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दिल्ली की देहरी: सिर्फ दिखाने को सत्ता भारतीय महाराजाओं की होती थी

भारतीय राजा-महाराजा थे पर असल ताकत दरबारों में मौजूद अंग्रेज रेजिडेंट के हाथ में ही थी। अंग्रेज सरकार के इन प्रतिनिधियों के बिना रियासतों में कुछ नहीं होता था।

By Babita KashyapEdited By: Published: Sat, 01 Apr 2017 02:17 PM (IST)Updated: Sat, 01 Apr 2017 02:25 PM (IST)
दिल्ली की देहरी: सिर्फ दिखाने को सत्ता भारतीय महाराजाओं की होती थी
दिल्ली की देहरी: सिर्फ दिखाने को सत्ता भारतीय महाराजाओं की होती थी

जब एडवर्ड लुटियन और हरबर्ट बेकर ने अंग्रेजों की नई राजधानी नई दिल्ली के डिजाइन करने पर काम शुरू किया, उस समय ब्रितानी भारत में करीब 600 रजवाड़े-रियासत थीं। इन रियासतों के शासक दिखाने के लिए तो भारतीय राजा-महाराजा थे पर असल ताकत दरबारों में मौजूद अंग्रेज रेजिडेंट के हाथ में ही थी। अंग्रेज सरकार के इन प्रतिनिधियों के बिना रियासतों में कुछ नहीं होता था।

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इन राजाओं को अंग्रेजी राज का स्वामी भक्त बनाए रखने के लिहाज से भारत सरकार अधिनियम 1919 को शाही स्वीकृति देने के बाद 23 दिसंबर 1919 को अंग्रेज सम्राट जॉर्ज पंचम ने चैंबर ऑफ प्रिंसेस स्थापित करने की घोषणा की। इसे 'नरेंद्र मंडल' के नाम से भी जाना जाता था। 8 फरवरी 1921 को दिल्ली में चैंबर की पहली बैठक हुई। इस अवसर पर लालकिले के दीवान-ए-आम में आयोजित उद्घाटन समारोह में ड्यूक ऑफ कनाट ने अंग्रेज राजा के प्रतिनिधि के रूप में भाग लिया। 

प्रिंसेस के चैंबर की आरंभिक बैठक में देसी रियासतों के 120 राज प्रमुख सदस्य थे। इनमें से 108 राजा अति महत्वपूर्ण राज्यों के थे जो स्वयं ही सदस्य थे। जबकि शेष 12 सीटों के लिए 127 रियासतों में से प्रतिनिधि चुने जाते थे। जबकि शेष 327 छोटी रियासतों का चैंबर में कोई प्रतिनिधित्व नहीं था।

इस चैंबर का मुख्य काम रियासतों-रजवाड़ों से जुड़े विभिन्न मामलों पर अंग्रेज वायसराय को सलाह देना था। तत्कालीन वायसराय ने चैंबर के गठन के अवसर पर कहा था कि इसका मुख्य कार्य राज्यों को प्रभावित करने वाले या रजवाड़ों के समान विषय सहित ब्रितानी हुकूमत की भलाई के लिए जरूरी मामलों पर चर्चा करना है। वैसे भी, अंग्रेज सरकार ने प्रिंसेस के चैंबर की भूमिका कार्यकारी न रखकर सलाहकार के रूप में तय की थी। 

हर साल फरवरी या मार्च में चैंबर ऑफ प्रिंसेस की बैठक कांउसिल हाउस (आज का संसद भवन) के निर्दिष्ट हॉल में होती थी। किसी समय में विभिन्न रियासतों की सुंदर वेशभूषा में सजे-धजे शासकों से भरा रहने वाले हॉल का उपयोग अब संसद में सांसदों के अध्ययन कक्ष के रूप में होता है।

चैंबर ऑफ प्रिंसेस के गठन का एक सीधा परिणाम अंग्रेजों की नई राजधानी में राजा-महाराजाओं को स्थान देने के रूप में आया। आखिर चैंबर की बैठकों में हिस्सा लेने के लिए राजधानी आने पर दिल्ली में ठहरने के लिए जगह की जरूरत थी। इस जरूरत का परिणाम था, प्रिंसेस पार्क। आज के इंडिया गेट के आस-पास के क्षेत्र में महत्वपूर्ण रजवाड़ों के शासकों को महल बनाने के लिए आठ एकड़ आकार के 36 भूखंड पट्टे पर दिए गए। इस तरह, हैदराबाद, बड़ौदा, बीकानेर, पटियाला और जयपुर रियासतों को इंडिया गेट की छतरी के किंग्स वे (अब राजपथ) के चारों ओर स्थान आवंटित हुए। जबकि उनसे कम महत्व रखने वाले जैसलमेर, त्रावणकोर, धौलपुर और फरीदकोट के शासकों को केंद्रीय षट्भुज (सेंट्रल हैक्सागन) से निकलने वाली सड़कों पर निर्माण के लिए भूमि दी गई।

देश की आजादी तक कायम रहे चैंबर ऑफ प्रिंसेस (1921-1947) के चार चांसलर यानी प्रमुख हुए। ये बीकानेर के महाराज गंगा सिंह, महाराजा पटियाला सरदार भूपिंदर सिंह, नवानगर के महाराज रंजीत  सिंहजी और नवानगर के ही महाराज दिग्विजय सिंहजी तथा भोपाल के नवाब हमदुल्लाह खान थे।  

नलिन चौहान

(दिल्ली के अनजाने इतिहास के खोजी)


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