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विदेशी मीडिया की नजर में

अंतरराष्ट्रीय मीडिया दम साधे चुनावों पर कयास लगाते हुए नतीजों का बेसब्री से इंतजार कर रहा है : द न्यूयॉर्क टाइम्स : सर्वे बता रहे हैं कि हिंदू राष्ट्रवादी भारतीय जनता पार्टी सबसे अधिक सीटें जीतकर सबसे बड़े दल के रूप में उभरेगी लेकिन उसको सरकार बनाने के लिए अपे

By Edited By: Published: Thu, 01 May 2014 03:56 AM (IST)Updated: Thu, 01 May 2014 12:42 PM (IST)
विदेशी मीडिया की नजर में
विदेशी मीडिया की नजर में

अंतरराष्ट्रीय मीडिया दम साधे चुनावों पर कयास लगाते हुए नतीजों का बेसब्री से इंतजार कर रहा है :

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द न्यूयॉर्क टाइम्स :

सर्वे बता रहे हैं कि हिंदू राष्ट्रवादी भारतीय जनता पार्टी सबसे अधिक सीटें जीतकर सबसे बड़े दल के रूप में उभरेगी लेकिन उसको सरकार बनाने के लिए अपेक्षित बहुमत नहीं मिलेगा। इसके लिए उसको एक या अधिक क्षेत्रीय दलों के सहयोग की जरूरत पड़ेगी। इस बात की बहुत क्षीण संभावनाएं हैं कि कांग्रेस को इतनी सीटें मिल सकें कि वह गठबंधन सरकार का हिस्सा बन सके। हालांकि वाइल्ड कार्ड के जरिये प्रवेश करने वाले कई दल भी चौंका सकते हैं।

द इकोनॉमिस्ट :

भारत की पिछली संसद फ्लॉप रही। यह कई कानूनों को बनाने में विफल रही। जरूरी सुधारों को लंबे समय तक लटकाये रखा गया। भ्रष्टाचार के मामले में सरकार कमजोर दिखी। जनता अपने राजनेताओं से इतनी आजिज आ गई कि उसने सड़कों पर उतरकर विरोध-प्रदर्शन करना उचित समझा..अब सवाल खड़ा होता है कि क्या पिछली बार की तुलना में इस दफा ज्यादा आकर्षक प्रत्याशी चुनावी मैदान में हैं। कई लोगों को निराशा होगी लेकिन इस बार भी वंशवादी, दागी, सेलेब्रिटी और समय खराब करने वाले चुनावी खम ठोंक रहे हैं..नागरिक संगठन एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉ‌र्म्स (एडीआर) ने अब तक चुनाव लड़ रहे 6,672 प्रत्याशियों के हलफनामों का विश्लेषण करने के बाद पाया है कि उनमें से 90 निरक्षर हैं। करीब एक चौथाई करोड़पति हैं..17 प्रतिशत प्रत्याशियों के खिलाफ आपराधिक मामले चल रहे हैं

द गार्जियन :

क्या नरेंद्र मोदी को कोई रोक सकता है? हाल में प्रतिष्ठित 'द इकोनॉमिस्ट' का यह सवाल लगभग पूरे विदेशी कवरेज की टोन को प्रतिध्वनित करता है। यूरोप इस तरह के अंतद्र्वद्व का शिकार रहा है। इटली में सिल्वियो बर्लुस्कोनी, रूस में व्लादिमीर पुतिन और हंगरी में विक्टर ओरबान के रूप में इनको देखा गया है। हर जगह निर्वाचकों को ऐसे नेता चुनने की आदत होती है जो उदारवादियों को पसंद नहीं होते-एक मायने में यही सवाल का जवाब होता है। यदि भारतीय नरेंद्र मोदी को चुनते हैं तो वह ऐसा इसलिए करेंगे क्योंकि वे मोदी को चुनने के लिए तैयार हैं। क्योंकि, भारतीय समाज में आए कुछ निश्चित बदलाव मोदी के लिए रास्ता तैयार कर रहे हैं और इसलिए भी कि भारत का सेक्युलर और बहुलवादी मॉडल (जिसे नेहरू स्टेट कहा जा सकता है) में पहले जैसी अपील नहीं रही। पहले भी यह कोई आकाशदीप नहीं रहा। गोवा पर अतिक्रमण, चीन और पाकिस्तान के साथ युद्ध, परमाणु कार्यक्रम, आपातकाल, इंदिरा गांधी की हत्या, विकास के मामले में पुराने समाजवादी मॉडल की विफलता और हाल में नए मुक्त बाजार के युग के रिकॉर्ड की अनदेखी नहीं की जा सकती। व्यवहारिक रूप से मोदी की राह में रोड़ा केंद्र और राज्यों में सहयोगियों की दरकार के रूप में देखा जा सकता है। जो भी संभावित चुनावी नतीजों से हैं, वे इस बात के लिए खुद को सांत्वना दे सकते हैं कि कोई भी पूरे भारत को कभी जीत नहीं पाया।


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