विरोध के नाम पर हिंसा और बयानबाजी क्यों?
अगर किसी विचार या फिल्म से समाजिक उपद्रव की आशंका है तो उसके प्रसारण और प्रदर्शन को रोकने के संवैधानिक तरीके हैं।
गनीमत है कि कोल्हापुर में संजय लीला भंसाली की 'पद्मावती' के सेट पर हुई आगजनी में किसी की जान नहीं गई। संजय लीला भंसाली की टीम को माल का नुकसान अवश्य हुआ। कॉस्ट्यूम और जेवर खाक हो गए। अगली शूटिंग के लिए फिर से सब कुछ तैयार करना होगा। ऐसी परेशानियों से हुड़दंगियों को क्या मतलब? उन पर किसी प्रकार की कार्रवाई नहीं होती तो उनका मन और मचलता है। वे फिर से लोगों और विचारों को तबाह करते हैं।
देश में यह कोई पहली घटना नहीं है, लेकिन इधर कुछ सालों में इनकी आवृति बढ़ गई है। किसी भी समूह या समुदाय को कोई बात बुरी लगती है या विचार पसंद नहीं आता तो वे हिंसात्मक हो जाते हैं।
सोशल मीडिया पर गाली-गलौज पर उतर आते हैं। सेलेब्रिटी तमाम मुद्दों पर कुछ भी कहने-बोलने से बचने लगे हैं। डर पसर रहा है। फिल्मों के लेखन और निर्देशन में यह डर घुस रहा है। सीबीएफसी से लेकर सेंसर के लिए तत्पर वृहत समाज से आगत परेशानियों से बचने के लिए लेखक और निर्देशक पहले से ही कतरब्योंत में लग जाते हैं। किसी भी सभ्य समाज में सृजन पर लग रहे ऐसे ग्रहण का समर्थन नहीं किया जा सकता।
सृजन के क्षेत्र में मतभेद और विरोध होना चाहिए। विमर्श होना चाहिए। अगर किसी विचार या फिल्म से समाजिक उपद्रव की आशंका है तो उसके प्रसारण और प्रदर्शन को रोकने के संवैधानिक तरीके हैं। उन पर अमल किया जा सकता है। अभी तो यह स्थिति बनती जा रही है कि मतभेद, असहमति और विरोध दर्ज करने के लिए हर कोई हिंसक हो रहा है। भड़काऊ बयान दे रहा है। सोशल मीडिया पर ट्रोल आरंभ हो जाता है।
पिछले दिनों नाहिद आफरीन को लेकर जिस प्रकार कथित फतवे जारी हुए। पूरे मामले को जो रंग दिया गया, उससे यही अहसास बढ़ रहा है कि सृजन और अभिव्यक्ति का दायरा निरंतर संकीर्ण होता जा रहा है। कुछ कट्टरपंथी समाज में समागम नहीं चाहते। वे प्रतिभाओं को उभरने नहीं देना चाहते। दिक्कत यह है कि ऐसी घटनाओं पर प्रशासन की चुप्पी और उदासी हुड़दंगियों का बेजा जोश बढ़ाती है। अफसोस की बात है कि समाज के कुछ तबकों से उन्हें समर्थन मिल जाता है। हमेशा से सोसाइटी के नेक बंदे खामोश रहते हैं। किसी भी लफड़े में शामिल होकर अपनी मुसीबत कोई क्यों बढ़ाए?
कुछ व्यक्ति (इंडिविजुअल) होते हैं, जो साहस करते हैं। वे सृजन के लिए हर जोखिम उठाते हैं। ऐसे साहसी सर्जकों की बदौलत ही क्रिएटिव संसार फलता-फूलता है। ऐसे सृजनधर्मी व्यक्ति ही हमारे समाज के गौरव होते हैं। कभी उनका नाम संजय लीला भंसाली होता है तो कभी नाहिद आफरीन। हमें ऐसे व्यक्तियों के समर्थन में आना होगा। समाज में विभिन्न मतों, विचारों और कृतियों के लिए गुंजाइश रखनी होगी। तभी हम देश और समाज के विकास में सहायक होंगे।
अन्यथा दिख रहा है कि हम किस विध्वंस की ओर बढ़ रहे हैं।
- अजय ब्रह्मात्म्ज
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