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आलू बेल्ट में समाजवादी साख को चुनौती

कानपुर मंडल में आलू बेल्ट की उर्वरा जमीन पर कांग्रेसी किले को ढहा जड़ें जमाने वाले समाजवाद की पकड़ ढीली हुई हैं। भ्रष्टतंत्र, महंगी होती जिन्दगी के साथ विकास की अनदेखी से पनपी झुंझलाहट व्यवस्था परिवर्तन के नारों में बहती दिख रही है। महादेवी वर्मा की जन्मभूमि और कभी सामंती सोच से जूझने वाले समाजवादी डा.राममन

By Edited By: Published: Sat, 19 Apr 2014 10:43 AM (IST)Updated: Sat, 19 Apr 2014 01:22 PM (IST)
आलू बेल्ट में समाजवादी साख को चुनौती
आलू बेल्ट में समाजवादी साख को चुनौती

कानपुर [राजीव द्विवेदी]। कानपुर मंडल में आलू बेल्ट की उर्वरा जमीन पर कांग्रेसी किले को ढहा जड़ें जमाने वाले समाजवाद की पकड़ ढीली हुई हैं। भ्रष्टतंत्र, महंगी होती जिन्दगी के साथ विकास की अनदेखी से पनपी झुंझलाहट व्यवस्था परिवर्तन के नारों में बहती दिख रही है। महादेवी वर्मा की जन्मभूमि और कभी सामंती सोच से जूझने वाले समाजवादी डा.राममनोहर लोहिया की कर्मभूमि ने जुनूनी ज्वार के बीच भी कभी संयम नहीं खोया।

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गंगा और यमुना के इस दोआब क्षेत्र में भरपूर पैदावार के बाद भी कंगाली और बाढ़ की तबाही में भी धैर्य नहीं खोया पर अब बदली हवा में तो सियासी छल के खिलाफ आक्रोश साफ-साफ नजर आ रहा है। परिसीमन के बाद संसदीय क्षेत्रों के बदले भूगोल के बाद भी जिन सूरमाओं के किले सुरक्षित रहे वहां अब नए मोर्चे चुनौती बन रहे हैं।

बात इटावा से शुरू करते हैं जो समाजवादी पार्टी मुखिया मुलायम सिंह का गृह जनपद होने के कारण खास सियासी अहमियत तो रखता ही है सरकार के घर का रुतबा भी उसके पास है। पिछले चुनावी समर में जसवंतनगर जैसे मजबूत गढ़ के अलग होने के बाद भी समाजवादी सेना लगातार तीसरी बार अपना किला महफूज रखने में कामयाब रही थी लेकिन सरकार की पड़ोस के संसदीय क्षेत्र में खास इनायत और बिगड़ी कानून व्यवस्था समाजवादियों के लिए मुसीबत का सबब बन रही है।

यही वजह है कि उपजे आक्रोश के चलते ही भाजपा से 1998 के बाद फिर करिश्मे की उम्मीद बढ़ रही है। भरथना जैसे मजबूत गढ़ के अलग होने के बाद भी बीते लोकसभा चुनाव में लगातार तीसरी बार भी सांसद बने सपा मुखिया के उत्तराधिकारी अखिलेश यादव ने फीरोजाबाद से फतह के बाद भी कन्नौज को तवज्जो दी। मुख्यमंत्री बन जाने के बाद सीट छोड़नी भी पड़ी तो कमान उन्होंने पत्नी को ही सौंपी।

समाजवादी रसूख की ही असर था कि उनके सामने कोई प्रतिद्वंदी नहीं आया और निर्विरोध सांसद बनीं। पर अब हालात जुदा हैं। महफूज किले में होकर भी समाजवादियों में अकुलाहट महसूस हो रही है। यही वजह है कि पिछली फतह सिपहसलारों के जरिए पा लेने वाले सूबे के वजीरेआला तमाम विकास, अबाध बिजली व वीवीआइपी तमगा देने के बाद भी पसीना बहाते दिख रहे हैं।

मोदी फैक्टर और कल्याण का साथ मिलने के बाद भाजपा का मजबूत हुआ मोर्चा चुनौती पेश कर रहा है। कमोवेश यही हालात हरदोई संसदीय सीट के हैं। लगातार दो बार से अजेय समाजवादी अबकी त्रिकोणीय मोर्चे में फंसे नजर आ रहे हैं। बेकदरी और दरियायी सितम झेलने के बाद भी गंगा और रामगंगा की कटरी से समाजवाद को टानिक मिलता रहा। अमूमन हर बार ही जातीय गणित के सहारे होती रही जंग में अबकी विकास, महंगाई और भ्रष्टाचार के मुद्दे हथियार बन रहे हैं।

यही कारण है कि मोदी फैक्टर के असर से करीब अठारह बरस बाद भाजपा फिर चुनौती पेश करने की हालत में नजर आ रही है। सत्ता के साथ ही दल बदलते रहे फिलहाल समाजवादी नरेश का तिलिस्म भी टूटता लग रहा है। हालांकि कोर वोट के बूते बसपा भी चुनौती पेश कर रही है। फर्रुखाबाद में परिसीमन के बाद बदले हालात में पिछले चुनाव में लगातार दो बार फतह के बाद जमीन खो चुके समाजवादियों की उम्मीद 2012 के विधानसभा चुनाव के नतीजों से फिर बलवती हुई।

विधानसभा में पांच में से चार सीटें लेकर समाजवादियों ने अपनी डा. राममनोहर लोहिया की कर्मभूमि पर हनक साबित कर दी, बची सीट से जीते निर्दलीय ने भी सपा का दामन थामा तो लगने लगा था कि 2009 में चमत्कारिक जीत पाने वाली कांग्रेस समाजवादी सैलाब के आगे ठहरने वाली नहीं। पर ऐन चुनाव के वक्त मंत्री पुत्र की बगावत ने सियासी तस्वीर ही उलट दी। कांग्रेस को तगड़ी चुनौती देती दिख रही सपा अब सीन से ही बाहर होती नजर आ रही है और उसकी जगह ले ली कल्याण सिंह के चहेते भाजपाई सूरमा ने।

कुछ ऐसे ही हालात समाजवादियों के गढ़ अकबरपुर संसदीय क्षेत्र क्षेत्र में भी हैं। संसदीय क्षेत्रों का भूगोल बदलने से पहले जिस किले को समाजवादियों ने सहेज कर रखा था उसे बीते चुनाव में कमजोर चुनौती के कारण चमत्कारिक रूप से कांग्रेस हथियाने में कामयाब रही। हालांकि तीन साल बाद ही समाजवादियों ने संसदीय क्षेत्र की पांच विधानसभा क्षेत्रों में से चार को कब्जे में लेकर फिर अपनी हनक साबित कर दी। तब लगा कि कांग्रेस के पास गए इस गढ़ को बचाने में समाजवादी कामयाब होंगे, पर भ्रष्टतंत्र, महंगाई और विकास की अनदेखी से पनपे गुस्से और मोदी फैक्टर ने हवा का रुख ही पलट कर रख दिया। जो सबसे मजबूत दावेदार लग रहे थे वह अब नेपथ्य में हैं जबकि भाजपा और बसपा के बीच मुकाबला होता नजर आ रहा है।

2009 में आलू बेल्ट की पांच संसदीय क्षेत्र की स्थिति

सपा- तीन

कांग्रेस- दो


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