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जिया रजा बनारस

धार्मिक नहीं आध्यात्मिक शहर है यह, जहां जीवन और मृत्यु साथ चलते हैं...

By Pratibha Kumari Edited By: Published: Thu, 30 Mar 2017 02:00 PM (IST)Updated: Fri, 31 Mar 2017 02:08 PM (IST)
जिया रजा बनारस
जिया रजा बनारस

कुछ स्मृतियां मिटाए नहीं मिटतीं। इंसान की ही नहीं, शहर की भी। बनारस जो एक बार गया, वह इसे बखूबी महसूस कर सकता है। दुनिया के सबसे पुराने शहरों में से एक, जो दिल में तो आता है पर समझ में नहीं आता। इतना अनछुआ कि छू नहीं सकते, बस गंगा जल की तरह अंजुलि में भर सकते हैं। धार्मिक नहीं आध्यात्मिक शहर है यह, जहां जीवन और मृत्यु साथ चलते हैं...

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नदेसर की अड़ी। भांति-भांति के विचारक बैठे हैं यहां। ज्ञान गंगा बह रही है, चाय चल रही है और पान की गिलौरियां धड़ाधड़ मुंह में गायब हो रही हैं। वहीं एक हट्टे-कट्टे साहब चुप बैठे हैं। मुंह में ढेर सारा पान और आंखों में मुस्कान। परिचय कराया जाता है कि नागेश्वर सिंह हैं। आजकल बाबा से नाराज हैं, लिहाजा उनके यहां जाना छोड़ दिया है। बाबा यानी भगवान शिव। नाराजगी का कारण बताया गया कि साल भर पहले काशी विश्वनाथ मंदिर में दर्शन करने गए थे, जहां गिर पड़े और टांग टूट गई।
नागेश्वर सिंह केवल इतना बोले, बाबा होइहें तो अपने घरै क होइहें। आजकल बतकही बंद चलत हव। हम उनसे कह देहले हई कि, ‘अब बुलइबा, तबै आइब’। पाठकगण! टांग टूटने का भगवान से नाराजगी का कोई रिश्ता आप भले न तलाश सकें परंतु यही है बनारस। नागेश्वर सिंह की भक्ति में कमी नहीं है। वह पहले जैसी ही है बस, खटपट हो गई है प्रभु से। विश्वनाथ दरबार में सुबह मंदिर के कपाट खोले जाते समय किसी पुजारी को यह कहते हुए भी आप सुन सकते हैं, ‘उठा हो भोले। इतनी बेर हो गईल, अबहीं तक सुतले हउआ। चला अब दुनिया देखा।’ है भला कहीं और यह कहने की हिम्मत! चकाचक बनारसी भी किसी पंडे को ललकार गए, ‘अबे तेजुवा खोल किवाड़ी, आइल हौ यजमान।’
यही है बनारस और ऐसे ही होते हैं बनारसी। सीधे और सहज परंतु ठसक भरपूर। बहुत संतोषी जीव। आपने उनके बनारस का सम्मान किया तो शहर सिर पर बैठा लेगा, लेकिन नखरे दिखाए तो आपका अस्तित्व खत्म। फिर चाहे आप राजा हों या कुबेर। वैसे भी जिसने बाबा को साध लिया, वह काहे जग की फिकर करने लगा। कहा भी जाता है, ‘बनारस में सब गुरु, केहू नाहीं चेला।’ इसलिए बनारस को कृपया उसकी टूटी सड़कों और गंदी गलियों से न देखें। इनके बदले दुकान में खड़ा सांड़ देखें, ट्रैफिक जाम से निकलने की जगह लोगों से बहस करता और घाट पर मालिशिये से सेवा कराता बनारसी देखें। हल्कीफुल्की बातों में भी बनारस जीवन का मर्म बता देता है। आपने अकड़ दिखाई तो बनारसी समझा देगा-‘जा बेटा, तोरे जइसन छप्पन ठे के रोज चराइला।’ जवाहरलाल नेहरू बनारस को पूर्व दिशा का शाश्वत नगर मानते थे। बनारस और बनारसी किसी भी परिभाषा से परे हैं। बनारस जीने का नाम है। अपने भीतर उतरने का मार्ग है। प्रगति और तकनीक ने बनारस को भी बदला है। सिगरा और महमूरगंज की बहुमंजिला इमारतों का कल्चर दिल्ली, लखनऊ या किसी भी अन्य शहर जैसा ही है। पर बनारस देखना है तो घाटों पर समय बिताएं और पक्के महाल जाएं। सड़क किनारे चाय की बैठकी में शामिल हों और यह जानने की कोशिश करें कि सदा आनंदमग्न रहने की ऊर्जा बनारसी लाते कहां से हैं।
बनारस में लस्सी पी नहीं जाती, भिड़ाई जाती है-‘आवा रजा लस्सी भिड़ाय लिहल जाए।’ यही हाल ठंडाई का है और तभी बनारसी बरबस ही पूछ बैठता है, ‘भांग छनल कि नाहीं।’ यहां किसी भी गली में निकल जाएं, इन्हीं गलियों में आपको बनारस मिलेगा। अलसाता, धौंसियाता और पुचकारता हुआ। फूलों का व्यापार हो या साड़ियों और मोतियों का, बनारसी कला की प्रसिद्धि दूर-दूर तक है। सच पूछिए तो गाइड के साथ घूमने का शहर नहीं है बनारस। आप गए, कार ली-एक ठो गाइड पकड़ा और गंगा घूम आए, आरती देख ली, संकट मोचन और बाबा दरबार हो लिए, कुछ खा-पी लिया और लौटकर बताया कि बनारस इज वंडरफुल। नहीं साहब! बनारस वह समंदर है, जहां मोती वाली सीप खुद डूबने पर ही मिलेगी। मोती यानी उल्लास, उमंग, संगीत, साहित्य, कला, भोजन और सबसे बढ़कर जीवन का सार। ...और एक जीवन भी कम है बनारस की यात्रा के लिए!

- आशुतोष शुक्‍ला

साहित्य, कला और संस्कृति का अनूठा संगम

कोने-कोने में हैं यहां कलाकार
कबीरचौरा से रामापुरा तक पुराने बनारस के इर्द-गिर्द फैले क्षेत्र में शताब्दियों से दिन-रात संगीत के सुर फैलते रहे हैं। शिव की नगरी काशी के कोने-कोने में रचते-बसते रहे हैं कलाकार। बनारस ‘चार पट’ की गायिकी के लिए प्रसिद्ध रहा है। बनारस घराने के गायक धु्रपद-धमार, खयाल, ठुमरी व टप्पा चारों में महारत रखते रहे हैं। ठुमरी यहां की प्रसिद्ध रही है तो खयाल में भी धाक है। तबला भी अलग अंदाज में बजता है। इस घराने की ‘लग्गी लड़ी’ खासी प्रसिद्ध है। इसमें तबला पखावज का असर दिखाता है। ठुमरी में तबला खास विशिष्टता भरता है। यही स्थिति कथक, शहनाई, सितार आदि विधाओं की भी है। संगीत की विविध विधाओं का अनूठा संगम काशी में देखने को मिलता है।
- पंडित साजन मिश्र, शास्त्रीय गायक

मन की तरंग, आंखों का गुमान
इसे आनंदवन कहें, काशी कहें, बनारस कहें या वाराणसी, सब नामों में एकरसता है। हृदय आनंद से भर जाता है और आंखों में चमक आ जाती है। गंगा के तट पर बसी यह प्राचीन नगरी साहित्य, कला, संस्कृति का तीर्थ है। संगीत इस नगरी का प्राण तत्व है। कहते हैं अगर यहां के श्रोताओं से वाह-वाही मिल गई तो जग में जीत निश्चित है। संगीत उत्सवों में गायन, वादन और नृत्य की त्रिवेणी का दर्शन होता है। मेरे हृदय में काशी निरंतर झंकृत होती
रहती है। काशी को समझने के लिए यहां के संगीत को समझना होगा। यह महान संतों, अलमस्त फकीरों, साधुओं, बौद्ध भिक्षुओं व ज्ञानियों की नगरी है, जिसका प्रभाव यहां के संगीत पर स्पष्ट दिखाई देता है।
- डॉ. रेवती साकलकर, शास्त्रीय गायिक

मिजाज बताती है बनारसी बोली
‘जिया रजा बनारस’ महज इन तीन शब्दों में इतनी आत्मीयता और मिठास है कि फिर कुछ कहने और सुनने को नहीं रह जाता। बड़ा ग्रहणशील नगर है यह। हर देश-प्रांत की बोली-भाषा से कुछ न कुछ सीखते हुए बड़ा हुआ, पर अपने फक्कड़पन और अल्हड़ मस्ती का रंग न भूल सका। इनसे कोई समझौता किए बगैर हरेक मिजाज को जीने वाला शहर है यह। जाति-धर्म के भाव से पूरे मौज में रहता है। यह बात यहां की बोली से बखूबी समझ जाएंगे। बनारसी साहित्य सर्जना पर नजर डालें। भारतेंदु हरिश्चंद्र ‘सेवक गुनीजन के, नगद दामाद अभिमानी के...’ में मान-स्वाभिमान साफ दिखाते हैं। बनारस आने पर तुलसीदास पर भी यही रंग चढ़ता है, लांछन और टीका-टिप्पणी पर कवितावली में लिख पड़ते हैं-‘धूत कहौ, अवधूत कहौ, रजपूत कहौ, जोलहा कहौ कोउ। काहु की बेटी से बेटा न ब्याहब, काहु की जात बिगाड़बै न कोउ। मांगि के खइबो, मसीति में सोउबो, लेइबेको एक न देइबे को कोउ।...’ संत कबीर से लेकर प्रसाद, प्रेमचंद, धूमिल और लगभग हर कलम से यह वैशिष्ट्य पन्नों पर उतरता जाता है। बनारसीपन में रमे-जमे साहित्यकार डॉ. जितेंद्रनाथ मिश्र बताते हैं कि किसी भी बोली का स्वरूप या विकास अपभ्रंश की गोद से होता है। बोलियों का इतिहास हजार वर्ष से अधिक का नहीं। बनारस में ही बनारसी भोजपुरी कबीरचौरा, गायघाट, बड़ी बाजार और मदनपुरा में अलग-अलग पुट लेती है। लिंग्विस्टिक सर्वे ऑव इंडिया के प्रणेता जॉर्ज अब्राहम ग्रियर्सन के आग्रह पर जनगणना के दौरान बोलियों पर भी कार्य किया गया था, जिसमें बनारसी समेत अन्य बोलियों का स्वरूप सामने आया।
 

माटी से जुड़ाव
गमछा उठाए, लंगोट पहने और अखाड़े की ओर निकल पड़े माटी में लोटने यानी पहलवानी करने। लंगोट की मजबूती मुहावरे के तौर पर मशहूर है यहां। युवकों में इसे लेकर खूब उत्साह रहा है। पहलवानी कभी यहां प्रतिष्ठा का प्रतीक थी। परिवार की शान में गिनी जाती थी। अखाड़ों की संख्या बताती है कि बनारस अखाड़ों के इस मस्तमौलापन के लिए भी लोकप्रिय है। पहले हर मोहल्ले में अखाड़े थे, लेकिन आज ज्यादातर के नाम बचे हैं, जैसे-पंडाजी का अखाड़ा, राज मंदिर अखाड़ा, अधीन सिंह अखाड़ा, स्वामीनाथ अखाड़ा आदि।

सुहाग का प्रतीक बनारसी साड़ी
लाल, हरी, नीली व अन्य गहरे रंग की बनारसी साड़ियां सुहाग का प्रतीक मानी जाती हैं। चूड़ी और सिंदूर की तरह ही इसका महत्व है। मशीनी युग में भी ये साड़ियां हाथकरघे से बुनी जाती हैं। धातु के तारों से बारीकी से किया जाने वाला जरी का काम इन साड़ियों को विश्व-प्रसिद्ध बनाता है। पुराने समय में ये तार सोने, चांदी के हुआ करते थे, लेकिन अब मिश्र धातु व सिंथेटिक तारों का प्रयोग भी जोरों पर है। लिहाजा बनारसी साड़ियां अब हर वर्ग के बजट में फिट हैं। मुगल काल में यह कला यहां आई। कहते हैं, एक साड़ी तैयार करने में छह माह से अधिक वक्त लगता है।
 

मस्ती व अक्खड़पन साथ-साथ
हर युग में काशी अध्यात्म, संस्कृति और शिक्षा का केंद्र रही है। किसी मत का प्रवर्तन करना हो या उसका खंडन, सब काशी आकर ही होता था। यह प्रयोग भूमि के रूप में जाना गया। बुद्ध ने ज्ञानबोध गया में प्राप्त किया पर धर्म चक्र प्रवर्तन के लिए ऋषि पत्तन यानी सारनाथ, वाराणसी आए। ऋषि पत्तन यानी उड़ते हुए ऋषि इस भूमि पर उतरते थे। यह काव्यात्मक अभिव्यक्ति इसी सत्य की ओर संकेत करती है - चारों दिशाओं में उड़ रहे विचारों को जमीन ऋषि पत्तन में मिलती है। वेदांत के सबसे बड़े प्रवक्ता आदिगुरु शंकराचार्य दक्षिण से काशी आए। महान संत नानक और दाराशिकोह काशी आए। संत पुण्य सलिला गंगा के सान्निध्य में तप करने मोक्षदायनी काशी आए। यहीं कबीर ने अपने विरोधी स्वर का गान किया। निर्गुण की गूंज सुनाई पड़ी। तुलसी यहीं पर राम के गीत गाते हैं। छत्रपति शिवाजी महाराज के राज्याभिषेक के लिए गागा भट्ट काशी से जाते हैं। महान विचारक, स्वतंत्रता सेनानी,कर्मयोगी भारत रत्न पंडित मदन मोहन मालवीय ने भी यहीं काशी हिंदू विश्वविद्यालय की स्थापना की। कह सकते हैं, जिसे काशी ने स्वीकार किया, वह जग का हो गया। दरअसल, काशी आध्यात्मिक, सांस्कृतिक और सामाजिक संवाद की प्रयोगशाला रही है। यहां विरोध के साथ-साथ स्वीकृति भी समान रूप से मौजूद है। कल ही नहीं, आज भी काशी का स्वरूप नहीं बदला। हजारों वर्षों से यह नगर अपनी मस्ती और अक्खड़पन में जी रहा है। वाराणसी सिर्फ एक शहर नहीं, सभ्यता है। एक साथ यह कई युगों को जी रहा है। मेरे पिता इस शहर में पढ़े। मैं इसी शहर से गालियां भी पाईं और आशीर्वाद भी। क्या बनारस भी बदल जाएगा? भविष्य में बनारस हमारी सभ्यता और संस्कृति का खंडहर भर रह जाएगा? यह सोचते ही भीतर से आवाज आती है न बाबा, बना रहे बनारस।
चंद्रप्रकाश द्विवेदी, फिल्मकार

कण-कण में शिव का वास
काशी को ऐसे ही धार्मिक, सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक राजधानी नहीं कहा जाता है। काशी ही एकमात्र ऐसा नगर है, जो ज्यों का त्यों स्थापित है। यहां कण-कण में शिव का वास माना जाता है। पुराणों के अनुसार, यहां प्रमुख रूप से 324 मुख्य शिवलिंग हैं। बिना शक्ति के शिव कोई सृजन कार्य नहीं कर सकते हैं। अत: यहां पर 324 देवियां भी हैं। यह संख्या 108 के तीन से गुणा करने पर आती है। यह संख्या सिर्फ यहीं पर है। 12 काल, नौ दिशा और तीन लोक का गुणा किया जाए तो 324 की संख्या होती है। नगर में सूर्य के कुल 14 मंदिर हैं। यमादित्य से सीधी रेखा पर मकर संक्रांति (14 जनवरी) को सूर्य सीधा प्रकाशित होता है। उत्तर में स्थित उत्तरार्क (बकरिया कुंड) एवं दक्षिण में कर्णादित्य (दशाश्वमेध) की लंबवत रेखा ब्रह्मांडीय उत्तर दिशा को निश्चित करती है। दक्षिण में लोलार्क के सूर्य पर 14 अगस्त को सूर्य की सीधी किरणें पड़ती है। इस प्रकाश लोलार्क से उत्तरार्क के अद्र्ध-वृत्ताकार क्षितिज पर 10 सूर्य मंदिर हैं। छठी से नवीं शताब्दी के बीच इनकी स्थापना की गई थी। काशी ही एकमात्र नगर है, जहां 3500 मंदिर एवं 1388 मुस्लिम पवित्र स्थल हैं। यहां 14 ऐसे सूफी संतों की मजार है ,जहां पर हिंदू व मुसलमान सभी जाते हैं।
-प्रो. राणा पीबी सिंह, पूर्व अध्यक्ष-भूगोल विभाग, काशी हिंदू विश्वविद्यालय

मलइयो का स्वाद लाजवाब
केवल भारत नहीं, दुनिया भर में मशहूर है इस शहर का खानपान। कोई गली कचौड़ी-जलेबी के लिए मशहूर है तो कोई मलइयों के लिए। कहीं रसमलाई तो कहीं चटपटी चाट। व्यंजनों के मामले में यहां के हर गली-मोहल्ले खास हैं। जो देखने में ठोस, द्रव, गैस तीनों का भरम जगाए और गले से उतरते ही करेजा तर कर जाए, उस छुई-मुई जादुई मिठाई को ‘मलइयो’ कहते हैं। शुद्ध दूध से निर्मित इस व्यंजन को खाने के लिए बनारसियों के अलावा ठंड के मौसम में काफी संख्या में दूसरी जगहों के लोग भी काशी आते हैं। चमत्कारी तो ऐसी कि कुल्हड़ के कुल्हड़ हलक से उतर जाने के बाद भी आप अंत तक तय नहीं कर पाएंगे कि आपने मलइयो खाया है या पीया है। संकरी गलियों में बसे पक्के महाल के ‘यादव बंधुओं’ का मलइयो बनाने का फार्मूला अब भी वैद्यराज धन्वंतरि के आयुर्वेदिक सूत्रों से कम गोपनीय नहीं है। केसर मिश्रित खालिस दूध की फेटाई और मथाई का है यह सारा कमाल।
पक्के महाल के चौखंभा में ‘राम भंडार’ की कचौड़ी का स्वाद लेने के लिए सुबह से ही ग्राहकों की कतार लगती है। इसके अलावा कचौड़ी गली में राजबंधु की प्रसिद्ध मिठाई की दुकान में काजू की बर्फी, हरितालिका तीज पर केसरिया जलेबी व गोल कचौड़ी, ठठेरीबाजार में श्रीराम भंडार की तिरंगी बर्फी के क्या कहने...।

ये भी हैं यहां की अनमोल धरोहर
चेत सिंह किला : काशीराज परिवार की देशभक्ति की गाथा स्वरूप चेत सिंह किला शिवाला में गंगा तट पर है। चेत सिंह के प्रताप से वॉरेन हेस्टिंग्स को यहां से भागना पड़ा था।
रानी लक्ष्मी बाई जन्म-स्थली : भदैनी (अस्सी) पर रानी लक्ष्मी बाई की जन्म स्थली गर्वानुभूति कराती है। काशी की बेटी की स्मृतियों को संजोते हुए पर्यटन विभाग की ओर से इसे सजाया-संवारा गया है।
जैन तीर्थंकर स्थल : बनारस में जैन धर्म के चार तीर्थंकरों के भी स्थल हैं। इनमें सारनाथ में श्रेयांसनाथ, चंद्रावती में चंद्रप्रभु तो शिवाला व भेलूपुर में जैन तीर्थंकरों की स्थलियां हैं।
मुंशी प्रेमचंद की लमही : आजमगढ़ रोड पर शहर से तीन किलोमीटर दूर मुंशी प्रेमचंद की जन्म स्थली लमही है। इसे स्मारक के रूप में संरक्षित किया गया है।
राजदरी व देवदरी जल प्रपात: काशी से 45 किमी. दूर पहाड़ों के बीच राजदरी व देवदरी जल प्रपात मन मोह लेते हैं। चंद्रप्रभा वन्य जीव विहार भी आकर्षण का केंद्र है। नौगढ़ का किला भी देखा जा सकता है।
लाल बहादुर शास्त्री स्मारक : गंगा पार रामनगर में दुर्ग के समीप पूर्व प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री की जन्म स्थली है। इसे उनके स्मृति चित्रों से सजाया गया है।

- बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) एशिया का सबसे बड़ा आवासीय शैक्षणिक संस्थान है।
- गंगा नदी के किनारे बसा सर्वाधिक 84 घाटों वाला शहर है।
- बुद्ध, शंकराचार्य, रामानुज, वल्लभाचार्य, कबीर, नानक, तुलसी, चैतन्य महाप्रभु, रैदास आदि अनेक संत इस नगरी में आए।

प्रसिद्ध अमेरिकी लेखक मार्क ट्वेन ने कहा है, ''बनारस इतिहास से भी पुरातन है, परंपराओं, किंवदंतियों से भी पुराना। जब इन सबको एकत्रित करें तो यह उस संग्रह से भी दोगुना प्राचीन है।''

इनपुट सहयोग : वाराणसी से प्रमोद यादव, रवींद्र प्रकाश त्रिपाठी, 
मुकेश श्रीवास्तव।

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