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चंबा में बेहद प्रसिद्ध हैं ये पांच आस्‍था के केंद्र

वैसे तो चंबा का अपना सौंदर्य पर्यटकों को अपनी ओर यूं ही खींचता है पर यहां के पांच प्रमुख स्‍थान हैं जो अलग अलग तरह से अपनी आस्‍था के चलते लोगों को आकर्षित करते हैं।

By molly.sethEdited By: Published: Fri, 14 Jul 2017 04:12 PM (IST)Updated: Mon, 17 Jul 2017 01:55 PM (IST)
चंबा में बेहद प्रसिद्ध हैं ये पांच आस्‍था के केंद्र
चंबा में बेहद प्रसिद्ध हैं ये पांच आस्‍था के केंद्र

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लक्ष्मीनारायण मंदिर की भव्यता
यह चंबा का सबसे विशाल मंदिर समूह है। मंदिर मुख्य बाजार में है। मंदिर परिसर में श्री लक्ष्मी दामोदर मंदिर, महामृत्युंजय मंदिर, श्रीलक्ष्मीनाथ मंदिर, श्रीदुर्गा मंदिर, गौरी शंकर महादेव मंदिर, श्रीचंद्रगुप्त महादेव मंदिर और राधाकृष्ण मंदिर हैं। लक्ष्मीनारायण मंदिर समूह एक वैष्णव मत का मंदिर है। इसे 10वीं सदी में राजा साहिल वर्मन ने बनवाया था। यहां विष्णु के वाहन गरुड़ की धातु की बनी प्रतिमा मुख्य द्वार पर सुशोभित है। राजा चतर सिंह ने 1678 में मुख्य मंदिर में सोने का आवरण चढ़वाया। मंदिर परिसर काफी भव्य और मनोरम है। कहा जाता है कि पहले यह मंदिर चंबा के चौगान में था। बाद में वर्तमान स्थल पर स्थापित किया गया। मंदिर में लक्ष्मी नारायण की बैकुंठ मूर्ति कश्मीरी और गुप्तकालीन निर्माण कला का अनूठा प्रतीक है। इस मूर्ति के चार मुख और चार हाथ हैं। मूर्ति की पृष्ठभूमि में तोरण है, जिस पर 10 अवतारों की लीला चित्रित की गई है। 

मृत्‍यु के देवता का भी है मंदिर 

जहां लक्ष्‍मीनारायण मंदिर जीवन में भक्‍ति रस का संचार करता है वहीं मृत्‍यु के देवता यमराज का ये मंदिर जीवन की नश्‍वरता और मोक्ष की सार्थकता का अहसास कराता है। भरमौर में में बना मौत के देवता का मंदिर कहलाने वाला चंबा से साठ किलोमीटर की दूरी पर स्‍थित धर्ममंदिर मंदिर है। मंदिर की स्थापना का समय ज्ञात नहीं पर चंबा रियासत के राजा मेरू वर्मन ने छठी शताब्दी में इस मंदिर की सीढि़यों का जीर्णोद्धार किया था। मान्यता है कि मरने के बाद हर व्यक्ति को इस मंदिर में जाना पड़ता है। मंदिर में एक खाली कमरा है, जिसे चित्रगुप्त का कमरा माना जाता है। कहते हैं किसी की मौत के बाद धर्मराज महाराज के दूत उस व्यक्ति की आत्मा को चित्रगुप्त के सामने प्रस्तुत करते हैं। इस कमरे को 'धर्मराज की कचहरी' कहा जाता है। मंदिर के पुजारी बताते हैं कि सदियों पूर्व चौरासी मंदिर समूह में दिन के समय भी कोई नहीं जाता था, चूंकि यहां बहुत घनी झाडि़यां थीं। मान्यता है कि अप्राकृतिक मौत होने पर यहां पर पिंडदान किए जाते हैं। साथ ही परिसर में वैतरणी नदी भी है, जहां गोदान किया जाता है। हालांकि इसकी पुष्टि नहीं हो सकती और न ही विश्वास होता है, लेकिन यहां के पुजारी पंडित लक्ष्मण दत्त शर्मा के मुताबिक, 'मंदिर परिसर में कई बार ऐसी ध्वनियां सुनाई देती हैं, जैसे कोर्ट में बहस हो रही हो' 

भद्रकाली या भाली माता का मंदिर

इस मंदिर के बारे में कहा जाता है कि मां की प्रतिमा को पसीना आया तो समझो मन्नत पूरी हुई। चंबा जिले के उपमंडल सलूणी से 40 किलोमीटर दूर भलेई नामक गांव में प्रसिद्ध शक्तिपीठ भद्रकाली माता का मंदिर है, इसे भाली माता का मंदिर भी कहते हैं। यह चंबा के ऐतिहासिक मंदिरों में से एक है। भद्रकाली माता को जागती ज्‍योत के नाम से भी पुकारा जाता है। माना जाता है कि मां जब प्रसन्न होती हैं तो उनकी प्रतिमा से पसीना बहने लगता है। उस वक्त जितने भी श्रद्धालु मौजूद होते हैं, सबकी मनोकामनाएं पूरी हो जाती हैं।

सूही माता का मंदिर

यहां रानी सुनयना ने पानी के लिए बलिदान दिया था। चंबा का सूही मेला उस देवी की याद दिलाता है, जिसने प्रजा को पानी उपलब्ध कराने के लिए अपना बलिदान दे दिया था। कहा जाता है कि चंबा बसने के बाद यहां मुख्य समस्या पानी की थी। लोगों को रावी से पानी लाना पड़ता था। समस्या के हल के लिए शहर से कुछ दूरी पर सरोथा नाले से नहर बनाई गई, परंतु पानी चंबा तक नहीं पहुंच पाया। जमीन समतल होने पर भी पानी आगे नहीं जाता था। कहते हैं कि राजा को स्वप्न में दैवी आदेश मिला कि राजपरिवार से किसी की बलि दी जाए तो पानी आ सकता है। जब ये बात रानी सुनयना को मालूम हुई तो उन्होंने बलिदान देना सहर्ष स्वीकार कर लिया। बलिदान को जाते समय रानी ने लाल वस्त्र पहने थे। लाल रंग को स्थानीय बोली में सूहा कहा जाता है। इसी कारण रानी सुनयना का नाम सूही पड़ गया और ये स्‍थान सूही माता का मंदिर कहलाया। प्रतिवर्ष चैत्र माह में रानी के नाम पर सूहा मेले का आयोजन होता है। 

मणिमहेश यात्रा

महादेव की तपस्थली मणिमहेश यात्रा का रोमांच भी लोगों को चंबा जिले की ओर खींच लाता है। इसकी समुद्र तल से ऊंचाई अमरनाथ गुफा से करीब एक हजार फुट अधिक 13,500 फुट है। यहां दुर्गम और पथरीले रास्तों से आने वाले लोगों की संख्या में कमी नहीं आई है। हर साल श्रीकृष्ण जन्माष्टमी से लेकर राधाष्टमी तक चलनी वाली इस यात्रा का अलग महत्व है। यहां कैलाश चोटी के ठीक नीचे से मणिमहेश गंगा का उद्भव होता है। कैलाश पर्वत की चोटी पर चट्टान के आकार में बने शिवलिंग का इस यात्रा में पूजा की जाती है।


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