की कचौडिय़ों का स्वाद बरकरार रखा। मोठ की दाल के साथ कचौड़ी का स्वाद खालिस 'मुल्तानी' है। प्लेट में कचौडिय़ों के साथ दाल और थोड़े से चावल के साथ मुल्तान की स्पेशल चटनी का संग इसे कचौड़ी के पत्ता अलग स्वाद से रूबरू कराता है। 70 साल पहले स्वर्गीय नंदलाल चावला ने इस दुकान की नींव रखी। तब यह दुकान मुल्तान से आए लोगों को एक साथ बैठने का बहाना दिया करती थी। लोग सुबह और शाम यहां जमा होते थे और कचौडिय़ों के स्वाद के साथ देश-दुनिया के मुद्दों पर चर्चा किया करते थे।

loksabha election banner

वक्त के साथ बदलता है स्वाद

इस दुकान की खास बात यह भी है कि सुबह और शाम के वक्त अलग अलग स्वाद की कचौड़ी खाने को मिलती हैं। सुबह के वक्त कचौडिय़ों के साथ अलग दाल बनाई जाती हैं और शाम के वक्त अलग। इसमें प्याज और लहसून का भी इस्तेमाल नहीं होता। पिछले कई सालों से कचौडिय़ों का आनंद लेते आ रहे सुभाषचंद्र बताते हैं कि 70 साल पहले एक यही दुकान थी जहां मोठ की कचौड़ी मिला करती थीं। इसकी खासियत इसके मसाले रहे हैं। यहां आज भी अनारदाने का खट्टा मीठा कुटा हुआ मसाला इस्तेमाल किया जाता है जिसके कारण कचौड़ी में अलग चटपटा स्वाद आ जाता है। अब तो यहां कई परिवार मुल्तानी ढांडा छोड़ कर चले गए हैं। लेकिन जब भी वे यहां आते हैं तो यहां से कचौड़ी पैक करा कर ले जाते हैं।

बैंच से हुई थी शुरुआत

चावला कचौड़ी की दुकान के संचालक तुषार बताते हैं कि वर्ष 1947 में विभाजन के वक्त परिस्थितियां बेहद अलग थीं। मुल्तान से आए लोग शिविरों में रह रहे थे। पहाडग़ंज के इलाके में कई परिवार एक साथ आए। सभी लोगों ने घर चलाने के लिए कुछ न कुछ शुरू किया। हमारे परदादा ने लाहौर में कचौड़ी ही बेचा करते थे। सो दिल्ली में भी एक बैंच लगाकर उस पर मोठ की कचौड़ी बेचनी शुरू कर दी। चार पीढिय़ों से चली आ रही मुल्तानी मोठ की दुकान पर आठ आने की कचौड़ी बेची जाती थीं। अब 25 रुपये में एक प्लेट बिक रही है। हमारी परंपराएं खान पान दिल्ली वालों से अलग हैं, आज भी शादी ब्याह और अन्य समारोह में मुल्तानी जायके ही बनाए और परोसे जाते हैं। इसलिए यहां के लोग तो हर मौकों में मोठ की कचौड़ी का लुत्फ लेते हैं।

खट्टी उड़द दाल की वडिय़ां

मुल्तान से आए परिवारों के घरों में खास मौकों पर वड़ी की तरकारी पकाने की रवायत है। मौसमी सब्जी के साथ साथ यहां वडिय़ों की मसालेदार सब्जी भी पकाई जाती है। लोग यहीं से सूखी वड़ी ले जाते हैं। यहां वडिय़ों की कई वैरायटी है। हरे मूंग, पीली दाल, उड़द दाल की आधी सूखी वडिय़ों को मर्तबान में रखकर सुखाया जाता है।

संसद तक लगते हैं चटकारे

मोठ की कचौड़ी के स्वाद के चर्चे सत्ता के गलियारों में भी खूब हैं। इसलिए ससंद की विशेष बैठकों में मोठ की कचौड़ी का आर्डर दिया जाता है। मोठ भंडार के तुषार चावला बताते हैं कि यहां की कचौड़ी हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के आयोजनों में भी जाती हैं। दीवाली और अन्य आयोजनों में भी मोठ की कचौड़ी के खास आर्डर आने लगते हैं।

प्रस्तुति : विजयालक्ष्मी, नई दिल्ली


Jagran.com अब whatsapp चैनल पर भी उपलब्ध है। आज ही फॉलो करें और पाएं महत्वपूर्ण खबरेंWhatsApp चैनल से जुड़ें
This website uses cookies or similar technologies to enhance your browsing experience and provide personalized recommendations. By continuing to use our website, you agree to our Privacy Policy and Cookie Policy.