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विदेश में महके पहाड़ी व्यंजन

विदेश में बसे या नौकरी व व्यवसाय के चलते वहां रह रहे लोगों को वतन, व परिवार की याद हमेशा आती है। संस्कृति, परंपरा के साथ साथ घर का खाना कभी भी नहीं भूला जाता।

By Srishti VermaEdited By: Published: Thu, 13 Apr 2017 03:31 PM (IST)Updated: Thu, 13 Apr 2017 04:02 PM (IST)
विदेश में महके पहाड़ी व्यंजन
विदेश में महके पहाड़ी व्यंजन

गढ़वाल-कुमाऊं के पारंपरिक व्यंजनों को कुछ प्रवासी उत्तराखंडियों ने बिना किसी निवेश के दुनिया के कई देशों में मशहूर कर दिया है। ‘उत्तराखंड एकता संघ परिवार’ ऐसा ही संगठन है, जिसके सदस्य वाट्सएप के जरिए पहाड़ी व्यंजनों को बनाने का तरीका और अपनी संस्कृति को एक-दूसरे से साझा कर रहे हैं। 2016 में शुरू हुई इस मुहिम से अब 400 प्रवासी उत्तराखंडी जुड़ चुके हैं। आबूधाबी में रहने वाले टिहरी जिले के भिलंगना ब्लाक के धनवीर गुनसोला ने अक्टूबर 2016 में यह संगठन बनाया। मकसद उत्तराखंड के उन प्रवासियों को एक-दूसरे से जोड़ना था, जो विदेशों में नौकरी करते हैं। उन्होंने एक वाट्सएप ग्रुप भी बनाया। इस संगठन से 12 देशों में होटल, प्राइवेट कंपनी और अन्य संस्थानों में काम करने वाले प्रवासी उत्तराखंडी जुड़े हुए हैं। इनमें होटलों में काम करने वाले कुछ प्रवासी ऐसे भी थे, जिन्हें उत्तराखंड के पारंपरिक व्यंजनों की रेसिपी आती थी। जब अन्य युवाओं ने इस बाबत उनसे पूछा तो वाट्सएप के माध्यम से सभी ने आपस की जानकारी साझा की। 

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खानपान के अलावा यह लोग ग्रुप में अपनी संस्कृति व परंपरा से जुड़ी चीजें भी साझा करते हैं। संगठन की ओर से समय-समय पर विदेशों में उत्तराखंडी कलाकारों के कार्यक्रम भी आयोजित किए जाते हैं। इन दिनों मस्कट से छुट्टियों पर टिहरी आए संगठन की कार्यकारिणी के प्रभारी विजय सिंह बताते हैं कि वाट्सएप ग्रुप से जुड़कर पराये मुल्क में अकेलेपन का अहसास नहीं होता। सभी एक-दूसरे की समस्या सुलझाने में भी ग्रुप का सहारा लेते हैं।

इन व्यंजनों को करते हैं साझा : गहत का फाणू, स्यूंटों (सोयाबीन) पट्वड़े, भट व तिल की चटनी, अर्सा, चैंसू, मंडुवे की रोटी, स्वाले, दाल के पकोड़े, रोट, झंगोरा, पत्यूड़ आदि।

सामाजिक जिम्मेदारी भी निभा रहा ग्रुप : वाट्सएप ग्रुप के माध्यम से प्रवासी जरूरतमंदों की मदद भी करते हैं। वे कई बीमारों के लिए आर्थिक मदद भेज चुके हैं। ग्रुप के माध्यम से गढ़वाल-कुमाऊं के प्रवासी एक-दूसरे की संस्कृति को भी समझ रहे हैं।

-अनुराग उनियाल, नई टिहरी

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