पवार के रवैये से राकांपा नेता दुखी
मुंबई। धनगर आरक्षण को लेकर राज्य सरकार के फैसले के खिलाफ बयान देने पर पार्टी सर्वेसर्वा शरद पवार की परेशानी बढ़ गई है। आदिवासी विकास मंत्री मधुकर पिचड़ समेत कई पार्टी नेताओं ने पवार की रणनीति पर हैरानी जताई है।
जानकारों का दावा है कि आगामी चुनाव में उपमुख्यमंत्री अजित पवार की विजय सुनिश्चित करने के लिए पवार ने यह बयान दिया है। पार्टी नेता मानते हैं कि इससे पार्टी को राज्य भर में आदिवासी वोटों का भारी नुकसान हो सकता है।
दो दिन पहले ही पवार ने पुणे में धनगर समाज को आदिवासी सूची में शामिल करके आरक्षण देने की वकालत की थी। इससे पहले राज्य मंत्रिमंडल की बैठक में धनगर समाज को संविधान की तीसरी सूची में शामिल करके अलग से आरक्षण देने की सिफारिश केंद्र सरकार से करने का फैसला किया गया था।
यह फैसला कांग्रेस व राकांपा के मंत्रियों ने आमराय से किया था। साफ है कि शरद पवार से राय मशविरा करके ही यह फैसला किया गया। इन हालात में धनगर आरक्षण के बारे में शरद पवार का बयान पार्टी के लिए मुसीबत बन गया है।
पवार के रवैये से आदिवासी विकास मंत्री पिचड़ बौखलाए हुए हैं। उन्होंने पवार क भूमिका को संविधान विरोधी बताया है। इसके अलावा विधानसभा के उपाध्यक्ष व वरिष्ठ कांग्रेसी नेता वसंत पुरके ने पवार की राय को वोटों के लिए लोकतांत्रिक मूल्यों का खून कहा है। उन्होंने पवार को एक पत्र लिखकर कहा है कि बारामती में बेटी सुप्रिया सुले को कम वोट मिले सिर्फ इसीलिए धनगर समाज के पक्ष में गलत भूमिका मत लीजिए। खेल मंत्री पद्माकर वलवी ने भी पवार के सुझाव को संविधान विरोधी कहा है।
बारामती में 30 फीसदी धनगर समाज
राकांपा नेता मानते हैं कि बेटी सुप्रिया व भतीजे अजित पवार को चुनावी मदद करने के लिए ही पवार ने यह भूमिका अपनाई है। पवार के गृहनगर बारामती में धनगर समाज 30 फीसदी है। अगर धनगर नाराज हो गए तो अगले विधानसभा चुनाव में अजित का जीतना कठिन होगा। हाल के लोकसभा चुनाव में भी सुप्रिया पहले से कम वोटों के अंतर से जीत सकीं।
पार्टी पदाधिकारी कहते हैं कि अगर पार्टी में काम कर रहे आदिवासी व धनगर समाज से जुड़े जानकारों से राय मशविरा किया जाता तो यह नौबत नहीं आती। पहले तो मंत्रिमंडल की बैठक में जल्दबाजी में फैसला किया गया। अब इसका समर्थन महंगा पड़ रहा है तो अलग राय पेश की जा रही है। इस बयानबाजी से राकांपा को गंभीर नतीजे भुगतने पड़ सकते हैं। पहले ही कई नेताओं के पार्टी छोड़ने से कार्यकर्ताओं का मनोबल गिरा है।