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नजाकत व नफासत का शहर लखनऊ

जब कभी नजाकत, नफासत और तहजीब की बात आती है, तो आमतौर पर सबसे पहले जिस शहर का नाम जेहन में आता है, वह लखनऊ ही है। इस नवाबी शहर के तिलिस्म से बच पाना मुमकिन नहीं।

By Pratibha Kumari Edited By: Published: Thu, 06 Apr 2017 11:46 AM (IST)Updated: Thu, 06 Apr 2017 01:19 PM (IST)
नजाकत व नफासत का शहर लखनऊ
नजाकत व नफासत का शहर लखनऊ

मन तड़पत हरि दर्शन को आज...’, मौसी के कानों में जब भी इस गाने के बोल पड़ते थे, उनका स्थायी सवाल होता, ‘को गा रहा है?’ जवाब में मोहम्मद रफी का नाम बताते ही कह उठतीं, ‘ई गावै-बजावै वाले तर जइहैं’। इस अमर गीत को संगीत में पिरोने वाले नौशाद लखनऊ में ही जन्मे, पले थे। लाटूश रोड पर आज भी वह दुकान आबाद है, जहां से निकल कर नौशाद ने पूरी दुनिया में अपने फन का डंका बजाया। लखनऊ महज एक शहर नहीं, बल्कि मिजाज है। यहां की हवाओं में नेह भरा आमंत्रण है। फिजा में संगीत की सुमधुर स्वर लहरियां सुनाई देती हैं। यह दुनिया के उन चुनिंदा शहरों में से एक है, जो गोमती नदी के दोनों किनारों पर आबाद है। लखनऊ की शाम तो विश्वप्रसिद्ध है।

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हर बात में अलहदा: हजरतगंज का एक चक्कर लगा लीजिए, तो चोला मस्त हो जाएगा। लखनऊ के नवाब जहां अपनी नजाकत, नफासत के साथ ही स्थापत्य के लिए जाने गए, वहीं अंग्रेजों ने भी इल्म का परचम फहराने में पूरा जोर लगा दिया। बड़ा इमामबाड़ा, छोटा इमामबड़ा हो या भूलभुलैया या घंटाघर, नवाबी दौर कीतमाम इमारतें अब भी तनकर खड़ी पर्यटकों को आमंत्रण देती दिखती हैं। लखनऊ की गलियों के तो क्या कहने, कंघी वाली गली से लेकर बताशे वाली गली तक यहां मौजूद है। यूं भी कह सकते हैं कि वह कौन-सी गली है, जो लखनऊ में मौजूद नहीं। जी हां, चोर वाली गली भी है यहां।

लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के उद्घोष ‘स्वराज हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है’ की प्रेरणा आज से डेढ़ सौ वर्ष पूर्व मुंशी नवलकिशोर द्वारा लखनऊ की सरजमीं से की गई घोषणा ‘आजादी हमारा पैदाइशी हक है’ से उपजी थी।लखनऊ से ही सूफी फकीर हजरत मोइनुदीन चिश्ती, हजरत निजामुद्दीन की पुस्तकों के प्रकाशन का श्री गणेश हुआ। लखनऊ की पृष्ठभूमि रजत पट को भी खासी भाती रही। अपने दौर की चर्चित और यादगार फिल्मों की शूटिंग और प्रेरणा यहीं हुई और यहीं के लेखकों-कलाकारों ने उन्हें समृद्ध किया। यहां का नॉनवेज भोजन दुनियाभर में मशहूर है। यहां तक कि नॉनवेज वाले चेहरा पढ़ना भी जानते हैं। एक वाकया है। एक होटल में मैंने रोस्टेड चिकन की डिमांड की। उसने पहले तो मुझे घूरकर देखा, फिर बड़ी नजाकत के साथ कहा,‘अमां मियां, चेहरे से तो आप गोश्तखोर लगते नहीं।’
ऐसा नहीं कि लखनऊ फकत नॉनवेज का शहर है, यहां की चाट भी ऐसी है कि बस चाटते ही रहो। लखनऊ शायद अकेला ऐसा शहर है, जहां के हींगयुक्त समोसे इसका जायका बढ़ा देते हैं। यह एक प्रयोगधर्मी शहर है। मिष्ठान के नित नूतन अन्वेषण होते रहते हैं यहां। किस्सा है कि नवाब वाजिद अली शाह को जर्दायुक्त पान की जबर्दस्त लत लग गई थी। हकीमों ने भी उन्हें इस लत से बाज आने को कहा, पर वह न माने। आखिर हलवाई राम आसरे को बुलवाया गया और ऐसी मिठाई तजवीजने को कहा गया, जो सेहत को नुकसान भी न पहुंचाए और पान का मजा भी दे। कुछ यूं ही आविष्कार हुआ यहां मलाई गिलौरी का।
पहले आप की संस्कृति: मिजाज में नजाकत और अंदाज में नफासत। लखनवी की नजाकत का जिक्र अक्सर किसी नामालूम शायर के इस शेर से होता है, अल्लाह रे नाज़ुकी, ये चमेली का एक फूल/सिर पर जो रख दिया तो कमर तक लचक गई। नफासत का नमूना यहां की ‘पहले आप’ वाली संस्कृति है, जो दुनियाभर में मशहूर है।इसीलिए तो कहते हैं, हम फिदा-ए-लखनऊ, है किसमें हिम्मत जो छुड़ाए लखनऊ...! 
- राजू मिश्र

इत्र की तरह महकता है मेरा शहर 
अपने शहर को जीता हूं मैं। मेरी हर रचनात्मक गतिविधि में इसकी झलक पाएंगे आप। लेखन हो, फिल्म निर्माण हो या फैशन डिजाइनिंग, हर चीज, हर काम में लखनऊ इत्र की तरह महकता है। धर्म-संस्कृति या जाति जैसे तमाम भेदभावों से दूर जाकर सबको खुशी-खुशी गले लगाने की प्रेरणा यहीं से पाता हूं मैं। यहां की भाषा-संस्कृति-नृत्य या कला की हर विधा, परंपरा में यही एक बात है जो सबसे ज्यादा उभरकर सामने आती है। तहजीब और अदब से पेश आने की कला यहीं से सीखते हैं लोग। पर अब लखनऊ बदल रहा है। शहरीकरण ने इसे भी आधुनिक जामा पहनाकर नए दौर की रंगत में ढालने की कोशिश की है। ट्रैफिक और शोर-शराबा अब यहां भी नजर आता है। इस बदलाव को देखकर आप कुछ पल के लिए पुराने लखनऊ जा सकते हैं, लेकिन जैसे ही आप यहां के नवाबों के बागों की सैर करने जाएंगे, यहां की सांस्कृतिक धरोहरों को निहारने जाएंगे, तो लखनऊ दोबारा अपने आगोश में ले लेगा और फिर से आप इसके मुरीद हो जाएंगे। यह देश के सबसे बड़े राज्य की राजधानी है। आसपास के लोग यहां बसना चाहते हैं। बसने का सबसे बड़ा कारण मेरी समझ से एक ही है- यहां की आबो-हवा में तैरने वाली सौहाद्र्र और भाईचारे की खुशबू। पर्यटन की नजर से यहां काफी संभावनाएं हैं। शहर खूब तरक्की करे। यह एक ग्लोबल सिटी बन जाए। इसका जोर-शोर से चौतरफा विकास किया जाए, पर इसकी वास्तविक पहचान कभी न खो पाए। हमेशा कायम रहे।
- मुजफ्फर अली, फिल्मकार
इंटरैक्शन : सीमा झा

जायके का जवाब नहीं


गलावटी कबाब हो, नहारी-कुल्चा या फिर शाही कोरमा, अवधी कुजिन यानी व्यंजनों की शान हैं ये। इनकी खुशबू देश-विदेश हर जगह फैली हुई है। पुराने दिनों की याद ताजा कर नवाबीन-ए-अवध के वंशज नवाब जाफर मीर अब्दुल्लाह बताते हैं, ‘नवाबों के जमाने में अवध में बड़े-बड़े दस्तरखान सजाए जाते थे, जिन पर एक से बढ़कर एक स्वादिष्ट व्यंजन शामिल किए जाते थे। नवाब शुजाउद्दौला बहादुर ने कोरमा और गलावटी कबाब ईजाद किया। बादशाह नसीरुद्दीन हैदर के जमाने में ‘शीरमाल’ का चलन शुरू हुआ। दिल्ली, मुंबई सहित दुबई व सऊदी अरब आदि हर जगह ‘नहारी-कुल्चे’ का चलन है, जो लखनऊ की ही देन है। यहां बिरयानी खास तरह से तैयार की जाती है, जो पुलाव की तरह होती है। इसलिए इसको ‘बिरयानी पुलाव’ भी कहा जाता है। शीर की तरह यहां पर शीरनी की शुरुआत हुई। शाही टुकड़ा भी यहीं की देन है। अवधी कुजिन की सबसे खास बात यह है कि यह पकवान न केवल स्वादिष्ट है, बल्कि सेहत के लिहाज से भी बेहतरीन है। इसमें मसालों के साथ कई तरह की जड़ी-बूटियों का भी प्रयोग  होता है। ठंडाई के शौकीनों के लिए चौक में राजा की ठंडाई मशहूर है। चार पीढ़ियों से चल रही इस ठंडाई की दुकान पर पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी, साहित्यकार अमृतलाल नागर, भगवती शरण वर्मा, कुमुद नागर जैसे विद्वानों का जमावड़ा भी लगता था। लंदन, यूके, यूएसए, सऊदी अरब, पाकिस्तान आदि देशों के लोग भी यहां की ठंडाई का मजा ले चुके हैं। दुकान के मालिक राजकुमार त्रिपाठी बताते हैं, ‘हमारी ठंडाई में बादाम, पिस्ता, सफेद गोल मिर्च, केसर, गुलकंद के अलावा कुछ ‘सीक्रेट’ मसाले भी डाले जाते हैं। सर्दी व गर्मी में कुछ मसाले घटाए-बढ़ाए जाते हैं, लेकिन स्वाद वही मिलता है। सर्दियों में चौक चौराहे पर मक्खन-मलाई का मजा भी ले सकते हैं। इसे तैयार करने में बड़ी मेहनत करनी पड़ती है। रात भर ओस की ठंडक में रखना पड़ता है।

दिलों में रस घोलते लखनवी बोल
लखनऊवासी बोलचाल के विनम्र तरीकों के लिए जाने जाते हैं। कहते हैं ये अपने अंदाजेबयां से दुश्मनों को भी अपना मुरीद बना सकते हैं। एक बार जो लखनऊ गया, वह इसके तिलिस्म से बाहर नहीं निकल पाता और इसकी खास वजह है यहां की मिठासभरी जुबान। यहां उर्दू और हिंदी दोनों ही भाषाएं बोली जाती हैं। नवाबों के दौर में उर्दू यहां फली-फूली और एक परिष्कृत भाषा के रूप में बदल गई। बृजनारायण चकबस्त, हैदरअली आतिश, विनय कुमार सरोज, आमीर मीनाई, मिर्जा लखनवी और महान मीर तकी मीर ने उर्दू कविता/ शायरी को नई बुलंदियों पर पहुंचाया और भाषा के लखनवी रूप को स्थापित किया। क्रांतिकारी रामप्रसाद बिस्मिल, जिन्हें लखनऊ के निकट दिलों में रस घोलते लखनवी बोल गंगा-जमुनी तहजीब की मिसाल काकोरी में अंग्रेजों द्वारा फांसी दी गई थी, वे ‘बिस्मिल’ नाम से शायरी करते थे। यहां के आसपास के इलाकों, जैसे- काकोरी, दरयाबाद, बाराबंकी, रुदौली और मलीहाबाद ने ख्यातिलब्ध उर्दू कवियों को जन्म दिया। इनमें मोहसिन काकोरवी, मजाज, खुमार बाराबंकवी और जोश मलीहाबादी आदि के नाम प्रमुख हैं। मीर अनीस और मिर्जा दबीर नामक दो शायर ‘मर्सिया’ (शोकगीत) विधा के जनक माने जाते हैं।
- जोश मलीहाबादी शायर

मशहूर लखनवी चिकनकारी
चिकनकारी के लिए लखनऊ मशहूर है। चौक स्थित चिकन कपड़ों के डिजाइनर स्टूडियो चलाने वाले हमजा जुबैर के अनुसार, चिकनकारी की डिमांड बढ़ गई है। यासीनगंज में जरी, आरी जरदोजी वर्क से जुड़े मो. मुइजुद्दीन फैजी कहते हैं, आज भी ब्राइडल लहंगों, गरारे, शेरवानी और ड्रेस मैटीरियल में लखनवी हैंडवर्क में आरी जरदोजी वर्क ही डिमांड में है। शौर्य श्रेष्ठ कहते हैं, हम आरी जरदोजी वर्क के क्लच, पर्स, कुशन, वॉल हैंगिंग आदि बनाते हैं, जिसे देशी-विदेशी पर्यटक खूब पसंद करते हैं।

गंगा-जमुनी तहजीब की मिसाल
भारत विभाजन के समय जब पूरा भारत सांप्रदायिक दंगों की आग में जल रहा था, लखनऊ इससे अछूता रहा। दरअसल, लखनऊ के नवाबों द्वारा विकसित और पोषित गंगा-जमुनी सभ्यता को इसका श्रेय दिया जाता है। लेखक सफदर हुसैनी अपनी प्रसिद्ध पुस्तक लखनऊ की ‘तहजीबी मिरास’ में लिखते हैं कि नवाब आसफुद्दौला फागुन में पड़ने वाले होली के त्योहार पर उस सस्ते जमाने में पांच लाख रुपये खर्च करते थे। इसके तहत नृत्य, स्वांग व आतिशबाजी का भव्य आयोजन होता था। खुद नवाब होली के कुछ धार्मिक विधि-विधान का प्रतीकात्मक निर्वाह करते थे। फारसी व उर्दू के प्रसिद्ध विद्वान मिर्जा कतील भी इसी बात को अपनी रचनाओं में पेश करते हैं। होली के अवसर पर होने वाले कार्यक्रम में महल की महिलाएं भी हिस्सा लेती थीं। वे अक्सर अंग्रेज संन्यासी व मुगल दरबारी का रूप धरकर आती थीं। मुसलमान भी दिया जलाते थे, चीनी के खिलौने खरीदते थे। मुसलमान शासकों की धर्म के प्रति उदारता का यह परिणाम निकला कि हिंदू भी उनके धार्मिक कार्यकलापों में पूरी निष्ठा से भाग लेने लगे। मुहर्रम के अवसर पर न केवल हिंदू आवाम की भागीदारी रहती थी, बल्कि राजा मेवा राम, राजा टिकैत राय, राजा मेहरा और झाऊ लाल ने विभिन्न स्थानों पर इमामबाड़े भी बनवाए। हिंदू ताजियेदार भी थे। इस गंगा-जमुनी संस्कृति का प्रभाव यहां के खानपान पर भी पड़ा। अवधी खाना ईरानी, मुगल व स्थानीय भोजन का मिश्रण है। पूरे हिंदुस्तान में शेरवानी लोकप्रिय थी और लखनऊ में अचकन का आविष्कार हुआ। दिल्ली के मुगल शासक जब अपने वैभव के चरम पर थे, तब दिल्ली उर्दू साहित्य का केंद्र थी, किंतु 1707 में औरंगजेब की मृत्यु के साथ जब मुगल दरबार की रौनक फीकी पड़ने लगी तो लखनऊ भी उर्दू साहित्य और विशेषकर शायरी का एक केंद्र हो गया। इसके प्रवर्तक थे शायर आतिश और शायर इमाम बख्श नासिख। कहते हैं मिर्जा गालिब की शायरी भी कुछ सीमा तक नासिख से प्रभावित थी। नासिख का यह शेर आज भी लोगों की जुबान पर है-‘जिंदगी जिंदादिली का नाम है। मुर्दा-दिल क्या खाक जिया करते हैं।’
- रवि भट्ट, इतिहासकार

नृत्य और संगीत की जीवंतता



भारतीय शास्त्रीय नृत्य ‘कथक’ को लखनऊ में एक नया रूप मिला। अवध के अंतिम नवाब वाजिद अली शाह कथक के आश्रयदाता तथा उस्ताद थे। लच्छू महाराज, बिरजू महाराज, अच्छन महाराज और शंभू महाराज ने इस परंपरा को जीवित बनाए रखा है। प्रसिद्ध कथक नृत्यांगना कुमकुम धर कहती हैं, ‘देश में जयपुर, बनारस और लखनऊ कथक के तीन घराने हैं। इनमें लखनऊ बड़ा घराना है। मुझे लच्छू महाराज जी की शिष्या बनने का सौभाग्य मिला। उनकी इस विधा को आगे बढ़ाने का प्रयास कर रही हूं। जिस तरह लखनऊ की चिकनकारी, इत्र आदि में परिष्कृत काम देखने को मिलता है, वैसे ही कथक में भी वह बात नजर आती है।’ गजल गायिका बेगम अख्तर भी लखनऊ की हैं। उन्होंने गजल विधा को चरमोत्कर्ष पर पहुंचाया। उनकी शिष्या सुनीता झिंगरन उन्हें याद करते हुए कहती हैं, ‘लखनऊ के भातखंडे संगीत महाविद्यालय का नाम यहां के महान संगीतकार पंडित विष्णु नारायण भातखंडे के नाम पर रखा हुआ है। यह संगीत का मंदिर है, जहां बेगम अख्तर ने ठुमरी और दादरा की शिक्षा दी। आज भी ठाकुरगंज के अंबरगंज एरिया में स्थित उनकी मजार पर जाती हूं और अपनी हर नई धुन को सबसे पहले उन्हें ही सुनाती हूं। वे लखनऊ की शान हैं।’
- बेगम अखतर, गायिका

बॉलीवुड की शान
अवध से कई पटकथा लेखक व गीतकार हुए हैं। नौशाद, मजरूह सुलतानपुरी, कैफी आजमी, जावेद अख्तर, अली रजा, भगवती चरण वर्मा, डॉ. कुमुद नागर, डॉ. अचला नागर (निकाह, बागबान), वजाहत मिर्जा (मदर इंडिया व गंगा जमुना के लेखक), अमृतलाल नागर, अली सरदार जाफरी व व्यंग्यकार के.पी. सक्सेना (‘लगान’ के लेखक) ने भारतीय सिनेमा को अपनी प्रतिभा से धनी बनाया। लखनऊ की सरजमीं पर बहुत-सी मशहूर फिल्में बनी हैं। बहुत-सी हिंदी फिल्में या तो लखनऊ में बनी हैं या उनकी पृष्ठभूमि लखनऊ की है।
- आतमजीत सिंह, वरिष्ठ रंगकर्मी

छोटा इमामबाड़ा
इसका वास्तविक नाम ‘हुसैनाबाद इमामबाड़ा’ है। इसे मोहम्मद अली शाह ने साल 1837 में बनवाया था। सआदत अली का यह मकबरा बेगम हजरत महल पार्क के समीप है। इसके साथ ही खुर्शीद जैदी का मकबरा भी बना हुआ है। यह मकबरा अवध वास्तुकला का शानदार उदाहरण है। ये दोनों मकबरे देखने में जुड़वां लगते हैं।

बड़ा इमामबाड़ा
इसे आसिफी इमामबाड़ा के नाम से भी जाना जाता है। इसे लखनऊ के नबाव आसफउद्दौला द्वारा बनवाया गया था। इस इमामबाड़े का निर्माण उन्होंने 1784 में अकाल राहत परियोजना के अंतर्गत करवाया था। यह विशाल गुंबदनुमा हॉल 50 मीटर लंबा और 15 मीटर ऊंचा है। परिसर में एक श्राइन, एक भूलभुलैया यानी भंवरजाल, एक बावड़ी (सीढ़ीदार कुंआ) और नवाब की कब्र भी है, जो एक मंडपनुमा आकृति से सज्जित है। इमामबाड़ा की वास्तुकला ठेठ मुगल शैली को प्रदर्शित करती है, जो पाकिस्तान में लाहौर की बादशाही मस्जिद से काफी मिलती-जुलती है। इसे दुनिया की सबसे बड़ी पांचवीं मस्जिद माना जाता है।

भूल-भुलैया



बड़ा इमामबाड़ा परिसर में ही भूल-भुलैया है, जिसके कारण बड़ा इमामबाड़ा काफी मशहूर है। भूलभुलैया में कई भ्रामक रास्ते हैं, जो एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं और इनमें कुल 489 दरवाजे हैं।

रूमी दरवाजा
बड़े इमामबाड़े के बाहर ही रूमी दरवाजा बना हुआ है। यहां की सड़क इसके बीच से निकलती है। नवाब आसफउद्दौला ने यह दरवाजा 1782 ई. में अकाल राहत परियोजना के अंतर्गत लोगों को रोजगार दिलाने के लिए बनवाया था।

घंटाघर
लखनऊ का घंटाघर भारत का सबसे ऊंचा घंटाघर माना जाता है। हुसैनाबाद इमामबाड़े के घंटाघर के समीप ही 19वीं शताब्दी में बनी एक पिक्चर गैलरी भी है। यहां लखनऊ के लगभग सभी नवाबों की तस्वीरें देखी जा सकती हैं।

रेजीडेंसी
लखनऊ रेजीडेंसी के अवशेष ब्रिटिश शासन की स्पष्ट तस्वीर दिखाते हैं। 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के समय यह रेजीडेंसी ईस्ट इंडिया कंपनी के एजेंट का भवन था। यह ऐतिहासिक इमारत लखनऊ के दिल कहे जाने वाले हजरतगंज चौराहे से डालीगंज जाने वाली रोड पर शहीदस्मारक पार्क के करीब है।

सतखंडा पैलेस



यह इमारत हुसैनाबाद इलाके में स्थित है। अवध के तीसरे बादशाह मुहम्मद अली शाह ने 1842 में इसे बनवाया था। यह इमारत इटली में बनी ‘पीसा की झुकी मीनार’ की झलक पेश करती है। सतखंडा पैलेस के निर्माण के दौरान इसके चार खंड ही बन पाए थे कि इस बीच 16 मई, 1842 में मुहम्मद अली शाह का निधन हो गया। बादशाह की कई इमारतें अधूरी रह गईं, जिनमें सतखंडा या नौखंडा पैलेस, जुम्मा मस्जिद और बारादरी प्रमुख थी। जुम्मा मस्जिद को ‘खुदा का घर’ मानकर बादशाह की बेगम मलका ने पूरा करवाया, लेकिन दूसरी इमारतों को अगले बादशाहों ने भी पूरा नहीं करवाया, क्योंकि उस वक्त का दस्तूर था कि वे इमारतें मनहूस मानी जाती थीं, जिनके निर्माण के दौरान बनवाने वाले की मौत हो जाए। यही कारण है कि सतखंडा पैलेस भी तब से आज तक वैसे ही अधूरा पड़ा है।

रोशन-उद्दौला की कोठी
कैसरबाग बस अड्डे के सामने स्थित जिस बिल्डिंग में आज पुरातत्व निदेशालय का ऑफिस है, वह भी लखनऊ की धरोहरों में से एक है। करीब पौने दो सौ साल पुरानी इस इमारत का निर्माण 1827 से 1837 के बीच लखनऊ के दूसरे बादशाह नसीरुद्दीन हैदर ने करवाया था।

सिकंदर बाग
अवध के अंतिम नवाब वाजिद अली शाह (1847-56 ई.) ने अपनी प्रिय बेगम सिकंदर महल के नाम पर सिकंदरबाग का निर्माण कराया था। इसके निर्माण में करीब एक साल का समय लगा था। इसके प्रवेश द्वार में उत्कृष्ट स्थापत्य के दर्शन होते हैं, जो भूरी सतह पर सफेद रंग की उभारी गई फूल-पत्तियों से अलंकृत है।

दादा मियां की दरगाह
लखनऊ से 32 किमी. की दूरी पर बाराबंकी जिले के देवा शरीफ में हजरत वारिस अली शाह की दरगाह है। इसे लोग दादा मियां की दरगाह भी कहते हैं। करीब 130 फीट ऊंची दरगाह की दिव्यता देखते ही बनती है। हर साल कार्तिक महीने में यहां एक विशाल मेला लगता है।
(इनपुट : योगेश प्रवीण, इतिहासकार, लखनऊ)

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