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बनाएं अलग पहचान

बचपन में मां को खोने के बाद उन्होंने मुश्किल हालात में पढ़ाई की। एमएससी के बाद टीचर और प्रिंसिपल के रूप में खुद की पहचान बनाई। यहीं नहीं रुके। टीचिंग के पैशन के चलते उन्होंने मेडिकल और इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने वाले स्टूडेंट्स के मार्गदर्शन के लिए ‘आकाश’ इंस्टीट्यूट की

By Rajesh NiranjanEdited By: Published: Tue, 07 Jul 2015 09:11 PM (IST)Updated: Tue, 07 Jul 2015 11:51 PM (IST)
बनाएं अलग पहचान

बचपन में मां को खोने के बाद उन्होंने मुश्किल हालात में पढ़ाई की। एमएससी के बाद टीचर और प्रिंसिपल के रूप में खुद की पहचान बनाई। यहीं नहीं रुके। टीचिंग के पैशन के चलते उन्होंने मेडिकल और इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने वाले स्टूडेंट्स के मार्गदर्शन के लिए ‘आकाश’ इंस्टीट्यूट की नींव डाली, जो अपनी प्रतिबद्धता की वजह से कुछ ही सालों में भरोसे का प्रतीक बन गया। वे आज भी उसी ऊर्जा के साथ अपने अभियान में लगे हैं। आकाश इंस्टीट्यूट यानी एईएसपीएल के चेयरमैन जे.सी. चौधरी अपने अनुभवों को साझा करते हुए बता रहे हैं कामयाबी के साथ अलग पहचान बनाने के गुर...

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जिस वर्ष देश का संविधान लागू हुआ, उसी साल मेरा जन्म (नवंबर 1950 में) हरियाणा के एक छोटे से गांव सेवली में हुआ था, जो हथीन के पास है। वहां मैं छह साल की उम्र तक रहा। इसके बाद मैं पलवल चला गया। महज 9 साल का ही था कि मेरी मां का निधन हो गया। उस समय मैं चौथी कक्षा में था। सातवीं तक पैरों में बिना चप्पल के स्कूल जाता था। मां के देहान्त के बाद कोई देखभाल करने वाला न होने के कारण मुझे हथीन में मामा के पास भेज दिया गया। मैंने वहीं रहकर मैट्रिक किया। उस समय न तो किसी तरह का गाइडेंस था और न ही सपोर्ट। कोई पसंद पूछने वाला नहीं था। सब एक के पीछे एक चलते जाते थे। मेरा भी यही हाल था। सब मेढक काट रहे थे, तो मैंने भी बॉयोलॉजी ले लिया। गुड़गांव से बारहवीं किया। फिर बीएससी की और एमएससी बिट्स पिलानी से किया। इसके बाद भिवानी के वैश्य कॉलेज में लेक्चरर बन गया। इसके बाद दिल्ली के पंजाबी बाग में हंसा मॉडल स्कूल ज्वाइन किया। 1974 में बायोलॉजी से सरकारी स्कूल में पीजीटी चुना गया। बीस साल की सर्विस के बाद यूपीएससी के जरिए प्रिंसिपल चुन लिया गया। 1994 में वीआरएस लेकर आकाश इंस्टीट्यूट से जुड़ गया, जिसकी शुरुआत 1988 में हो चुकी थी। इसके पीछे मेरी सोच यह रही कि मुझे टीचिंग के क्षेत्र में आगे भी एक्सीलेंट करना है, अपना बेस्ट देना है। आज भी मैं टीचर, एकेडमिक स्टाफ और स्टूडेंट्स के लिए मोटिवेटिंग वीडियोज बनाता हूं।

टीचिंग का पैशन

अध्यापन में रुचि और जुनून होने के कारण ही मैंने इसी में खुद को आगे बढ़ाया। पहला सेंटर दो हजार रुपये के किराये पर दिल्ली के गणेश नगर में 12 बच्चों के साथ खोला था। लगातार 35 साल तक खुद 8 घंटे पढ़ाया था। कभी-कभी 12 घंटे भी पढ़ाया। मुझे पढ़ाने का नशा था। कभी-कभी सारे टीचर भाग जाते थे। कोई टीचर नहीं होता था, तो अकेले बॉटनी-जूलॉजी दोनों सब्जेक्ट पढ़ाता था। मैंने छत पर दरी-टाट बिछाकर पढ़ाया है। मैं कभी घबराया नहीं, हार नहीं मानी। अनुशासन से कभी समझौता नहीं किया। मैं अध्यापन को एंज्वॉय करता रहा हूं। 1972 से लेकर 2007 तक लगातार पढ़ाया।

टीचर समझें जिम्मेदारी

विडंबना यह है कि टीचिंग इस समय सबसे अधिक उपेक्षित है। हायर एजुकेशन के बाद जल्दी कोई टीचर नहीं बनना चाहता। मेरा मानना है कि एक लेक्चरर को क्लास लेने से पहले खुद पूरी तैयारी करनी चाहिए, जम कर होमवर्क करना चाहिए। टीचर का काम तो कुछ दीये जैसा है, आप तेल डालते रहिए, लौ जलती रहेगी। हमारी संतान सबसे कीमती होती है। जब उसे हम एक टीचर के हवाले कर देते हैं, तो सोचिए, टीचर पर कितनी बड़ी जिम्मेदारी आ जाती है। जिस तरह पिता अपने बच्चे के लिए चिंतित रहता है, उसी तरह एक अध्यापक को अपने स्टूडेंट्स के प्रति होना चाहिए। उसे अपना नाम खराब नहीं करना चाहिए।

अपने काम को समझें

अध्यापन के पेशे में आने वाले लोगों को यह समझना चाहिए कि मैं जिन बच्चों को पढ़ा रहा हूं, उनका भविष्य मेरे हाथ में है। मेरी थोड़ी सी लापरवाही इनके करियर को प्रभावित कर सकती है। टीचर में कुछ बनाने, प्रोड्यूस करने का पैशन होना चाहिए।

चैलेंज हर दिन

आज के समय में हर दिन चैलेंज है। जहां तक मेरी बात है, तो कभी भी कोई काम करने में कोई डिसीजन लेने में मुझे कोई घबराहट नहीं हुई। मुझे लगता है कि सब कुछ इसी जीवन में होना है। हम खाली हाथ आए हैं और खाली हाथ ही हमें जाना है। मैं दिल्ली में जब आया था तो मेरे पास 100 रुपये भी नहीं थे। एक बात तो तय है कि जिंदगी में हमेशा उससे ज्यादा ही रहेगा। आज आकाश के 114 ब्रांच हैं। मैं जो कुछ कमाता हूं, कोशिश करता हूं कि सब कुछ स्टूडेंट्स को बनाने में लगा दूं।

लगा दें जी-जान

स्टूडेंट्स से मैं यही कहना चाहता हूं कि जो भी स्ट्रीम चुनें, उसमें जी-जान लगा दें। दिन-रात उसी धुन में लगे रहें। जब आप अपनी पसंद के क्षेत्र में डूबकर काम करेंगे, तभी आप कामयाबी की राह पर आगे बढ़ सकेंगे। अपनी अलग पहचान बना सकेंगे। इंसान का जीवन बड़ी मुश्किल से मिला है। यह जीवन बेहद कीमती है। इसके एक-एक पल का महत्व समझें। इसे गंवाएं नहीं। जीवन का कोई उद्देश्य रखें कि आप अपने बाद अपनी पहचान बनाकर जाएंगे। कोई भी फील्ड पकड़ लें और यह सोच लें कि आप से आगे कोई नहीं होगा। मैं खुद इसी फार्मूले पर चला हूं। अपनी धुन का करने से जो सुकून मिलता है, उसका कोई जवाब नहीं। ईमानदारी और सिंसियरिटी से काम करने पर ईश्वर जरूर साथ देता है। वह देखता है कि आप अपने काम को कितनी सच्चाई से कर रहे हैं।

कोचिंग की जरूरत

हमारे यहां एग्जामिनेशन का जो स्वरूप है, खासकर कॉम्पिटिटिव एग्जाम्स का, उसमें एप्लीकेशन पार्ट पर काफी जोर होता है। उसके लिए हम सिर्फ किताबों के भरोसे नहीं रह सकते। कुछ एक्स्ट्रा जीनियस बच्चे बिना कोचिंग के जरूर आगे बढ़ सकते हैं, पर बाकी को कोचिंग की जरूरत पड़ती है। इससे स्टू्डेंट्स को फोकस्ड होकर एप्लीकेशन पार्ट की तैयारी करने में मदद मिलती है। इसलिए मेरा तो यही मानना है कि कोचिंग से बच्चे को सही राह पर आगे बढ़ने में मदद मिलती है।

सिस्टम में हो बदलाव

हमारा एजुकेशन सिस्टम प्रैक्टिकल नहीं है। उसमें थ्योरेटिकल ज्यादा है। जरूरत हमारे करिकुलम को इंडस्ट्री की रिक्वॉयरमेंट से जोड़ने की है। अभी जो बच्चे पढ़कर आते हैं, उन्हें मार्केट/इंडस्ट्री की कोई समझ नहीं होती। केवल डिग्री देकर युवाओं को स्किल्ड नहीं बनाया जा सकता। हमारा सिलेबस इंडस्ट्री की नीड बेस्डहोना चाहिए। आज की जरूरत काफी बदल गई है। आज आइटीआइ तक को बदलने और बढ़ाने की जरूरत है। प्लंबर, इलेक्ट्रिशियन के रूप में ज्यादा काम है। आठवीं तक अगर सबको पास करने की पॉलिसी बना दे रहे हैं, तो बच्चा क्यों पढ़ेगा। उसे फेल होने का डर होगा ही नहीं। बच्चों को हम ईजी टु लाइफ बना रहे हैं। हमें कॉम्पिटिशन को ध्यान में रखकर काम करना चाहिए। स्टूडेंट्स की सही ग्रूमिंग पर ध्यान देना चाहिए, तभी वे आगे चलकर देश के निर्माण में अपना योगदान कर सकेंगे।

कामयाबी के मंत्र

* जीवन एक ही बार मिलता है। इसे समझें और इसका भरपूर फायदा उठाएं।

* मेहनत करने से कभी कोई नहीं मरता, इसलिए मेहनत करने से कभी पीछे न हटें।

* अपने जीवन में सेल्फ कॉन्फिडेंस कभी न खोएं। आत्मविश्वास हमेशा बनाएं रखें।

[प्रस्तुति : अरुण श्रीवास्तव]


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